गद्य ::
मानव कौल

Manav Kaul hindi writer
मानव कौल

…कोमल सपने से ही तो शुरुआत हुई थी। इतनी कोमलता की शायद आदत नहीं थी सो हमने उसे बहुत भीतर दबा दिया था। लोग हँसी उड़ाएँगे के डर ने उस सपने के बीज को तिड़का दिया। कोमल सपने का एक पौधा फूटा, पर उसका रंग हरा नहीं था। उसके रंग माँ की पुरानी पड़ गई साड़ियों से मिलते थे… उसके आँचल से, घर की धुँधली पड़ गई दीवारों से, गाँव की गलियों से, कश्मीर की बर्फ़ से, आसमान से।

उस पौधे के रंगों में नहीं जिए जा सके जीवन की सौंधी ख़ुशबू थी। फूल नहीं थे। फूल खिलने में अभी बहुत वक़्त था। यह उन कोमल सपनों की सुबहें थीं जिनकी जड़ों में बस एक घनघोर बारिश का इंतज़ार था।

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थोड़े को बहुत नहीं मान सकते, पर बहुत के आगे पूर्णविराम लगाना भूल जाते हैं। घर से कोई उठकर चल देता है तो ख़ाली जगह में बचे रह गए सामान गूँजते रहते हैं देर तक। किचेन में खड़े दूर तक देखने की आदत में सपना जैसा एक शब्द जुगनू की तरह कभी दिखता है, कभी ओझल हो जाता है। पलक झपकने और दिन बीत जाने के बीच कहीं किसी थमे तलाब में कमल खिला रहता है। जीवन एक फलाँग दूर है, बस एक क़दम आगे रखने की देर में…

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आसमान देखते ही आँखें चील तलाशती हैं। उस चील की कहानी में मेरा बचपन शुमार है। श्रीनगर की गलियों में, पिता की उँगली पकड़कर जब मैं उनसे कहता कि रात एक डरावना सपना देखा तो वह कहते कि अपने डरावने सपने चील को सुना देना, वह उसे दूर बादलों में छोड़ देगी, फिर वह वापस नहीं आएँगे। मैंने कहा ऐसा थोड़े ही होता है! पिता बोले कि देखो तुम्हें मानना पड़ेगा, यह जीवन गणित की equation की तरह है, उसे हल करने के लिए माना कि… से शुरुआत करनी पड़ती है। माना कि चील तुम्हारा सपना सुन रही है, या अगर तुम मान लो कि मैं तुम्हारे साथ नहीं हूँ। मैंने मान लिया कि श्रीनगर की इस गली में पिता मेरे साथ नहीं हैं और मेरे पिता ग़ायब हो गए थे।

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मेरे भाई और मेरी उम्र कुछ आठ या नौ साल की होगी, जब हमने कश्मीर छोड़ा था। कश्मीर छोड़ने का हमें उतना दुख नहीं था जितना तितली से बिछड़ने का। तितली, हम दोनों भाइयों का पहला प्यार था। जाते वक़्त मैं ख़ुद को संभाल नहीं पाया और तितली के सामने रो दिया, तभी मेरा भाई आया और उसने कहा चलो जाना है, और जाते वक़्त उसने तितली से उसकी एक श्वेत-श्याम तस्वीर माँग ली। मैं उस वक़्त भाई की इस हरकत पर बहुत हँसा था और सच्चे प्यार पर ज्ञान भी बघारा था, पर बाद में मुझे मेरी मूर्खता का एहसास हुआ।

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नदी से देर तक बातें करने की आदत बन गई थी। हमेशा लगता कि मेरी सारी बातें नदी बहाकर दूर ले जाएगी। उस दूर में जवाहर टनल जैसी लंबी अँधेरी गुफा के बाद बहुत सारा उजाला होगा। उस उजाले में जो जिस रंग का है, वह उस रंग का दिखेगा। ‘मैं’ कहीं गुम जाएगा और हमेशा ‘हम’ जैसी बातें होंगी। सब कुछ उलझा हुआ, सुलझा हुआ सुनाई देगा… उस सुलझे हुए की अँगड़ाई में मन पतंग होगा। जिस दिन मैं उस पतंग को वापस इस नदी में बहा दूँगा, उस दिन यह नदी मुझे माफ़ कर देगी।

