गद्य ::
शिवेंद्र

शिवेंद्र

मैंने गुफाएं सिर्फ किताबों में देखी हैं और फिल्मों में और केवल अपनी कल्पना में उनमें घूमा हूं, पर मुझे लगता है कि मेरी रचनात्मकता में उनका बहुत बड़ा योगदान है.

मैं जंगल में जन्मा और खुले मैदान में पला-बढ़ा. मैंने नदी देखी, नदी का उफान देखा. मैंने नदी का वह रूप देखा जिसमें वह मां है और मैंने नदी को कर्मनाशा बनते देखा. लेकिन बहुत उम्र तक मैंने पहाड़ नहीं देखे, या फिर रास्तों से गुजरते हुए उन्हें सिर्फ देखा, उन्हें जाना नहीं, कभी छुआ नहीं. तब भी मुझे अक्सर ऐसा लगता है जैसे मैं उनमें गहरे उतरा हूं और उनकी गुफाओं मैंने सदियां गुजारी हैं और उनकी पथरीली छाती को अपने नखों से खरोंचा है और उनकी चट्टानों पर चित्रकारी की है.

मैं जानता हूं कि आप मुझ पर यकीन नहीं कर रहे. मुझे खुद भी खुद पर यकीन कहां है, फिर भी मुझे कह लेने दीजिए कि चालीस हजार साल पहले इंडोनेशिया के सुलावासी केव (Sulawesi cave) के चित्र मैंने बनाए हैं और फ्रांस के चौवेट केव (Chauvet cave) में मेरी ही स्मृति दर्ज है और केव ऑफ दी हैंड्स (अर्जेंटीना) में छपे पंजों के निशान मेरे हैं और भीमबेटका, एलोरा, अजंता और एलिफैंटा सब मेरी ही रचनात्मकता के सबूत हैं.

…और फिर भी आज मेरे सामने यह सवाल है कि आखिर रचनात्मकता क्या है?

बहुत समय हो गया, मुझे अब ठीक से याद नहीं कि उन संकरी और कई बार जहरीली गैसों और कमर तक जल में डुबा देने वाली गुफाओं में जाकर मैंने वे चित्र क्यों बनाए? ऐसी कौन-सी छटपटाहट थी कि अपने नाखून मैं उन पत्थरों पर घिस रहा था? क्या मैं सिर्फ अपनी स्मृतियों को उकेरना चाहता था? या फिर आने वाली पीढ़ियों को अपने होने का सबूत देना चाहता था? क्या मैं यह चाहता था कि लोग मेरी कला को सराहें? क्या मैं किसी का दिल जीतना चाहता था? या फिर किसी बूढ़े के कहने मात्र पर, मैं उन गुफाओं में अपने कबीले का जीवन संजो रहा था… कि हम कैसे शिकार करते थे, कैसे प्रार्थना करते थे, कैसे नृत्य करते थे, और एक बार कैसे एक मोटे सूकर का पीछा करते हुए हम रास्ता भटक गए थे और अपने जंगल से बहुत दूर किसी नगर में पहुंच गए थे…

नहीं… नहीं, तब नगर नहीं थे, पर तब शब्द भी कहां थे!! दोनों को ही बनने में हजारों साल लगे. जब हमारे पूर्वज चलते-चलते और इशारों में बतियाते-बतियाते थक गए, तब वे एक नदी किनारे रुके. उन्होंने जंगलों को साफ किया, बस्तियां बसाईं, जानवर पाले, माटी के पेट में बीज रोपा, और अपने बारे में और अपने आस-पास जो भी दिखा, सबके बारे में सोचना शुरू किया और अचानक से उन्होंने पाया कि वे चौतरफा प्रश्नों से घिर गए हैं और तब उन्होंने अपने कल्पना के घोड़े दौड़ाए और उन्हें जिन भी प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले उनकी उन्होंने कहानियां बनाईं.

