निबंध ::
छन्नूलाल द्विवेदी

चुंबन भी एक कला है। अन्य कलाओं की तरह इसकी भी मीमांसा हुई है। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि इस कला पर भी पूरा प्रकाश डाल चुके हैं, पर सुशिक्षित कहे जाने वाले अरसिक साहित्य-सेवी सभ्यता और सदाचार के प्रसार में इतने प्रवृत्त रहे कि उन्हें इस कला की ओर ध्यान देने का अवकाश ही न रहा। यही नहीं, कितने तो चुंबन के नाम से ही भड़कते हैं और इसे व्यभिचार और दुराचार का एक साधन बताते हैं। उनके विचार से यह ठीक भी हो सकता है। कारण, उन्होंने इस शास्त्र का अध्ययन ही नहीं किया, फिर उसके आनंद और रहस्य से परिचित होना और उससे जीवन के सच्चे सुख का अनुभव करना कैसा? यही कारण है कि कितने ही साहित्य-सेवी शुष्क साहित्य से ऊबकर उसकी निंदा करने लगते हैं, कितने ही साहित्य-सृष्टि में पूरी लगन के साथ संलग्न होने पर भी सफल नहीं होते और शृंगार-रस या प्रेम-रस का ज़रा भी वर्णन या नाम आने पर नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं तथा अश्लीलता की दुहाई देकर व्यर्थ का हो-हल्ला मचाते हैं।

चुंबन सबके सामने या एकांत में? इस विषय में लोगों के दो मत हैं। सुसभ्य पाश्चात्य लोगों में चुंबन सर्वसाधारण के सामने लिया जाता है; किंतु प्राचीन नियमों के अनुसार ऐसा करना विवेक और मर्यादा का गला घोटना है। चुंबन की लज़्ज़त उसको गुप्त ही रखने में है। तभी उसका आनंद और रस मिलता है। सर्वसाधारण के सामने चुंबन लेने से उसका आकर्षण जाता रहता है। कहा भी गया है :

Kisses that one steals in darkness,
And in darkness then returns
How such kisses fire the spirit,
If with ardent love it burns!

केटो ने मोनिलियस नाम के एक सिनेटर को सर्वसाधारण के सामने चुंबन लेने और विवेक-भंग करने के अपराध में उसे उसके पद से हटा दिया था। इतिहासकार प्यूटार्क इस विषय में लिखते हैं कि सबके सामने चुंबन लेना एक बहुत हल्का काम है। एलेकजेंड्रिया का अधिकारी जो पीछे से रोम का पोप हुआ था, लिखता है कि नौकरों के सामने चुंबन लेना एक बहुत ही अयोग्य कार्य है। डॉ. क्रिस्टोफ़र निरोप लिखते हैं कि अपनी प्रेयसी का चुंबन लेना प्रेम का एक ऐसा नाज़ुक क़रार है कि यह जहाँ तक सर्वसाधारण की निगाह से बचा रहे, उतना ही अच्छा है। पर आजकल पाश्चात्य देशों में इसको कौन मानता है। वहाँ तो प्रेम के नाम पर प्रदर्शन होता है। वहाँ का क्या कहना! विवाह-योग्य कुमारियों को अविवाहित युवकों को चूमते देख क्या केटो को त्रास न होता। पर अब क्या होता है? ज़माना बहुत आगे बढ़ गया है। विविध पदार्थों के भोजन के बाद स्त्री-पुरुष अनिवार्य चुंबनों का स्वाद लेते हैं। इससे यह अनुभव किया जाता है कि वह ज़माना शीघ्र ही आवेगा, जब भोजन के उपरांत तौलिए से मुँह न पोंछकर चुंबन ही से वह साफ़ किया जाएगा।

चुंबन-संख्या—यह एक बड़ी विकट समस्या है। इसका कोई नियम ही नहीं है। न एक-दो चुंबन लेने से स्त्री-पुरुष को सच्चा संतोष ही हो सकता है। हम तो यही कहेंगे कि संतोष तो कदापि नहीं हो सकता। मोहनीक कहते हैं कि चुंबन में प्रेम को पुष्ट करने का गुण है। अतएव वे उतने ही होने चाहिए, जितने पच सकें। दंपति अगर परस्पर चुंबन न लें, तो समझना चाहिए कि उनमें सच्चे प्रेम का अभाव है।

प्रोफ़ेसर बेन अपनी एक पुस्तक में लिखते हैं कि प्रेमी जोड़ा खाए-पीए बिना रह सकता है; पर चुंबन के बिना नहीं रह सकता। चुंबन तो खाते-पीते लेना चाहिए। परस्पर चुंबन-विनिमय की आतुरता का झरना तो बराबर बहा करता है।

चुंबन कितनी देर तक? इस प्रश्न के उत्तर में अँग्रेज़ी के सुप्रसिद्ध रसिक कवि बायरन की निम्नलिखित पंक्तियाँ काफ़ी होंगी :

A Long, long kiss of youth and love
And beauty, all concentrating like rays
Into one focus kindled from above;
Such kisses as belong to early days
Where heart, and soul and sense in concert move.
And the blood’s lava, the pulse ablaze,
Each kiss a heart-quake-for a kiss’s strength,
I think, it must be reckoned by its length.

चुंबन के स्थान :

ललाटालककपोलनयनवक्षःस्तनोष्ठान्तर्मुखेषु चुम्बनम्
ऊरुसंधिबाहुनाभिमूलेषु लाटानाम्।
रागवशाद्देशप्रवृत्तेश्च सन्ति तानि तानि स्थानानि,
न तु सर्वजनप्रयोज्यानीति वात्स्यायन:।।

चुंबन करने के मुख्य आठ स्थान हैं—ललाट, अलक, गाल, नयन, छाती, स्तन, दो ओष्ठ और मुख के अंदर का भाग (तालु, जीभ, दाँत आदि)। इन आठ स्थानों में छाती नायक की और स्तन नायिका के ही समझने चाहिए। बाक़ी छहों स्थान दोनों के समझने चाहिए।

इन आठ स्थानों के अतिरिक्त तीन स्थान और भी हैं, जो विशेष देश के लोगों को ही मान्य हैं। लाट देश के लोग ऊरुसंधि, बाहु-मूल और नाभिमूल का भी चुंबन करते हैं। अर्थात् वे चुंबन के ग्यारह स्थान मानते हैं। जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड, रूस, अमेरिका, इटली, तुर्की, चीन, जापान आदि देशों के कितने लोगों में भी यह मान्य है और वहाँ लोगों की इस ओर प्रवृत्ति भी है। यह तो अपनी रुचि और तबीयत की बात है… जिसको जहाँ रुचे, वहीं प्रेयसी का चुंबन ले सकता है।

स्त्री का प्रत्येक अंग स्पर्श, आलिंगन और चुंबन के लिए शुद्ध है; क्योंकि :

सोमः शौचं ददावासां गन्धर्वश्च शुभां गिरम्:
पावकः सर्वमेध्यत्वं मेध्या वै योषितो ह्यतः।

— याज्ञवल्क्यस्मृति

अर्थात् : सोम (चंद्र), गंधर्व और अग्नि ने विवाह होने के पूर्व ही स्त्री से भोग करके, प्रत्येक ने अनुक्रम से शौच (शुद्धि), मधुर वचन और संपूर्ण मेध्यत्व (पवित्रता) स्त्री को प्रदान किया था।

यदि चुंबन लेना है, तो मुँह का ही लो। अन्यत्र चुंबन लेने में केवल आधा ही आनंद मिलता है; और मुँह का लिया हुआ चुंबन वापस भी मिलता है।

किसी कवि ने कहा भी है :

If you will kiss, then kiss the mouth,
All other sorts are but half blisses,
The face—ah, no—nor hand, neck, breast,
The mouth alone can give back kisses.