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कहानी कहने की कल्पना में सबसे पहले नदी दिखती है। नदी किनारे, पीपल के बाबा एक लौंडे की हाथ की रेखाओं में तुरंत भविष्य में आने वाला ख़तरा पढ़ते हैं। भगवान ही बचाए की गहरी साँस में वह ऊपर देखते हैं, तभी उसी पेड़ से एक लड़की कूद पड़ती है— अपनी चुनरी सँभालते हुए। उम्र तय करने में वह जवान हो चुकी होती है। तभी बाबा लौंडे के दूसरे हाथ में उस लड़की की छूट गई चुनरी देखते हैं। पिंजरे में बंद तोता चीखता है, ‘‘फिर वही कहानी…?’’ पीपल से आवाज़, ‘‘तू बदलकर देख ले…।’’ इस जवाब से आहत बाबा लौंडे को उसी चुनरी से खींचकर पेड़ से बाँध देते हैं और ख़ुद लड़की के पीछे भाग लेते हैं। तोता ख़ुश होता है और पीपल के पत्ते झड़ने लगते हैं। कालांतर में पता चलता है कि बाबा लड़की के प्रेम में पड़ जाने से दाढ़ी-मूँछ कटाकर लौंडे हो जाते हैं, और पेड़ से बँधा लौंडा तोते का ख़याल रखते-रखते अपनी दाढ़ी बढ़ा लेता है। अब पीपल अपना विस्तार बढ़ा चुका है और तोता जब भी चीख़ने जाता, ‘‘फिर वही कहानी…’’ तो उसके मुँह से सीटी बजने लगती!

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हम गाँव आ चुके थे। कश्मीर अब हमारे क़िस्सों में था, पर जब-जब कश्मीर की बात उठती हम दोनों को तितली उड़ती हुई दिखती। मेरा भाई तुरंत दूसरे कमरे में चला जाता। बाहर बैठा मैं जानता था कि वह भीतर तितली की श्वेत-श्याम तस्वीर निहार रहा होगा, और तब से सालों तक मैं तितली के साथ अपने रोने पर पछताता रहा। मुझे मेरे भाई को बहुत ख़ुश करना पड़ता था, तब कहीं जाकर वह मुझे किसी दुपहर तितली को निहारने देता था। बशर्ते कि मैं तस्वीर को छू नहीं सकता था और घूरना बिल्कुल मना था। वह शायद उसकि स्कूल आईडी से निकाली तस्वीर थी। वह उसमें परी की तरह लगती थी। लगता था कि अभी तस्वीर से बाहर निकलेगी और कहेगी चलो उड़ते हैं…।

भाई के निक्कर की जेबों में वह तस्वीर ज़्यादा नहीं टिक पाई। हम भी गाँव की गलियों में भटकने लगे थे। तितली उड़ गई थी। अभी कुछ साल पहले पिता कश्मीर की अपनी अंतिम यात्रा पर थे और वह तितली के परिवार से मिले। हम दोनों भाइयों के मुँह से निकला, ‘‘तितली कैसी है?’’ पिता ने कहा, ‘‘उसकी शादी हुई और पहले बच्चे की डिलेवरी में उसके पैरों ने काम करना बंद कर दिया, पति छोड़ चुका था, डिप्रेशन की वजह से कुछ समय पहले वह चल बसी।’’ हम दोनों भाई और कुछ भी जानना नहीं चाहते थे।

बहुत देर की चुप्पी के बाद मेरा भाई उठा और भीतर कमरा में चला गया। मुझे लगा कि वह भीतर तितली की तस्वीर निहार रहा होगा। पहली बार इस विचार ने मुझे तकलीफ़ नहीं पहुँचाई। देर तक सब सन्न रहा, फिर बहुत धीरे से—ताकि कोई सुन न पाए—मैंने उसका नाम बुदबुदाया, ‘‘तितली’’ और मैं ज़मीन से डेढ़ इंच ऊपर उठ चुका था।

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मैं इसकी ख़ुशबू पहचानता हूँ—यह मेरे ख़ून में है। जब मैं अपनी माँ के क़रीब होता हूँ तो किन्हीं बहुत सुंदर क्षणों में एक ख़ुशबू उनके पास से आती है। यह ख़ुशबू मेरे कश्मीर की ख़ुशबू जैसी है—मेरा कश्मीर। पर यह क़तई वह कश्मीर नहीं है जिसका ज़िक्र टीवी पर या अख़बारों में होता है या महफ़िलों में जिस पर चिंता व्यक्त की जाती है… ना।

