गद्य ::
सुमेर

Sumer Singh Rathore hindi writer
सुमेर

हमने अपनी-अपनी निष्ठुरताओं के जो पौधे लगाए थे, उन पर उग आए फूल कभी दिखने ही नहीं थे।

शहर उतने भी हरे नहीं थे जितने बारिश के बाद दिखते थे बालकनियों से। दुख यह था कि हर सुख या दुख को कहीं भी लिखकर नहीं बहाया जा सकता था। मैंने जो निष्ठुरता के थोर उगाए उन पर इन दिनों ख़ूब सारे फूल उग आए हैं। मैं फूलों पर हाथ फिराता हूँ और हाथों में काँटे चुभ जाते हैं। इन पौधों का और उन पर उग आए फूलों का रंग रेगिस्तान पर कितना जँचता है। रंग खिलते हैं और मिट जाते हैं। सब कुछ कितना आसानी से हो जाता है। बहुत कम समय में। छिपा-छिपा-सा सब। आना और लौट जाना। चुप रह जाना।

कोई निशान है—पुरानी बहुत गहरी चोट का, हमेशा के लिए रह गया निशान। सब कुछ सही हो जाने के बाद भी निशान पर उँगलियाँ लगती हैं तो लगता है वैसे ही है सब कुछ—कचोटता-सा, डुबाता-सा, अँधेरे-सा। लौट जाना या लौट आना हाथ में नहीं रह जाता—कठपुतलियों की तरह—तब भी जब अपने डोरे अपनी ही उँगलियों में थे। यह शहर की शाम है। आसमान बादलों से भरा है। हल्के-हल्के बारिश गिर रही है। ऑटो से बाहर जब लाइटें चौंधियाना बंद करती है तो आसमान का रंग नीला दिखता है, और ऐसा लगता है कि जैसे सब कुछ पर नीला रंग उतर आया है। पानी, सड़कें, इमारतें सब नीले-नीले।

कितना सही होता होगा जहाँ से आए हैं वहीं लौट जाना। चुपचाप बिना आवाज़ किए लौट जाना। कहीं भी रोशनी चमकती है तो लगता है कि दीवारों पर लिखा हुआ है—‘सब कुछ होना बचा रहेगा’।

नीली दीवारों पर सफ़ेद अक्षर बूँदों की तरह ही चमक रहे हैं—तैरकर गुम हो जा रही बूँदों की तरह। सब कुछ कितना क्षणिक है। बस चमकता है और मिट जाता है—अँधेरे में दीवार के पास से दिखकर उड़ गए जुगनू-सा। ऐसे लग रहा जैसे मुझे नशा चढ़ रहा है। एक बच्चा भाग रहा है, रेगिस्तान में पेड़ों के बीच। ऐसे लगता है कि जैसे मैं मुझे ही देख रहा हूँ।

छोटी बाज़ू की आसमानी क़मीज़ों में चहकते सारे बच्चे जब स्कूल की और भाग रहे थे। वह उल्टी दिशा में खेतों की ओर भाग रहा था। ये स्कूलों की छुट्टियाँ होने से कुछ पहले के दिन थे। वह गुनगुनाता हुआ रेत में पाँव धँसाते हुए बकरियों से पहले पहुँच जाने के लिए जितना हो सकता था, उतना तेज दौड़ रहा था। कच्ची साँगरियों के साग का जो स्वाद था उसके लिए वह किसी भी और चीज़ को छोड़ सकता था। वह बकरियों के पहुँचने से पहले ही उस खेजड़ी के पेड़ पर चढ़ गया था और किनारे की डालों से पतली साँगरियाँ तोड़कर वह नीचे गिराता जा रहा था। बकरियों के झुंड पगडंडियों पर दौड़ते हुए आ रहे थे और उसे जल्दी से नीचे उतरकर चुग लेनी पड़ी सारी साँगरियाँ। अगर दोस्त साथ होता तो बकरियों को हकालता और वह पूरा अँगोछा भर जाने जितनी साँगरियाँ तोड़ता फिर दोनों आधी-आधी बाँट लेते। पर दोस्त नानाणे चला गया था। उसे अकेले ही तोड़नी थी साँगरियाँ । उसके बचपन की गर्मियों और सर्दियों की सुबहें इन्हीं पगडंडियों पर भागते हुए बीतती थीं। केर, साँगरियाँ और बेर चुगते हुए।