जैसे यह कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है… हम मरकर स्वर्ग जाते हैं और पता है जानवर भी पिछले जनम में आदमी थे और अगर तुमने इस जनम में अच्छे कर्म नहीं किए न तो तुम भी जानवर बना दिए जाओगे… और इन कहानियों को आश्रय और समर्थन देने के लिए उन्होंने भगवान बनाए और चूंकि उस समय तक यह जानने का कोई तरीका नहीं था कि पृथ्वी पर जीवन एक कोशिकीय जीव के रूप में पानी में पनपा है और आज जो कुछ भी है उसी का क्रमिक विकास है— आदमी भी, इसलिए उन्होंने ये किस्सा गढ़ लिया कि आदमी को भी भगवान ने ही बनाया है, वह भी सीधे ऐसे ही जैसे कि वह आज है…

किस्से हर कोई नहीं गढ़ सकता, जिन्होंने ऐसा पहली बार सोचा वे उस समय के कहानीकार थे.

मैं जो कहना चाह रहा हूं वह यह है कि प्रतिरोध कला का केंद्रबिंदु नहीं है और न ही उसका मूल स्वभाव है. प्रीहिस्टोरिक गुफाओं में मिले चित्रों से हमें यह पता चलता है कि कला सबसे पहले खुद को एक्सप्रेस करने की चाहत है. जो हम देखते हैं, जो हम सुनते हैं, जो गुनते हैं, जिनके बीच रहते हैं, जिनके साथ रहते हैं, जिनसे युद्ध करते हैं, जिनसे प्यार करते हैं… उनके साथ फिर से जीना है. उन स्मृतियों को मनचाहे फेरबदल के साथ फिर से संजोना है. अगर ओरहान पामुक के एक उपन्यास का नाम बदलकर कहें तो ‘यादों का एक म्यूजियम’ बनाना है.

उसके बाद जैसे कि आदमी का विकास हुआ, जैसे वह होमो-हैबिलीज (Homo Habilis) से होमो सेपियंस (Homo Sapiens) बना (हाथ के इस्तेमाल से लेकर बुद्धि के इस्तेमाल तक) वैसे ही कला का भी विकास हुआ और वह यादों का मकबरा बनाने से आगे बढ़कर जीवन और प्रकृति के संबंधों के बारे में सोचने लगी, उन सवालों के बारे में जो हमारे बेहद करीब मौजूद थे और हमसे इतने घुले-मिले थे कि हमारी उन पर नजर तक नहीं पड़ रही थी.

इसलिए रचनात्मकता अपने विकासशील रूप में सवाल है और उन सवालों के जवाब खोजने की कोशिश है, जिनसे हम घिरे हैं और जो हमें प्रभावित करते हैं. कला अपना यह कार्य मुख्यतः तीन बिंदुओं के आधार पर करती है : स्मृति, अभिव्यक्ति और दृष्टि.

स्मृति के अंतर्गत अनुभव आते हैं— व्यक्तिगत, पीढ़ीगत, सामाजिक, लौकिक और पारलौकिक से लेकर ‘शब्द ही प्रमाण है’ तक वाले अनुभव. जबकि अभिव्यक्ति में निहित है कल्पना और कहने का शिल्प. हमारी कल्पना का आधार क्या है यह बहुत स्पस्ट नहीं है, मगर मुझे लगता है कि कहीं न कहीं यह हमारे अनुभव का ही रचनात्मक रूप है. तीसरा बिंदु दृष्टि सबसे अधिक महत्वपूर्ण है. दृष्टि का अर्थ है किसी भी तथ्य को (जहां तक संभव हो सके) उसकी संपूर्णता में देखना, किसी भी कार्य के कारण का पता लगाना, उसके सत्य तक पहुंचना.

अक्सर लोग यह मानकर चलते हैं कि कला है तो काल्पनिक ही होगी. पत्रकार बड़ी आसानी से कह देते हैं कि तुम्हें क्या? तुम कुछ भी कह सकते हो, कहानीकार जो ठहरे! आखिर, तुम्हें कुछ कहने के लिए सबूतों की जरूरत थोड़े ही न पड़ती है?

हां, यह सच है कि हम सच कहने के लिए सबूतों और आंकड़ों के मोहताज नहीं… लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कला सच्चाई से वाकिफ नहीं है, इसके विपरीत वह तथ्यों और अनुभवों को न केवल वर्तमान बल्कि उसके इतिहास का अध्ययन करते हुए और उससे भविष्य पर होने वाले असर की पड़ताल करते हुए और उसके सर्वाधिक मानवीय पहलू को ध्यान में रखते हुए अपनी कोई भी राय जाहिर करती है. (इतना कुछ करने में कभी-कभी देर हो जाती है और पत्रकार बंधु यह समझ लेते हैं कि कहानीकार को आज की परवाह ही नहीं.)