मेरे कश्मीर में तो हर सुबह बेकरी से उठता धुआँ है जिसमें ताज़ी रोटी की ख़ुशबू है, कहवा है, चील है, ख़्वाजाबाग़ है, अब्दुल्ला का ताँगा है, बुख़ारी है, फ़ैरन है, बानिहाल है, राजमा-चावल हैं, तितली है, खुला-नीला आसमान है जिसमें सुफ़ेद रूई जैसे बादल हैं… पर ये बादल हाथी-घोड़े नहीं बनाते। ये विस्फोट के बाद की चुप्पी के से बादल हैं। इनमें पानी नहीं कहानियाँ भरी हुई हैं। बर्फ़ के बाद खिली हुई धूप जैसी कहानियाँ। यक़ीन मानिए यह बिलकुल वह कश्मीर नहीं है जिसे आप जानते हैं।

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हर लड़ाई के पहले बहुत देर तक सोचता हूँ कि स्टेक पर क्या है? जब जीवन में बहुत देर हो जाना भी क्षणिक हो। सुबह-सुबह चाय पी जाए या कॉफ़ी, जूता पहनूँ या चप्पल, तेज़ चलूँ या धीरे, उठ जाऊँ या बिस्तर पर ही लोट-पोट होता रहूँ… ये छोटे-छोटे चुनाव ही लड़ाई हैं। ये छोटे चुनाव और जीवन के बड़े-बड़े निर्णय बिल्कुल एक ही तरह के क्षणिक बिंदु पर टिके रहते हैं। दोनों पर एक ही बात लागू होती है—स्टेक पर क्या है? बार-बार यह सवाल गूँजता है। समस्या इस सवाल की नहीं है। कुछ ही क्षण में हम अपने जवाब के बादल को लिए बारिश कर रहे होते हैं, समस्या इसके बाद शुरू होती है।

चुनाव ख़त्म होते ही रंग बदल जाते हैं जो नहीं चुना वह दिमाग़ में रह जाता है और जो चुन लिया वह मेरे थके हुए जीवन का हिस्सा बन जाता है। ठीक इस वक़्त मैं चाय पी रहा हूँ, जबकि कॉफ़ी दिमाग़ में है। ‘The naïve and the sentimental novelist’ नाम की किताब बालकनी में ले आया जबकि ‘kafka on the shore’ बिस्तर पर पड़ी है, कल रात वह पढ़ते-पढ़ते मैं सो गया था। हाथ में Orhan Pamuk है और दिमाग़ में Murakami …दुविधा। मैंने चाय पीना बंद किया, लिखना बंद किया, सीधे कॉफ़ी बनाई और उसके साथ बालकनी में Murakami को भी ले आया।

अब Pamuk और Murakami, चाय और कॉफ़ी… दोनों मेरे साथ हैं, सामने हैं। अब न तो मैं कॉफ़ी पी रहा हूँ, न चाय, न Pamuk, न Murakami नाटकीयता किस बात की है? नाटकीयता तलाशने की है, अपने आपको चाय की जगह बिठाने की है, मानो मैं Murakami हूँ जो बालकनी में बैठे हुए ख़ुद को देख रहा है। हर चीज़ का अर्थ उसके होने में है। यात्राओं की कल्पना में जब भी अपने घर के दरवाज़े पर ताला लगाता हूँ तो दरवाज़ा वापिस खोलने का स्वप्न भीतर घर कर जाता है। यह दूसरा बिंदु है, इस दूसरे बिंदु का स्वप्न ही टाइम और स्पेस को पैदा करता है। इस दूसरे बिंदु के आते ही सब कुछ फ़िक्शन हो जाता है। यह सब एक ऐसी कहानी में तब्दील हो जाता है, जिसकी शुरुआत अपने घर में ताला लगाना और अंत इस ताले को खोलना है। अब यात्रा पर कौन निकला? मैं नहीं… मैं सिर्फ़ एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँचता हुआ एक आदमी होऊँगा, और वह कोई दूसरा होगा जो इस यात्रा का नायक है। मैं नायक नहीं हूँ। मैं अपने शरीर के बीच कहीं पाया जाता हूँ और अक्सर मानव पुकारे जाने पर पलटता हूँ।

