कविताएँ ::
घनश्याम कुमार देवांश

Ghanshyam Kumar Devansh poet
घनश्याम कुमार देवांश

कवि और जोखिम

एक कवि को ठीक से जीने के लिए
कितना जोखिम उठाना चाहिए
कवि अक्सर सोचता है
जब लोग दुनिया के वसंत में हरे हो रहे होते हैं
वह यह तक नहीं तय कर पाता
कि अपने पैर कहाँ जमाए—
दहकते सूर्य की धमनियों के जाल में,
हरी घास भूमियों की कसी हुई मिट्टी में
या फिर शुष्क रेतीली धरती की भीतरी अवसादी चट्टानों के बीच
संदेह, ऊहापोह और कश्मकश के बीच
वह खड़ा रहता है अपने पैर बार-बार उठाता-धरता
किसी घने जंगल के दलदल में
क्या यह विडंबना नहीं कि
वह एक वृक्ष की भांति
हरे-भरे वनों के ठीक भीतर कहीं गहरे ही रहना चाहता है
और फिर भी वृक्ष हो जाने से बचा रहना चाहता है

तुम्हारी देह की गंध

तुम्हारी देह की गंध
नहीं थी तुम्हारी देह में
तुम्हारे जाने के बाद
तुम्हारी देह की गंध मिली मुझे
अपनी ही देह में
क्या तुम्हारी देह में भी
छूट गई है वहाँ
मेरे देह की गंध?

बर्फ़, मैं और तुम

जहाँ तुम खड़ी मुस्कुरा रही हो
वहाँ बहुत देर मत रहना
इसके नीचे कुछ भी हो सकता है
मसलन एक गहरी झील
एक क़ब्र
या खुले में पड़ा कोई शव
जिसकी शिनाख़्त कर पाना एक मुश्किल काम ठहरा
वैसे बर्फ़ पिघलने से यह भी संभव है
कि उभर आए वहाँ
कोई काठ की बेंच
कोई काठ का घोड़ा
कोई काठ का फूल
लेकिन फिर भी…
तुम सर्दियों में ही आना
जब ख़ूब बर्फ़ पड़े
जब हर चीज़ पर बर्फ़ पड़े
जब सिर्फ़ दो चीज़ें शेष रह जाएँ
बर्फ़ और मैं

तभी आना तुम

इन दिनों

इन दिनों
जब भी तुम उदास होती हो
तुम्हारी आँखों में कश्मीर दिखता है
और परिंदों से बिछुड़ा एक लाल आसमान
इन दिनों
मेरे हाथ संगीन हुए जाते हैं
और इच्छाएँ बारूद

यह सब रात की बात है
सुबह मैं सब भूल जाता हूँ

***

2 जून 1986 को जन्मे घनश्याम कुमार देवांश का एक कविता-संग्रह ‘आकाश में देह’ (2017) शीर्षक से भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है। ‘हस्तिनापुर की एक निर्वासित स्त्री’ शीर्षक एक नाटक भी गए दिनों प्रकाशित हुआ है। वह गुरुग्राम, हरियाणा के एक स्कूल में बतौर हिंदी अध्यापक कार्यरत हैं और सोशल नेटवर्किंग साइट्स से दूर रहकर चुपचाप अपना लिखना-पढ़ना कर रहे हैं। समय-समय पर प्रकाशित, मंच पर उपस्थित और सम्मानित होते रहते हैं। उनसे ghanshyamdevansh@gmail.com पर बात की जा सकती है।

2 Comments

  1. Neha दिसम्बर 14, 2018 at 5:22 अपराह्न

    बहुत ही सुंदर कविताएं……..

    Reply
  2. Tayyaba Siddiqui दिसम्बर 26, 2018 at 7:18 अपराह्न

    Kavi kuch hi panktiyon me sadiyon ke Dard ko Bayan kar deta hai. Is bikhre hue samye me shayad Kavita ke madhyam se hi hum ek doosre ko jod payen. Likhte rakhiye kyunki ye prerna hai humare liye.

    Reply

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