थीबो डी शेंपेन ने स्त्री के मुख और पैर ही को चुंबन लेने के योग्य बताया है; वोडूइन मुँह ही को उपयुक्त समझता है। इस पर थीबो कहता है कि मुँह पर तो राह चलती किसी भी स्त्री का कोई पुरुष चुंबन ले लेता है; पर सच्चा प्रेम दिखाने के लिए प्रेमियों को मुँह का नहीं, पैर ही का चुंबन लेना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से प्रेम शीघ्र प्राप्त होता है।

एक तीसरे पक्ष का यह कहना है कि चुंबन का आरंभ पैर से करना चाहिए और चढ़ते-चढ़ते मुँह तक पहुँचना चाहिए। एक चौथा पक्ष इससे भी आगे बढ़ता है और कहता है कि चुंबन सर्वांग का लेना चाहिए। कहा है :

Friends, it only were my fate!
If fate would will it so,
I’d kiss her beauties small and great,
From bosom down to toe.

प्रेम-क्षेत्र में दोनों पक्ष समान हैं। इसमें पैर तक झुक कर चुंबन लेने की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर ने पुरुष के प्रेम को आकर्षित करने के लिए स्त्रियों के मुख में सौंदर्य रक्खा है। मुख ही चुंबन की प्रेरणा करता है। मुख-द्वंद्व ही से आत्मा का एकीकरण होता है, क्योंकि :

That mouth for Laughter and for kisses framed.

जर्मन कवि गोएथे भी मुख का ही समर्थन करता है :

Eagerly she sucks the flames of his mouth,
Each is conscious only of the other.

और आख़िर में : चुंबन और समय-चातुरी यानी प्रयोज्या की आंतरिक इच्छा जब मुख की ललाई अथवा लज्जा के रूप में प्रकट होती है, उस समय नायिका चाहे जितना मुँह बनाए या आनाकानी करे, नायक को मौक़ा पाते ही नायिका का चुंबन ले ही लेना चाहिए। इसी में चुंबन-विद्या और चुंबन-कला की विजय है। चुंबन की विजय नायक की समय-चातुरी पर ही निर्भर है। जो नायक समय-साधन में निपुण होते हैं, उसकी नायिका उँगली के इशारे पर नाचती है। जो इस काम में चूक जाते हैं, उनका चुंबन नीरस और मूर्खतापूर्ण होता है। यहाँ तक कि उसकी नायिका भी उससे छिटक जाती है। चुंबन लेने के समय की परख न होने से मनुष्य को संसार का सच्चा सुख नहीं मिलता।

…इस अज्ञता से नायक के सब मनोरथ नष्ट हो जाते हैं। नायक को हैमलेट की तरह विचार ही विचार में समय नहीं व्यतीत कर देना चाहिए, पर दृढ़ता से काम करना चाहिए। समय उपस्थित होने पर यह विचार करना कि चुंबन लें कि न लें, अरसिक जनों का काम है। रसिकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि सुंदरी का चुंबन मुस्तैद नायक को ही मिलता है।

छन्नूलाल द्विवेदी हिंदी साहित्य के ‘द्विवेदी युग’ के चर्चित, लेकिन अब पूरी तरह भुला दिए गए लेखक हैं। वह ‘चुंबन मीमांसा’ तथा ‘कालिदास और शेक्सपियर’ जैसी पुस्तकों के रचयिता हैं। यह प्रस्तुति उनके ‘चुंबन’ शीर्षक एक लंबे आलेख का अंश है। यह आलेख समग्रता में ‘माधुरी’ के जनवरी-1930 अंक में प्रकाशित हुआ। इस प्रस्तुति की फ़ीचर्ड इमेज़ गूगल से साभार।

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