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एक उम्र में लगता था कि हम गोदो हैं। हम वहाँ नहीं पहुँच पा रहे हैं, जहाँ हमारा इंतज़ार हो रहा हैं, और इसके चलते लगातार एक हड़बड़ी मची रहती थी। हम ख़ुद परेशान थे और दूसरों को परेशान करना नहीं भूलते थे। लगता था कि बस एक बार वहाँ पहुँच जाएँ, जहाँ लोग हमें देखते ही कह दें, ‘‘बताओ कब से तुम्हारे इंतज़ार में थे।’’ फिर हम अचानक रुक गए, लगने लगा कि असल में हम इंतज़ार करने वाले हैं और गोदो तो कोई और ही है। बुद्ध की सारी बातें हमारे इंतज़ार का बहाने बनीं और हम बैठे रहे, पर गोदो के दर्शन नहीं हुए। थक-हारकर हमने चलना शुरू किया। जब थकान से हम भीतर ख़ाली हुए तो हम ऐसी-ऐसी जगहों पर पहुँचने लगे, जिनकी कल्पना तक हमने नहीं की थी। कहीं पहुँचना और किसी का इंतज़ार… सब निरर्थक हो गया। बेपरवाही, बेवजह, आश्चर्य, उत्सुकता जैसे शब्दों का आकर्षण बढ़ गया। कितना अच्छा हुआ कि गोदो नहीं आया, वरना हम क्या करते उसका? और भला हुआ कि हम गोदो नहीं हुए और भटकते रहे। अब स्थिति यह है कि अगर इस यायावरी में कहीं गोदो टकरा जाए तो मैं उसे पहचान नहीं पाऊँगा और कहीं किसी ने गोदो पुकारा तो मैं पलटना भूल जाऊँगा।

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कुछ भी अच्छा होता है तो घबराहट होने लगती है। घबराहट से कहीं ज़्यादा ख़ालीपन लगने लगता है… क्योंकि तकलीफ़ें तो अकेले ही झेली हैं… तब कोई नहीं होता था और यह बात ठीक भी लगती थी कि कोई नहीं है। पर ख़ुशी में क्या करना चाहिए? मैं एक जगह बैठ नहीं पाता हूँ। अपने दोस्तों को फ़ोन करके इधर-उधर की बातें करता हूँ। कल एक दोस्त ने पूछ लिया, ‘‘तू ठीक तो है न?’’ मुझे याद है कि मेरे मुँह से बड़ी दयनीय आवाज़ में निकला, ‘‘मैं बहुत ख़ुश हूँ यार…!’’

मैं सच कह रहा था, पर इससे ज़्यादा झूठ सुनाई देने वाला वाक्य मेरे मुँह से कभी नहीं निकला था। कुछ देर चुप्पी रही, फिर हम दोनों बहुत हँसे। मुझे याद है कि जब हमारे घर में पहली बार फ्रिज आया था तो ठंडे पानी से सबके गले ख़राब हो गए थे। फ्रिज का क्या करें, यह महीनों तक समझ नहीं आया था… बस हम सब उसे किसी बहाने से छूते रहते थे, जब उँगलियों के दाग़ लग जाते तो दाग़ साफ़ करने के बहाने से छूते थे… क्या हम ख़ुशी को छू सकते हैं? अपने डर को एक कपड़ा लेकर साफ़ कर सकते हैं?

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क्या ये अंत है? बहुत दूर जा चुकी हो। सुनो, तुम रुक जाना कहीं पर, पर यह न कहना कि थक गई हो… कहना कि तेज़ धूप में मैं छाया तलाशना चाहती हूँ। मैं कहानी के उस हिस्से में फँसा हुआ हूँ, जहाँ ख़ाली घर में धूप घुस आई है और मेरे हाथों में झाड़ू है। तुम छाया की तलाश में बरगद चुनना और सुनना देर तक मेरे झाड़ू से धूप बुहारने के क़िस्से… मुझे पता है कि तुम्हें बहुत हँसी आएगी, पर हमारी कहानी का अंत मुझे किसी बरगद की छाया में पल रही दरगाह दिखती है। सुनो तुम छाया मत तलाशना, तुम दरगाह ढूँढ़ना… वहाँ तुम्हें छाया, बरगद और कहानी का अंत ख़ुद ही पड़ा मिलेगा।

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कश्मीर के बारामूला में पैदा हुए मानव कौल की परवरिश मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में हुई। वह नाटक और सिनेमा के संसार से संबद्ध हैं। पहले उनके नाटकों और बाद में हिंदी फ़िल्मों में किए गए उनके अभिनय ने उन्हें देशव्यापी पहचान दी है। इसके साथ-साथ उनका गद्य भी संभव होता रहा है, जिसमें वह वैभव है जिसके असर में आकर अक्सर उसे काव्यात्मक कहा जाता है। ‘ठीक तुम्हारे पीछे’ (2016) और ‘प्रेम कबूतर’ (2017) शीर्षक से मानव की कहानियों की दो किताबें प्रकाशित और प्रशंसित हो चुकी हैं। उनकी नई किताब ‘तुम्हारे बारे में’ शीर्षक से कुछ रोज़ पहले ही प्रकाशित हुई है। वह मुंबई में रहते हैं। उनसे manavkaul@gmail.com पर बात की जा सकती है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 20वें अंक में पूर्व-प्रकाशित है।

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