इन्हीं रास्तों पर भागते हुए खुलने लगे थे उसके मन के पँछी के पर। वह लौटते हुए घंटों टीले पर बैठकर सोचता रहता। उसका मन सब कुछ से उचटने लगा था। वह शाम में इस रास्ते पर चला आता और लौटते हुए पंछियों और उगते तारों को चुपचाप देखता रहता। जेबों में बेर भरते हुए वह उलझा लेता ख़ुद को बोरड़ी के काँटों से। लाल पाके चुगते हुए वह उँगलियों को टूळे के काँटों से भर लेता। पीलू चुगते हुए जाळ की सबसे ऊँची लचकती डाल पर से ऐसे झूलकर कूद जाता कि पगथलियाँ झनझना उठतीं।

वह चुपचाप तालाब किनारे की बोरड़ियों के नीचे बैठ जाता और पानी में गर्दनें डुबाकर उड़ जाते अलग-अलग तरह के पँछियों को देखता रहता। अकेले चलते-चलते वह इतना खो जाता कि झूमने लगता, उसके कानों में बजने लगती खड़ताल और मोरचंग की आवाज़ें।

दुपहरों के ख़ाली मिट्टी के घरों में खिड़की के पास पुरानी बिखरी हुई चारपाई खिसकाकर वह हवा से खेलता हुआ दीवारों पर कोइए देखते हुए ऊँघने लगता। उसे लगता जैसे पास में कोई हुक्का गुड़गड़ा रहा है।

उसे लगता कि वह ऐसे ही उड़ सकता था। वह सबसे कटते हुए सोचता था कि उसके साथ जो-जो बुरा हुआ उससे वह भाग सकता था। वह भागते हुए जेबों में भरी अच्छी यादों को छिपा देता। ओडी ऊँची करवाते हुए शरारती हँसी हँसकर आँख मारती मनिहारिनें। चिकोटी काटकर छमछम भागते पाँव। लुकणा डाई में गालों पर निशान छोड़कर हँसती बिखरे काजल वाली आँखें। खंडहरों में चोटियाँ बिखेर आँखें तरेरती बातें।

वह जब भी डरता तो लगता कि उसके पंख कट गए हैं। वह कितनी भी कोशिश करने के बाद भी अपने साथ हो रहे बुरे से भाग नहीं सकता था। सब कुछ उतना ही बुरा है जितना था। कभी-कभी ख़ुद का होना ही बुरा होता है।

हमने अपनी-अपनी निष्ठुरताओं के जो पौधे लगाए थे, उन पर उग आए फूल कभी दिखने ही नहीं थे।

सिर्फ़ चुभन ही दिख सकती थी और काँटे कहाँ नहीं थे… केर, बेर, थोर, पगडंडियाँ सब जगह काँटे थे—और सुकून भी तो वहीं था। लोग सच में बहुत बुरे थे, और लोगों में आदमी तो ज़हर थे—ज़हर जो रोज़ धीमी मौत मारता जाता है।

मुझे छोड़ दो मैं बस इतना बताकर लौट आऊँगा, ‘‘मैं दिल्ली में हूँ।’’

शायद दो दिनों से न सोने की वजह से था या फिर बीमार होने का असर कि वह बिस्तर पर बैठे-बैठे लैपटॉप घुटनों पर रखे-रखे ही सो गया। अचानक से चिल्लाकर उठा तो उसने देखा कि उसके दोनों हाथ खिड़की की जाली में फँसे थे और वह सपने में चिल्ला रहा था, ‘‘मैं दिल्ली में हूँ… मैं दिल्ली में हूँ…।’’

शायद उसे अब यह बताने की ज़रूरत नहीं ही होगी। उसने याद करने की कोशिश की कि सपना क्या था—वह जंगल से गुज़र रहा है और किसी ने उसका हाथ पकड़ रखा है… वह हाथ छुड़ाकर कह रहा है कि मैं ठीक हूँ… पर उसके हाथ को कसकर पकड़ लिया गया है और कहा जा रहा है कि किसी अच्छे डॉक्टर के पास ले जाया जाएगा उसे… वह कह रहा है कि मुझे छोड़ दो मैं बस इतना बताकर लौट आऊँगा कि मैं दिल्ली में हूँ…


सुमेर अभी पच्चीस बरस के नहीं हुए हैं। उनके पच्चीस बरस पूरे होने से पहले राजकमल प्रकाशन समूह उनकी पहली किताब ‘बंजारे की चिट्ठियाँ’ शीर्षक से प्रकाशित कर रहा है, ऐसी सूचनाएँ हैं। सुमेर राजस्थान के जैसलमेर से हैं। उनका गद्य ‘सदानीरा’ पर इससे पहले भी प्रकट हुआ है, यहाँ पढ़ें : सबसे ज्यादा प्रेम उसने रास्तों से किया

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