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कायनात

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कायनात

शजर नवाज़िश

एक

शजर नवाज़िश!
मेरे लबों को तुम्हारे ख़ूँ की तलब लगी है
तुम्हारा ख़ूँ जो रगों से तअ’ल्लुक़ भुला के इस पल
नज़र के कूज़े में आ टिका है
वही लहू जो ब’सूरत-ए-चुप
तुम्हारे ख़ामोश-ओ-बे’शिकायत
शरार होंठों से छन रहा है

तुम्हारे ख़ूँ की तलब मुझे अब
जहन्नुमों में जला रही है
और इस तलब की तपिश
ज़बर की हदों को कमतर बता रही है

शजर नवाज़िश!
बताओ तुम ही कि किस तरह से
इस इक तलब को क़रार आए, सुकून आए

तुम्हीं बताओ क्या है इजाज़त

कि मैं ही आगे क़दम बढ़ाकर
तुम्हारी पलकों पे बोसा दे दूँ?
तुम्हारी नज़रों का अर्क़ पी लूँ?
या कि तुम्हारे लहू उगलते
शरार होंठों पे होंठ रख दूँ?

दो

शजर नवाज़िश, तुम्हारी आँखें!
शफ़ीक़-ओ-रौशन शफ़्फ़ाफ़ आँखें!
हर इक अदावत से पाक आँखें!

तुम्हारी आँखों की वुस’अतों में
तो बहर-ए-आज़म रवाँ-दवाँ है
औ’ आब-ए-जेहलम की सब रवानी
तुम्हारी आँखों का तर्जुमा है

तुम्हारी आँखों से ख़ाब चुनकर
हज़ार मंज़र जवाँ हुए हैं
तुम्हारी आँखों की इक शुआ पर
शहाब-ओ-अंजुम फ़ना हुए हैं

तुम्हारी आँखों की सुब्ह सब्ज़ा
तुम्हारी आँखों की शाम सुर्ख़ी
तुम्हारी आँखों की रात नीलम
तुम्हारी आँखों का दिन धनक है

इसी धनक की दमक के सदक़े
जहाँ के सब मस’अलों से आरी
सराब-ए-वस्ल-ओ-फ़िराक़ आँखें
शजर नवाज़िश, तुम्हारी आँखें!
शफ़ीक़-ओ-रौशन शफ्फ़ाफ़ आँखें!
हर इक अदावत से पाक आँखें!

मुझ पर मुहब्बत के राज़ ऐसे ही खुलने थे

मुझ पर मुहब्बत के राज़ ऐसे ही खुलने थे
जैसे अपनी तमामतर लज़्ज़त के साथ
ज़ुबाँ पर खुलता है ज़ायक़ा

चखे बिना तो नमक तक की परख पूरी नहीं होती
और मैंने मुहब्बत कर ली थी
जिस्म की दहलीज़ पर
रूहानियत की लकीर खींच
बिना किसी आज़माइश के

मुझ पर कैसे ज़ाहिर होता कि
बोसा बदन की सीढ़ी चढ़कर
किस तरह रूह को पी जाता है
कैसे एहसास होता मेरे वजूद को
कि लम्स की दहकन में
बाज़ औक़ात बारूद उतर आता है

मैं नींद से लेकर बेदारी तक
क़हक़हों से लेकर अश्कबारी तक
अपने जिस्म की ख़ाहिशों की ग़ुलाम थी
मेरी कहन मेरी ज़ुबाँ की ज़िम्मे थी
मेरी ख़ामुशी मेरे दिल की रज़ा की तालिब
मेरे लफ़्ज़ों पर मेरे लबों की लगाम थी

मैंने साँस को फेफड़ों में उतार कर महसूस किया था
मैंने पानी को हलक़ की तस्कीन के ज़रिए जिया था
आह! तो फिर फ़क़त मुहब्बत ही में से क्यों
मैंने जिस्म को तफ़रीक़ करना चुन लिया था

यूँ उम्र भर के लिए इक आह को अपना मुक़द्दर कर दिया था

सद अफ़सोस कि अब जबकि ख़ात्मे पर सफ़र है
सवाल बेशुमार हैं, जवाब सारे गुमशुदा
सादा सफ़ह है जिस्म का
और मुहब्बत की तकमील पर ‘रद्द’ की मुहर है!

