सुरेश जोषी की कविताएं ::
गुजराती से अनुवाद : सावजराज

सुरेश जोषी, 1955

मेरा एकांत

मैं देता हूं तुम्हें एकांत—
हंसी के जमघट के बीच एक अकेला अश्रु
शब्दों के शोर के बीच एक बिंदु भर मौन

यदि तुम्हें सहेजकर रखना है तो यह रहा मेरा एकांत—
विरह सम विशाल
तम सम नीरंध्र
तुम्हारी उपेक्षा जितना गहरा
जिसका साक्ष्य न सूर्य, न चंद्रमा
ऐसा केवल एकांतातीत एकांत

नहीं, क्रोधित मत होना
मेरी परछाईं ने भी उसका स्पर्श नहीं किया है
और न ही उसमें मिश्रित है मेरा शून्य
जितना मेरा वह एकांत उतना ही दो वृक्षों का
उतना ही समुद्र का
और ईश्वर का भी

यह एकांत—
नहीं है हमारे प्रणय की धन्य धरा
और विरहिणी विहार धरा

सिर्फ भरा हुआ एकांत
मैं देता हूं तुम्हें एकांत

तुम्हारा अंधेरा

आज मैं तुम्हारे अंधेरे से बात करूंगा
तुम्हारे होंठ की नर्म पंखुडियों के बीच का हल्का नर्म अंधेरा
और केश-कलाप का कुटिल संदिग्ध अंधेरा

तुम्हारे चिबुक पर उभरे तिल में अंधेरे का पूर्णविराम

तुम्हारी शिराओं के अरण्य में छिपे अंधेरे को
मैं कामोन्मत्त सियार की हुंकार से ललकारूंगा
तुम्हारे हृदय के सुनसान अतल में स्थित सूखे अंधेरे को
मैं उल्लू के नेत्रों में मुक्त करूंगा

तुम्हारी आंख में जम गए अंधेरे को
मैं अपने मौन के चुंबकीय पत्थरों से घिसकर जला दूंगा
वृक्ष की डाल पर ओतप्रोत अंधेरे के अन्वय
सिखाऊंगा तुम्हारे पैरों को
आज मैं अंधेरा बनकर तुम्हें भेदूंगा

विषाद की गुफा

ईश्वर के हाहाकार जैसे
परछाईंविहीन वृक्ष खड़े हैं
बुखार से जलते ललाट पर
अपने जैसा अपना समुद्र है
थकान से चूर होकर गिर गए किसी बूढ़े पक्षी जैसा चांद
सरोवर में प्रतिबिंबित है
तेजाब में भीगे
नकली सिक्के जैसा सूर्य जगमगा रहा है
गूंगे आदमी के कंठ की अनुच्चरित वाणी जैसे
असंख्य मनुष्यों की भीड़ से होकर
मैं चला जा रहा हूं
विषाद की गुफा की नमी ढूंढ़ता हुआ
मेरी आत्मा
एक आशा में
तुम्हारे पास आकर अटक जाती है

कवि की वसीयत

शायद कल मैं न रहूं
कल यदि सूर्य उदय हो तो कहना
कि मेरी बंद आंखों में
एक आंसू सूखना बाकी है

कल यदि हवाएं चलें तो कहना
किशोरावस्था में एक किशोरी के
चोरी किए स्मित का पक्वफल
अब भी मेरी डाल से गिरना बाकी है

यदि कल समंदर छलके तो कहना
कि मेरे हृदय में पत्थर हो गए स्याह ईश्वर को
चूर-चूर करना बाकी है

कल यदि चांद रोशन हो तो कहना
कि उसे आलिंगन में लेकर भाग जाने के लिए
एक मछली अब भी मुझमें तड़प रही है

कल यदि अग्नि प्रकट हो तो कहना
मेरी विरहिणी परछाईं की चिता
अब भी जलनी बाकी है

शायद कल मैं न रहूं

***

सुरेश जोषी (30 मई 1921–6 सितंबर 1986) गुजराती भाषा के प्रसिद्ध कवि, कथाकार, निबंधकार, आलोचक और अनुवादक हैं. उन्हें 1983 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, जिसे उन्होंने लेने से मना कर दिया था. सावजराज युवा कवि, लेखक, पत्रकार, अनुवादक और यायावर हैं. वह गुजराती में लिखना तर्क कर चुके हैं, और इन दिनों अपना रचनात्मक-कार्य हिंदी में कर रहे हैं, जिसे कहीं प्रकाशित करवाने की उन्हें कोई जल्दी नहीं है. उनसे sawajraj29292@gmail.com पर बात की जा सकती है.

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