…शायद इसीलिए प्रेमचंद ने एक जगह लिखा है कि इतिहास में सब कुछ यथार्थ होते हुए भी वह असत्य है और कथा साहित्य में सब कुछ काल्पनिक होते हुए भी वह सत्य है.

इस बात को एक उदहारण के द्वारा और बेहतर ढंग से कहा जा सकता है : ब्राह्मण-कथाओं में राजा हरिश्चंद्र की एक कथा है कि एक बार वह अपने सैनिकों के साथ शिकार पर गए थे. अचानक से उन्हें एक मृग दिखा. उन्होंने मृग का पीछा किया. मृग इतना सरपट भागा कि महाराज अपने सैनिकों से बिछुड़ गए. वह मृग का पीछा करते हुए एक संकरे मार्ग पर पहुंचे जहां उन्हें कुछ स्त्रियों के रोने की आवाजें सुनाई पड़ रही थीं. हरिश्चंद्र बड़े आश्चर्य से उस मार्ग पर आगे बढ़ते हैं कि आखिर इस बियाबान जंगल में स्त्रियां कैसे? कि अचानक से उस संकरे स्थान को पार कर वह एक खूबसूरत उपवन में पहुंच जाते हैं. वहां जो कथा घटती है उसे छोड़ते हुए मैं सिर्फ यह बताने की कोशिश कर रहा हूं कि ऐसी ही एक कथा रामायण में है, जिसमें रावण अपने पूर्वजन्म में किसी जंगली सूकर का पीछा करते हुए अचानक से ऐसे ही एक संकरे मार्ग पर पहुंच जाता है जिसके उस पार नजारा ही कुछ और है.

सोमदेव रचित ‘कथासरित्सागर ‘में भी ऐसी कई कथाएं है जिसमें राजा किसी जंगली सूकर का पीछा करते हुए, एक संकरे मार्ग के द्वारा अचानक से एक ऐसे स्थान पर पहुंच जाते हैं, जहां पूरा का पूरा एक नगर बसा हुआ है. वहां अक्सर एक राजकुमारी स्नान कर रही होती है, जो कि या तो वहां बंदी होती है या फिर किसी ऐसे पिता की पुत्री होती है जो श्रापवश राक्षस बन गया है. राजा या राजकुमार उस राक्षस को मारता है और उसकी पुत्री से विवाह कर उसके साथ खुशी-खुशी रहने लगता है.

यहां जो चीज महत्त्वपूर्ण है, वह यह कि एक राजा का शिकार करते हुए अचानक से एक संकरे मार्ग पर पहुंचना और वहां से उसे जंगल के बीचों-बीच एक बिल्कुल नई दुनिया या नगर का दिखना. यह पहली नजर में एक जादू-सा लगता है— बिल्कुल असंभव, एकदम असत्य.

लेकिन सच यह है कि ऐसा बिल्कुल संभव है. हमें बस इतना करना है कि उस संकरे मार्ग के दोनों ओर बसे स्थानों को यानी जंगल और नगर को दो अलग-अलग समयों में देखना है. दोनों स्थानों के बीच दरअसल हजारों साल का अंतर है : एक वह समय है जब मनुष्य जंगलों में रहता था और शिकार करते हुए अपना जीवन गुजर करता था और दूसरा वह समय है जब सभ्यताएं बस गई हैं और आदमी नगरों में रहने लगा है. कथाओं में बड़ी ही खूबसूरती से एक संकरा रास्ता हजारों साल के समयांतराल का प्रतीक बन गया है.

असत्य लगते हुए भी यह कथा कितनी सत्य है. यह मनुष्य के हजारों साल के इतिहास को अपने भीतर समेटे हुए है. इस सच को जब मार्केज कहते हैं तो उसे ‘जादुई यथार्थवाद’ का नाम दे दिया जाता है, जब कि हकीकत यह है कि यह जादुई यथार्थवाद दुनिया भर की लोक-कथाओं में बहुत पहले से मौजूद है और इन्हीं लोक-कथाओं का इस्तेमाल धर्म ने अपने हित में किया— अपने स्वार्थ-साधन में और लोगों को गुलाम बनाने के लिए.

यह कला का सबसे बुरा पक्ष है कि उसका इस्तेमाल किया जा सकता है. भले ही हम अभी तक कला का प्रतिरोध से रिश्ता नहीं करा पाए, लेकिन धर्म ने बहुत पहले ही उसका इस्तेमाल करना सीख लिया था… बल्कि यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि आज धर्म जो कुछ भी है उसका विकास कला की ही देन है. कला स्मृति है, अभिव्यक्ति है, कल्पना है और सवाल है और उन सवालों के जवाब खोजते हुए ही आदिम मनुष्यों ने धर्म की रचना की थी…

बात तब की है जब आदमी ने गुफाएं छोड़ दी थीं और वह जंगलों को साफ करते हुए, नदियों किनारे बसने लगा था. यह ईसा से करीब तीन-चार हजार साल पहले का समय है. मेरे सामने दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यताएं आकार ले रही हैं. नील नदी के किनारे मिस्र या इजिप्ट की सभ्यता, टिगरिस के तट पर मैसोपोटामिया, सिंधु किनारे हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की संस्कृति और यलो (Yellow) नदी के बाजू में शांग साम्राज्य…

इन्हीं नागरी सभ्यताओं में से किसी एक में या शायद थोड़ा-थोड़ा करके हर कहीं मैं भी जन्मा. मैं जो कि आज का मनुष्य हूं. रोम और यूनान और मेसोपोटामिया और मोहनजोदड़ो सब एक-एक कर मिट गए पर मैं आज भी बचा हुआ हूं, इसका मतलब यह है कि रोम, यूनान, मेसोपोटामिया और मोहनजोदड़ो भी बचे हुए हैं.

मैं इस बहस में नहीं पडूंगा कि आर्य कौन थे और वे कहां से आए, अगर वे सिंधु घाटी से नहीं आए थे और उन्होंने ही सिंधु घाटी वालों का नामो-निशान मिटाया था तो भी हड़प्पा वालों ने मरते-मरते भी उन्हें बहुत कुछ दे दिया था— स्वास्तिक से लेकर पशुपतिनाथ तक दोनों सभ्यताओं में बहुत कुछ कॉमन है. तो क्या हुआ कि हड़प्पा वालों के पास घोड़े नहीं थे तब भी उन्होंने आर्यों के रथ पर सवारी की और सिंधु में आई महाप्रलय के बावजूद वे बच गए और हिंदू हो गए.

उनके हिंदू होने में कला का बहुत बड़ा योगदान है. दुनिया के किसी भी धर्म के बनने में कला की भूमिका महत्वपूर्ण है. शुरू-शुरू में जब हमने गुफाओं में चित्रकारी शुरू की थी और जब हमारे पास ज्यादातर शिकार करने की ही स्मृतियां थीं, तब भी पत्थरों पर अपनी हथेलियों को छापकर हमने यह सवाल उठाया था कि हम कौन हैं? यही सवाल आगे जाकर कला की एक शाखा अध्यात्म के रूप में विकसित हुआ जिससे धर्म की नींव पड़ी.

प्रारंभ में दुनिया भर के सभी धर्म अपेक्षाकृत उदार थे. उनके ईश्वर आज इतने वायवीय न होकर बहुत मानवीय थे, क्योंकि उन्हें रचने वाले सही मायने में अपने जमाने के कवि या कलाकार थे. इसलिए यीशु परमेश्वर के पुत्र होते हुए भी मरियम से प्रेम करते हैं और इंद्र देवताओं के राजा होते हुए भी मजे में शराब पीते हैं.

असली दिक्कत वहां से शुरू हुई जब मनुष्यों के एक वर्ग को यह समझ में आया कि अपने बारे में अब तक हुई खोजों या कल्पनाओं को अपने हित में इस्तेमाल किया जा सकता है और उसके बाद ही धर्म पादरियों, मुल्लाओं और पुरोहितों-ब्राह्मणों के हाथ की कठपुतली बन गया. तभी ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ के बदले ‘न्यू टेस्टामेंट’ की जरूरत महसूस हुई और इंद्र की सारी शक्तियां विष्णु को देकर एक ज्यादा नैतिक देवता को रचा गया.