कॉमरेड

कॉमरेड, तुम मुश्क हो
तुम्हारे माथे पत्थर महकते हैं

पाँव तले धूल दमकती है जग-मग
काँच-आँखें तुम्हारी चखती हैं सूरज
तुम्हारी नब्ज़ की लय पर सैयारे बहकते हैं

कॉमरेड, तुम हो आग
ज़ुबाँ पर तुम्हारी, शीरीं-शोले दहकते हैं!

सर्द सुबहों को मन भर हँसी की सज़ा

मेरे लब पे लहू की लकीरें कई
यक’ब’यक ही नमूदार होने लगीं
ऐसे जैसे बदन की रगें सब की सब
इन लकीरों को ज़रिया बना कर के अब
मेरे तन से निकलने को बेताब हैं

ऐसे जैसे किसी ज़लज़ले के सबब
ख़ुश्क धरती लरज़ कर चटकने को है
ऐसे जैसे हवाओं के पुर’नम महल
कोहसारों से टकरा के ढहने को हैं
ऐसे जैसे हवस-मुब्तला आसमाँ
हर समंदर से लिपटी नमी का नमक
अपने माथे सजाने की कोशिश में है

इस क़दर दिलशिकन, ऐसी ना-मेह्रबाँ
सर्द सुबहों को मन भर हँसी की सज़ा
सर्द सुबहों को मन भर हँसी की सज़ा

नज़्र-ए-अमीनाबाद

क़ैसरबाग़ बस’अड्डे से सीधी चली आती सड़क
ख़म होती है जब दानिश’महल से लगकर
ज़रा बाईं ओर तो आ जाता है अमीनाबाद

अमीनाबाद यानी अम्मा की रसोई के
सब इंतज़ाम से लेकर
बैठक के कुशन-तकियों की सजावट से बनता-सजता
अजायब घर
अमीनाबाद यानी जुलाहे के ताने-बाने में बुनी तमीज़
चिकनकारों की कारीगरी में लिपटी तहज़ीब
और मेंहदी वाले के सधे हुए हाथों से
दोशीज़ाओं की नाज़ुक हथेली पर
बेल-बूटे उकेरते लम्हों का वाहिद गहवारा

अमीनाबाद यानी किताबों की गली से लेकर
शादी-कार्ड वाली गली तक
क़िस्म-क़िस्म के सपने की तिजारत में महव
मोहन मार्केट की तीनों गलियों में
दो सौ ढाई सौ के विर्द में लीन
और गड़बड़झाला की गड्डमड्ड गलियों में गुम
कोई ताजिर, कोई तपस्वी, कोई नाज़नीन

अमीनाबाद यानी ऐसा हसीं पैकर
कि जो दो पल ठहरे यहाँ
हुस्न का मारा कोई शाइर
तो कह बैठे—
“अमीनाबाद की गलियाँ
लचकती हैं जो शाख़ों-सी
लचक कर फिर सम्हलती हैं
महकती हैं कभी ऐसे
कि जैसे अधखिली कलियाँ
अमीनाबाद की गलियाँ”

सो साहिब अस्ल मुद्दा है
कि सारे लखनऊ की जाँ
अमीनाबाद सरवत है
भले उजलत बहुत है याँ
मगर उजलत में फ़ुरसत है
यहाँ का हर गली-गोशा
तमन्नाओं की जन्नत है
अमीनाबाद है रौनक़
अमीनाबाद बरकत है!

***

कायनात की नज़्में कहीं प्रकाशित होने का यह पहला अवसर है। वह लखनऊ विश्वविद्यालय से अँग्रेज़ी साहित्य में परास्नातक हैं। बाराबंकी, उत्तर प्रदेश में रहती हैं। उनसे kaynaatekhwaab@gmail.com पर बात की जा सकती है। यहाँ प्रस्तुत नज़्में उर्दू से हिंदी में उन्होंने ख़ुद लिप्यंतरित की हैं। पाठ में मुश्किल लग रहे शब्दों के मानी जानने के लिए यहाँ देखें : शब्दकोश

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