पत्र ::
अखिलेश सिंह

hindi poet Akhilesh Singh
अखिलेश सिंह

यह एक चिट्ठी है। यह चिट्ठी न तो संपादन की किसी बारीकी से संबंधित है और न ही किसी रचना पर की गई किसी पाठकीय टिप्पणी से। यह एक चिट्ठी है और यह सिर्फ़ आप—संपादक—को लिखी गई है और अपने प्रकाश्य होने का दावा नहीं रखती है। यह चिट्ठी एक दोस्त के नाम भी हो सकती है, और पतंग में बाँधकर इसे अनाम में विलय होने को भी भेजा जा सकता है। लेकिन यह चिट्ठी बेहद होशियार है, सिरज उठने की चाह में इसने संपादक की राह पकड़ी।

अपनी कुशलता की बात करूँ, तो लगभग सब ठीक है। यात्राएँ, अध्ययन, आजीविका… सभी कुछ जीवन की गति से गड्डमड्ड है।

अगर यह कहूँ कि मैं समय-यात्रा करता हूँ तो लोग सतही तौर पर थोड़ा दार्शनिक हुंकारी भरेंगे, क्योंकि यह मेरे इस दावे को बेहद सामान्य साबित करने के लिए ज़रूरी है और अगर मैं यह बात ज़ोर देकर कहूँ तो लोग अपनी व्यस्तता के कारण ऊब जाएँगे। उनके लिए तब तक मेरी पोल खुलने लगेगी, और अगर मैं अपनी समय-यात्रा की कहानी सुनाऊँ तो लोग मुझमें भरपूर मनोरंजन पाएँगे, उनके लिए यह एक पागल का उदय होगा जो कि सिजोफ्रेनिया, बाईपोलर, बी.पी.डी., पैरानोइया जैसी तमाम बीमारियों का शिकार हो सकता है।

बहुत-सी संभावनाओं का सिक्का उछालने के बाद, मैं यह तय करता हूँ कि मुझे ख़ूब रंग-रोगन रखने चाहिए। बातें कहनी चाहिए, लेकिन सँभालकर। एक ‘सजग लेखक’ को सर्वप्रथम अपना अच्छा वकील होना चाहिए। लेखक का जागना, उसके भाग्य जागने से संबद्ध है।

ख़ैर, मैं समय-यात्रा करता हूँ। कई-कई दिनों तक, महीने से थोड़ा पहले तक। और मैं बहुत कुछ देखता हूँ (पाता कुछ नहीं हूँ, क्योंकि पा लेना मेरी लोक-भाषा मे विशिष्ट बात है, मेरी अजोध्या में तो प्रसाद या भोजन ही पाया या पवाया जाता है), मैं देखता हूँ कि अतीत में भी सब कुछ वैसा नहीं रह गया है, जैसा कि हम छोड़कर आए थे। अतीत का भी विकास हुआ है। और अतीत का कोई विकास बिल्कुल वर्तमान में नहीं फलित होता। वर्तमान एक अलग ही स्थिति है। जिसमें कभी हुआ नहीं जा सकता। पानी कब ओस बनता है और फिर अचानक ही वह सिर्फ़ पानी ही बचता है, यह आश्चर्यजनक है। बिल्कुल मेरी उपरोक्त बातों की तरह। पानी के ओस हो जाने और फिर पानी ही शेष रह जाने का जादू ही मेरी समय यात्रा की कहानी है।

संपादक महोदय, मैं बातों को बहुत खोल नहीं पा रहा हूँ, कोई निश्चय नहीं दे पा रहा हूँ। जबकि मेरी आत्मा कोई ऐसा निश्चय चाहती है जैसा कि वैज्ञानिक प्रेक्षणों के बाद ठोस रूप में मिलता है।

अतीत, वर्तमान और भविष्य में कोई सातत्य मानकर नहीं चला जा सकता; क्योंकि ऐसा करने से संयोगों को ख़ारिज करना होगा। जबकि पसीना बहा कर भी बनता हुआ वर्तमान, धूमिल होता हुआ अतीत या कि कोई दूर का भविष्य कब, किन संयोगों से, क्या अवस्थिति पा ले, यह नहीं कहा जा सकता। और हम सब ऐसी बातों का प्रत्यक्ष करते हैं।

संपादक महोदय, मेरा अध्ययन न्यून है और मेरे रोज़मर्रा का प्रत्यक्ष घटनापूर्ण। बेहद। भाषा मुझे स्थितियों के घुमाव-बिंदुओं पर खड़ी हुई मिलती है। नए परिचय मुझे सवाल की तरह मिलते हैं और पुराने परिचय ज़िम्मेदारियों के अतिबोध की तरह। तमाम अतियों और सवालों से हर वक़्त गुजरते हुए मैं अवस्था-शून्य हो जाता हूँ। हर समय मैं अपने व्यामोह को ख़ारिज करता हूँ और इस ख़ारिज में भी इतना मैं-मैं होता है कि दिमाग़ की नसें बेक़ाबू हो जाती हैं।

मनुष्य के वर्तमान के पास अपनी कोई गरिमा नहीं होती है। चाहे वह उसके रोज़मर्रा का काम हो या उसकी उम्र। देखता हूँ कि जो तीस पार कर चुके हैं, वे कैशोर्य के आकर्षण में दबकर तोतले हो गए हैं और जिनकी त्वचा उनकी अस्थियों से संघर्ष कर रही है, वे, दिल तो बच्चा है जी… कर रहे हैं। जीवन के सारे रस इमोजी ऑइकन की सुविधा के साथ अपना ग़म-ग़लत कर रहे हैं।