‘ऋग्वेद’ के दसवे मंडल को जिसमें जाति-व्यवस्था की उत्पति का सिद्धांत है, बहुत से विद्वानों ने बहुत बाद का माना है और स्वयं अंबेडकर ने यह सिद्ध किया है कि शूद्र क्षत्रियों की एक शाखा से संबंधित थे. जिन स्त्रियों ने कभी ‘ऋग्वेद’ के मंत्र लिखे थे उन्हीं से उनके सारे अधिकार छीन लिए गए और जिन लोगों ने ब्राह्मणों का कहा मानने से इनकार किया, उन्हें अछूत बनाकर शोषण की ऐसी श्रृंखला में फंसा दिया गया कि दुनिया के कई देश कई-कई बार गुलाम होकर आज़ाद हो गए, लेकिन उनकी आजादी अब भी गिरवी रखी हुई है.

यह सब कुछ हथियारों के बल पर नहीं हुआ, बल्कि यह सब किया गया कला को हथियार बनाकर. इसलिए कला के केंद्रबिंदु और उसके स्वभाव के बारे में बात करने से पहले हमें कला की देन के बारे में बात करनी चाहिए.

यह ठीक है कि कला का केंद्रबिंदु सृजन है और उसकी दो प्रमुख शाखाओं साहित्य और विज्ञान के बल पर ही हमने यहां तक की यात्रा की है. मगर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कला ने ही जन्म दिया है शोषण को, असमानता को, गरीबी और भुखमरी को, झूठ, फरेब और धोखे को. कला ने छीना है हमसे हमारी स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की भावना को. राजाओं के न्याय की कहानियों ने सत्ताओं के अन्याय के सच को ढंके रखा… सावित्री, अनुसूया और अहिल्या जैसी सती स्त्रियों की दास्तानें सुना-सुनाकर औरतों को जिंदा जलाया जाता रहा और देवताओं के सारे धंधों को आज भी स्वर्ग-नर्क की कहानियों ने ही संभाल रखा है.

विज्ञापन की कला के दम पर तो पूरा का पूरा बाजारवाद फल-फूल रहा ही है और उसी के द्वारा हमें गाय के गोबर से लेकर एक दंगाई प्रधानमंत्री तक… सब कुछ बेचा जा रहा है.

बहुत कम लोग जानते हैं कि मनुष्य ने अपने विकास की यात्रा में करीब एक किलो बुद्धि कमाई है. शुरुआती मनुष्यों के मस्तिष्क का वजन 400 ग्राम हुआ करता था, वहीं अब हमारे मस्तिष्क का वजन 1400-1500 ग्राम होता है. लेकिन समाज ने, धर्म ने और शासन-कला ने ये इनस्योर किया है कि हम 400 ग्राम से ज्यादा न सोचें. हमारी डेढ़ किलो की बुद्धि को 400 ग्राम की मान्यताओं में कैद कर देने की साजिश रची गई है और अगर साजिशकर्ता इसमें सफल हुए हैं तो इसका मतलब यह है कि हम लाख प्रतिरोध-प्रतिरोध चिल्ला लें, लेकिन वे कला का हमसे बेहतर दुरुपयोग करना जानते हैं.

बचपन में पढ़ा था और इस पर हंसा भी था, लेकिन आज समझ में आ रहा है कि क्यों प्लेटो ने यह कहा था कि अगर मेरा वश चले तो मैं सभी कवियों को अपने राज्य से निष्काषित कर दूं… क्योंकि शायद हमेशा यह डर बना रहता है कि कवि कब अपनी कला की ताकत का इस्तेमाल सत्ता के पक्ष में करने लगेगा. जिस ‘मनुस्मृति’ की प्रतियां बाबा साहब अंबेडकर ने जलाई थीं, उस शोषण-चक्र को रचने वाला मनु आखिरकार एक कवि ही तो था, ‘ढोर गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी’ जैसी मानसिकता को जन-जन के मानस में बैठाने वाला तुलसीदास एक कवि ही तो था… क्या आपने अटल बिहारी वाजपेयी की ‘मेरी प्रिय इक्यावन कविताएं’ नहीं पढ़ीं? और क्या आप नहीं जानते कि नरेंद्र मोदी ने तीन किताबें भी लिखी हैं?

