दूधनाथ सिंह के कुछ उद्धरण ::

doodhnath singh hindi writer
दूधनाथ सिंह

अकेलेपन, दुःख और एकांत को जो दार्शनिक जामा पहनाने की आदत है, वह तभी सुंदर और महान लगती है, जब ख़त्म हो जाने का डर न हो।

जो भी विचार ख़ुद के विरुद्ध जाता है, वह ख़ुद को चाटना शुरू कर देता है।

प्रेम या दाम्पत्य ‘स्वर्गीय विधान’ की तरह नहीं होते। उसे खोजना और पाना पड़ता है। और अक्सर जब आप समझते हैं कि आपने उसे पूरी तरह पा लिया है, तभी आप उसे खो रहे होते हैं।

‘फ़ैशन’ और ‘फ़न’ के कोलाहल में आ जाना अर्जित और अभ्यासीकृत प्रतिभा के लोगों का चलन है।

प्रेम क्षणों में ही नवजात, सुंदर और अप्रतिम रहता है। फिर भी उस प्रेम को पाने के लिए ‘होल-टाइमर’ होना पड़ता है।

जो ख़ूब सोच-समझकर समृद्धि के घर में सेंध लगाते हैं और पाँव के बल घुसकर फिर ‘आदर्श की आहाहा’ करते रहते हैं। वे क़तई नहीं जान सकते कि आत्मा में भिनकती हुई मक्खियाँ किस क़दर परेशान करती हैं! वे भी नहीं समझेंगे जो चिरकुट प्रजाति में पैदा हुए हैं और दुनिया का हर दुख भ्रष्टाचार से हल कर लेते हैं। पूरे पुराण के सामने जब एक आदमी नंगा होकर चीख़ता है कि मैं ‘सच’ की तरफ़ हूँ, मुझे बचाओ, तो वह आवाज़ अक्सर ख़ाली जाती है। कभी-कभी यह भी होता है कि तपस्या की कोटियाँ उसे उबार लेती हैं।

क्रूरताएँ और उजड्डताएँ किसी भी जन-समाज को बचा नहीं सकते।

ऐसा साफ़-सुथरा, पवित्र आदमी, जो अपने व्यक्तित्व की हर शिकन, हर वक़्त झाड़ता-पोंछता रहता हो—वह प्रेम कैसे कर सकता है? क्योंकि प्रेम में तो लिथड़ने की गुंजाइश है। प्रेम में मैला-कुचैला होना पड़ता है। प्रेम में अपने व्यक्तित्व को झुकाना और छोटा करना पड़ता है। अपने को ‘नहीं’ करना पड़ता है, भूलना पड़ता है—इज़्ज़त-आबरू, घर-द्वार, कविता-कला, खान-पान, जीवन-मरण, ध्येय, उच्चताएँ-महानताएँ—सब धूल में मिल जाती हैं… तब मिलता है प्रेम।

जो लेखक समय के समग्र शिल्प में जीवित नहीं रहता उसकी विकलांगता निश्चित है। इसके बाद भी वह जनता के स्मरण में रहेगा—रह पाएगा या नहीं, यह अनिश्चित है। हो सकता है, उससे ग़लतियाँ हो जाएँ। जिसे वह अतीत का समृद्ध वर्चस्व समझता है, वह वास्तव में रूढ़ियाँ हों, जिसे वर्तमान की नब्ज़, वह केवल सूचनाएँ और जिसे भविष्यत् के निर्णय, वे केवल अनुगूँजें जो इतिहास से असिद्ध हो जाएँगी।

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दूधनाथ सिंह (17 अक्टूबर 1936-12 जनवरी 2018) हिंदी के अप्रतिम साहित्यकार हैं। यहाँ प्रस्तुत उद्धरण उनकी कथेतर गद्य की बहुचर्चित कृति ‘लौट आ ओ धार’ (राधाकृष्ण प्रकाशन, प्रथम संस्करण : 1995) से हैं। इस प्रस्तुति की फ़ीचर्ड इमेज वीनस केसरी के सौजन्य से।

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