तकनीक ने शब्दों को साधा और शब्दों ने जीवन को हमेशा से फाँद रखा है। दुःख अभी भी इस बात का है कि कभी-कभार ग़ैर एसी बस, ट्रेन की स्लीपर-जनरल यात्रा या ऑटो-टैक्सी की फटफट झेलनी पड़ जाती है। धूल मुँह में भर जाती है, शरीर पसीने से सराबोर हो जाता है, यहाँ तक कि चमड़ी धूप में झौंस जाती है। ये दुःख वास्तव में दुःख ही हैं, मेरे समेत किसी से भी पूछकर देखो, लेकिन मेरा कोई चोर-मन इन दुःखों को ग़नीमत-ग़नीमत जप रहा है। हालाँकि, यह जाप छू- मंतर लोना माई… के जाप से भी धीमा है, बुदबुदाहट भरा; क्योंकि मैं अब ज़माने से नहीं, अपने चोर-मन की ऐसी बुदबुदाहटों से डरता हूँ।

फ़ोरलेन सड़कों के बीचोबीच पेड़ों को इस क़दर छाँटा गया है और उनकी क़तार इस तरह है कि जैसे किसी के मृत्युभोज में एक क़तार से बैठे हुए सगे-संबंधी हों।

जब आसमान में बादल हों, अच्छी हवा हो, जेब में अगणित पैसा हो और हर अगले आदमी को कभी भी दिखा देने के लिए ठेंगा हो तो सड़कें बहुत अच्छी लगती हैं। इन स्थितियों में थोड़ी कमी-बेसी भी चलेगी। लेकिन मेरी दादी के अनुसार, ऐसे सड़क-बहारू टाइप के लोगों के पास कोई हर्र-फिटकरी नहीं होती है। हर्र यानी हरड़, फिटकरी यानी जो अभी भी कहीं-कहीं सैलूनों में मिल जाती है और जो नमक, शीशे या साफ़ पानी की तरह होती है और जिसमें कीटाणुनाशक गुण होते हैं। दादी के अभिप्राय में ये शब्द-युग्म गृहस्थ के ज़िम्मेदार होने के प्रतीक हैं।

संपादक महोदय, कौन-से लेख में कब कविता घट जाए और कब कोई कहानी, यह नहीं कहा जा सकता। कई बार, आपसे परिवेश माँगा जाता है, कई बार आपको दरवेश माना जाता है। समझ मे नहीं आता कि मनुष्य को ख़ुद ही ज़िम्मेदार होने के बजाय क्या इस बात का इंतज़ार करना चाहिए कि अभी कुछ ज़िम्मेदारियों की उससे माँग होगी तो वह ज़िम्मेदार हो लेगा!

ऐसा लगता है कि जीवन-व्यवहार की सारी प्रक्रियाएँ सिर्फ़ प्रतिक्रियाएँ बनकर रह गई हैं। ऐसी प्रतिक्रियाएँ जिनके लिए आपकी कोई तैयारी नहीं है। जैसे पेट के भीतर रसों के घालमेल से कुपच हो जाता है, वैसे ही जगत में सारे रस इतने तीव्र और क्षणिक हो गए हैं कि सारे प्रत्यक्ष कुपाच्य हो गए हैं। हँसमुख, दुर्मुख, क्रोधमुख, प्रेमोन्मुख… सब कुछ इस मुख को एक साथ होना है—कुछ ही सेकेंडों में।

अंतराल बहुत महत्वपूर्ण हो गए हैं और ‘अंतर’ से बनने वाले सभी शब्द लगभग अर्थहीन। हर बात एक डिक्टेशन की तरह मालूम होती है और हर क्रिया जीवन की घाघ फ़रमाइशों में एक अंध-क्रिया।

होने मात्र से ही कोई सत्ता होती है। हम सब कुछ हैं, कुछ हो रहे हैं, कुछ और होना चाह रहे हैं। ग़ालिबन डूब जाना है इस होने से ही, क्या ग़ालिब भी जगह-जगह सत्ताओं के बनते जाने से परेशान थे? जो मैं लिख दे रहा हूँ, इसका भी कोई सत्ता-मूल्य होगा? क्या मेरे संबोधन भी किसी सत्ता को ही हैं?

अखिलेश सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। उनकी कुछ कविताएँ, अनुवाद और आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। अखिलेश के काम में एक गंभीर चमक और कसक है। वह व्यग्रताओं के बहुत क़रीब जाकर अपनी कहन-लिखन चुन रहे हैं। वह सब कुछ का साक्षी होने के प्रयत्न में हैं और इस प्रक्रिया में सँकरी गलियों को दिल-ओ-दिमाग़ से तंग जनों के लिए छोड़ रहे हैं। उनकी कुछ कविताएँ ‘सदानीरा’ के आगामी यानी 23वें अंक में आएँगी। वह इन दिनों दिल्ली में रह रहे हैं। उनसे akhianarchist22@gmail.com पर बात की जा सकती है। इस प्रस्तुति से पूर्व वह ‘सदानीरा’ के लिए बीसवीं सदी में साहित्य के सुर्रियलिस्ट और अवाँगार्द आंदोलन से संबद्ध फ़्रेंच कवयित्री जॉयस मन्सूर को हिंदी में पहली बार अनूदित और प्रस्तुत कर चुके हैं : मैं चाहती हूँ, मेरे उरोज तुम्हें उत्तेजित कर दें

इस प्रस्तुति की फ़ीचर्ड इमेज़ प्रवीण यायावर के सौजन्य से।

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