इस क्रम में मैं भारतीय जनता पार्टी के सांसद श्री श्री मनोज तिवारी जी का नाम भी लेना चाहूंगा जो अपने मूल में कवि और गीतकार हैं और जिन्हें मैंने अपने स्कूल के दिनों में अपने स्कूल में ही लाइव सुना. श्री मनोज तिवारी जी मानते हैं कि कश्मीर में शांति हो इसके लिए पाकिस्तान से परमाणु युद्ध बेहद जरूरी है और जब वह अपनी इस भावना को एक ‘जनवादी’ गीत में ढालते हुए कहते हैं कि ‘एक ठे ओहर से फेंका एगो एहरो से फेंकाई, एहर त छिलाई ओहर साफ हो जाई’ तो जनमानस जैसे झूम उठता है और अपनी सारी समस्याएं भूल जाता है और वह डेढ़ किलो की बुद्धि वाले आधुनिक समाज से 400 ग्राम के मस्तिष्क वाली एक बेहद सांप्रदायिक भीड़ में तब्दील हो जाता है.

मैं इस दुर्घटना को कभी भूल नहीं पाता, क्योंकि करीब-करीब ऐसी ही दकियानूसी भावनाओं को जिंदा रखने वाली और प्रगतिशील सोच को हजार साल पीछे ढकेलने वाली सोच पर हर रोज कितने ही टीवी शो और फिल्में बन रही हैं… और हम और आप मानें न मानें, क्योंकि हम विकास-विरोधी लोग हैं, लेकिन ऐसे विकारों को परोसने वाले लोग भी खुद को कलाकार ही मानते हैं.

अगर हम कला के इस पहलू को देखे तो हम पाएंगे कि हमने कला को पाकर कितना कुछ खोया है. यह सच है कि वह कला ही है जिसके द्वारा आज हमने सभ्यता की इतनी बुलंदियां हासिल की हैं, लेकिन सवाल यह है कि कितने लोगों ने? हम कहते हैं कि हम मनुष्य हैं और हम जानवरों से अलग है क्योंकि हम सोच सकते हैं, मगर कितने लोग सचमुच में सोच सकते हैं? और हमें सोचने की सचमुच में कितनी आजादी है? जो भी सोचना शुरू करता है वह या तो खरीद लिया जाता है या फिर मारा जाता है. सुकरात से लेकर कलबुर्गी से लेकर गौरी लंकेश तक इसके उदहारण हैं.

इसलिए मुझे लगता है कि प्रतिरोध कला का मूल स्वभाव नहीं है. वह तो सिर्फ एक हथियार है, जिसे लेकर एक लड़ाई लड़ी जा सकती है. हम बार-बार रचनात्मकता की सगाई प्रतिरोध से करते रहते हैं, इससे सिर्फ यह सिद्ध होता है कि हम विपक्ष में हैं. सोचिए अगर हम उस समाज को पा लें जिसका हम आज स्वप्न देखते हैं, जिसमें स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व हो तब भी क्या हमारी मुट्ठियां भिंची होंगी? तब भी क्या हम माथे पर बल डाले इसी तरह एक दूसरे के आमने-सामने बैठे होंगे? तब भी क्या हमारी कलाएं प्रतिरोध का झंडा उठाए नारा लगाती फिरेंगी?

तब अगर हम एक साथ इकट्ठा भी होंगे तो जश्न मनाने के लिए, खुशी और प्यार के गीत गाने के लिए, इस बात पर चर्चा करने के लिए देखो यह दुनिया कितनी खूबसूरत है…!

इसलिए प्रतिरोध कला का मूल स्वभाव नहीं, बल्कि यह हमारे समय की सबसे बड़ी जरूरत है और यह जरूरत तब तक बनी रहेगी जब तक कि हम उस दुनिया को पा नहीं लेते, जिसकी तलाश में हम दरख्तों से नीचे उतरकर इस धरती तक आए हैं…

***

शिवेंद्र हिंदी-कथा और रचनात्मक गद्य के एक अग्रगामी नाम हैं. वह मुंबई में रहते हैं, उनसे और परिचय के लिए उनका एक साक्षात्कार यहां पढ़ें : 

‘हम कोशिकाओं से नहीं, स्मृतियों से बने हैं’

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