कविता ::
कृष्ण कल्पित

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ इस दशक के अंत तक सौ बरस पुराना हो जाएगा। सर्वप्रथम यह इतिहास 1929 ईस्वी में ‘हिंदी शब्द-सागर’ की भूमिका के रूप में प्रकाशित हुआ जिसे कालांतर में एक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया। इतने मतांतर, विरोध, वाद-विवाद और विवादास्पद होने के बाद भी आचार्य शुक्ल की यह पुस्तक हिंदी साहित्य के इतिहास की सर्वमान्य पुस्तक है। आचार्य शुक्ल के इस इतिहास पर इतने वाद-विवाद-संवाद के बावजूद किसी ने इस बारे में लक्षित नहीं किया कि इस इतिहास में हिंदी के आदिकवि सरहप्पा या सरहपाद का कोई उल्लेख नहीं है। आचार्य शुक्ल आदिकाल तक जाते हैं और अपभ्रंश और भाखा कवियों का उल्लेख करते हैं, लेकिन सरहपाद यहाँ नदारद हैं। यह सही है कि सरहपाद के ‘दोहाकोश’ की खोज और संपादन महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने बाद में किया। सरहपाद अपभ्रंश या भाखा के पहले कवि नहीं थे, लेकिन पहले सर्वमान्य कवि थे। आचार्य शुक्ल ख़ुद लिखते हैं : बाणभट्ट ने ‘हर्षचरित’ में संस्कृत कवियों के साथ भाषाकवियों का भी उल्लेख किया है। इस प्रकार अपभ्रंश या भाखा या प्राकृताभास हिंदी में रचना होने का पता हमें विक्रम की सातवीं शताब्दी में मिलता है। यह आश्चर्य की बात है कि यहाँ तक पहुँचकर भी आचार्य शुक्ल सरहपाद तक नहीं पहुँच सके। बहरहाल, यह एक अलग बहस है। प्रस्तुत कविता सरहपाद को पुनर्प्राप्त करने की एक कोशिश भर है। यह हमारी भाषा के आदिकवि की स्मृति है। यह कविता हमारी भाषा के आदिकवि को इक्कीसवीं शताब्दी के एक कवि की श्रद्धांजलि है।

— कृष्ण कल्पित

|| सिरहाने सरहपाद : अथ आदिकवि आख्यान ||

एक

कोई नियंता नहीं है
कोई ख़ुदा नहीं

आलय एक हिलता-डुलता दरख़्त है
जिस पर यह दुनिया स्वच्छंद झूल रही है!

आलअ तरु उमलइ हिंडइ जग च्छाच्छन्द! ||१३५|| दोहाकोश

दो

राहुलभद्र नालंदा-बौद्ध-विहार का सर्वाधिक तेजस्वी आचार्य था महापंडित
वज्रयान का प्रथम सिद्ध
अपभ्रंश और भाखा का प्रथम कवि

कुलीन-ब्राह्मण राहुलभद्र नालंदा में एक शर-कार की शूद्र कन्या पर आसक्त हो गया जबकि बौद्ध-विहारों में मदिरा-पान और किसी भी तरह की आसक्ति निषिद्ध थी लेकिन विद्रोही राहुलभद्र के लिए कुछ भी निषिद्ध नहीं था

राहुलभद्र नालंदा-बौद्ध-विहार छोड़कर अपनी प्रेयसी महामुद्रा के साथ रहने लगा और ख़ुद भी सरकंडे के बाण बनाने लगा

अब राहुलभद्र शर बनाने वाले सरहपाद थे!

तीन

सरहपाद संस्कृत के सर्वमान्य उद्भट विद्वान थे

पाणिनि-व्याकरण के प्रामाणिक आचार्य

चाहते तो सरह देवभाषा में लिखकर ख़ुद को एक देव की तरह प्रतिष्ठित कर सकते थे उनके कतिपय संस्कृत के श्लोकों को पढ़कर राहुल सांकृत्यायन कहते हैं कि यदि सरहपाद संस्कृत में लिखते तो अश्वघोष कालिदास भास भवभूति की पंक्ति के होते

लेकिन चिर-विद्रोही सरहपाद ने अपनी काव्याभिव्यक्ति के लिए देवभाषा पर लोकभाषा को तरजीह दी उन्होंने काव्यरचना अपभ्रंश में की जिसे भाखा भी कहा जाता है

शे’र उसके थे सब ख़्वास पसंद
गुफ़्तगू पर उसे अवाम से थी!

चार

रमण करो
अलिप्त होकर

पानी को छूए बिना
प्यास बुझाओ!

विसय रमन्त ण विसअहिं लिप्पइ।
ऊअअ हरन्त ण पाणी च्छुप्पइ ||३४||

पाँच

गुरु की वाणी अमृत है
छक कर पिओ

शास्त्र मरुस्थल हैं
जिसका कोई निस्तार नहीं
जहाँ प्यास से मरना ही नियति है!

गुरु-वअण-अमिअ-रस, धवडि ण पिबिअउ जेहिं।
बहुसात्तात्थ-मरुत्थलेहिं, तिसिअ मरिब्बो तेहिं ||४४||

छह

ब्राह्मणों और बौद्धों के पाखंड की धज्जियाँ उड़ाने और एक शूद्र-कन्या के साथ रहने से सरहपाद के दुश्मनों की संख्या बढ़ती रही

साथ ही सरह के चाहने वालों की भी

लेकिन इस सबसे बेपरवाह सरहपाद अपने शिष्यों के साथ नहीं अपनी प्रेयसी महामुद्रा के साथ अकेले विचरते थे

नालंदा से श्रीपर्वत तक
समूचे उत्तर भारत में

सरहपाद और महामुद्रा का प्रेम संस्कृत नहीं अपभ्रंश था
जिससे किसी इत्र की नहीं
मिट्टी की सौंधी महक आती थी

एक बाण था निशाने पर लगा हुआ

हर यात्रा में महामुद्रा के पास
मदिरा का घड़ा और सत्तू की पोटली साथ रहती थी

यह आठवीं शताब्दी की बात है!

सात

जीवन में दुःख बहुत हैं

किंतु सुख-सार भी यहीं है!

जग उपपाअण दुक्ख बहु, उप्पणउ तहिं सुह-सार ||१०३||

कृष्ण कल्पित हिंदी के सुपरिचित कवि-लेखक हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : डूब मरो

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *