कविताएँ ::
अमन त्रिपाठी

अमन त्रिपाठी │ क्लिक : सुघोष मिश्र

अपूरणीय

रेलगाड़ियों की घोषणा में
जितनी बार भी तुम्हारे शहर का नाम आता है
मैं सोचता हूँ, क्या ऐसा नहीं हो सकता
कि हर रेलगाड़ी तुम्हारे ही शहर को जाए
और मैं कहीं भी जाऊँ
तुम्हारे शहर ही पहुँचूँ

लेकिन इस तरह तो उस पर अचानक
एक बहुत अविश्वस्त भीड़ भी टूट पड़ेगी
मैं उस शहर से बहुत प्यार करता हूँ
और जानता हूँ कि उस शहर की भी
तुम्हारी तरह अपनी ढेर सारी दिक़्क़तें हैं
यह मैं कभी नहीं चाहूँगा
कि मेरी एक रूमानी-सी इच्छा की वजह से
तुम दोनों की परेशानियाँ और बढ़ जाएँ

लेकिन ज़रा सोचो तो
तुम्हारे शहर से मेरे शहर को भी
कई रेलगाड़ियाँ चलती हैं
और मैं समझता हूँ कि ऐसी उन्मादी इच्छा
तुम नहीं करोगी कि इस समय की सारी रेलगाड़ियाँ
मेरे ही शहर को आने लगें
अगर तुम उनमें से किसी एक में भी बैठकर
आ सको मेरे शहर
तो कितनी ख़ुशी फैल जाएगी चारों ओर
कितनी शांति कितनी तरलता कितनी स्निग्धता

देखो न! अगर तुम आ जाओ
एक बार को भी मेरे शहर…

कितनी समृद्धि!

शुभ्रा

मैं तुम्हें एक एकदम नए नाम से पुकारना चाहता हूँ

प्रेम में जलते हुए बुख़ार में जलने वाले क़िस्सों से बहुत ईर्ष्या रखता आया हूँ
ना ही प्रेम में सोते में चौंक कर उठ पाया कि कुछ अशोच्य सोच लिया हो

हाँ, रक़ीबों के नाम सुनकर मन बैठ जाता था क्योंकि तुम बहुत उत्साहित रहती हो हरदम
तुम्हारे दुःख में भी असंभव दुःख
हँसी में कैसी आदिम हँसी
चिंता में कैसी नमकीन चिंता
सबसे कोमल त्वचा खुरचते हुए कष्ट
प्रेम में कैसा तो गाढ़ा प्रेम

प्रेम में ईर्ष्या महसूस हुई तो लगा कि गदहजनम छूट गया

सड़कों पर भटका, रोया तो ज़िम्मेदार लगने लगा

अब तुम्हें देखता हूँ तो सोचता हूँ कि तुम सोती कैसे हो
कैसे चलती हो
दौड़ती कैसे हो
बोलती हो तो क्या
कैसे बोलती हो
मैं इतना शुष्क हो जाता हूँ कि बारिश में भी नहीं भीग पाता
वर्षा की हर बूँद मानो नाभिक के इधर-उधर छितरा जाती है

क्या तुम भी
इतनी ही शुष्क हो जाती हो कि बाहर से अपनी शुष्कता देखती हो?
और तुम्हारी सीली आवाज़ तुम्हारी शुष्कता पर परत बन जाती है?

कैसी असंभाव्यिता!

लेकिन वह वर्षा अचानक से तुम पर गिरने लगी और मैं भीगने लगा तो लगा कि कहीं वह नाभिक तुम तो नहीं!
फिर मैं क्या हूँ?

इलेक्ट्रॉन?

मेरे समय की ढेर सारी मेधा अमूर्तन को न मानने और न मानने देने की ज़िद में ख़र्च होती है
जबकि मेरे पास भी अमूर्तन के लिए कोई आधार नहीं

मेरे पास तो अभी
तुम्हारे लिए एक नया नाम है

और मैं देख रहा हूँ कि फिर से
फिसल गया है कोई नाभिक
किसी अमूर्तन में

बरसने को कितना बरसा पर भीगा क्या
कुछ नहीं!

दुर्भेद्य

यह मौसम चींटियों के निकलने और मरने के लिए सबसे मुफ़ीद है
मैं हर रोज़ लगभग दस की दर से चींटियों की हत्या कर रहा हूँ
जबकि मेरे अगल-बग़ल से चींटियों की इतनी क़तारें फिर निकलती हैं
मानो उन अकस्मात दुर्घटनाओं से उनकी तल्लीनता पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता
कहीं से भी फूट पड़ती चींटियों की पंक्ति एक दुर्भेद्य व्यूह रच रही है मेरी देह के चारों ओर
घटनाओं और उनके प्रभावों की तरह जिन्हें झाड़ा भी नहीं जा सकता चींटियों की तरह

घटनाओं और शहरों से चींटियों की तरह निकल जाना चाहता हूँ
इस तरह चला जाऊँगा जैसे कुछ घटा ही न हो
सोचता हुआ कि जो घटा
उसका क्या प्रभाव पड़ा मुझ पर

फिर क्या होगा…
घिरता चला जाऊँगा घटनाओं और उनके प्रभावों के
असंभव व्यूह में
द्वार खोजता!

मध्यवर्ग

अगर कभी कुछ कहना चाहूँ मेरे मुँह पर थूक दीजिए
जहाँ लिखा हो नहीं मूतना वहीं खड़े हो मूत दीजिए
लोकतंत्र की बँसवाड़ी की गढ़िए भुतही दंतकथाएँ
अधिकारों की बात चले तो पुलिस बुलाकर सूत दीजिए

और आप, आप इसको इस तरह से सुनिए न कि आप कुछ नहीं जानते हैं और बिल्कुल मासूम हैं और सुनते हुए याद कीजिए कि आपके ड्रॉइंग रूम में दो सोफ़े हैं और डाइनिंग टेबल पर लेग पीस के साथ मल्टीनेशनल कंपनी में बेटे के प्लेसमेंट के बारे में बातचीत आज रात ही होनी है। आप इसको इस तरह से भी सुनिए न कि आस्था चैनल पर फलाँ शांतिदूत की मीठी-मीठी झिड़की जिस हीहीहीही के साथ सुनते हैं और धर्मसंस्थापनार्थाय वाली भंगिमा में बैठ शांतिदूत की निहायत स्त्रीविरोधी बात पर चार स्त्रीगुप्तांगकेंद्रित गालियाँ समूची स्त्री जाति की ओर उछालते हैं।

आशंकाएँ

कक्षाओं में इसलिए नहीं गया
कि मशीन बन जाने से डरता था
नियम नहीं माने और
मनमानी करता रहा

कमरे में बहुत कम रहा
सड़कों पर बहुत धूल थी
और हवा में बहुत धुआँ
लेकिन कमरे में घुटन-सी होती
दिन में आस-पास ही रहता
और रातों को बहुत दूर निकल जाता
जैसे दिन में कोई ख़तरा हो
और रातों में बहुत मासूमियत

दिन भर आशंकाओं से घिरा रहता

बहुत सारी बधाइयाँ मैंने
चाहते हुए भी नहीं दीं
और शोक बहुत कम प्रकट किया
इस डर से कि कहीं
यह सब कुछ औपचारिकता न समझ लिया जाए।

सोचता था

ऐसा सोचता था,
कभी मियाँ नज़ीर या मीर तक़ी मीर की तरह
अनुपम मिश्र की तरह कोई बात कहके
जिसको जब चाहूँगा बुला लूँगा

सोचता था कि विशेष कठिनाइयाँ उठा लेने से
विशिष्टता आसानी से मिल जाती है

राजनीतिक मैं उतना ही होना चाहता था
जितना कम इस देश में लोकतंत्र है

पर पिछले समयों में चीज़ें बहुत तेज़ी से बदली हैं

शहर में पिछली शताब्दी की सबसे कड़ी ठंड पड़ रही है
और वर्तमान सरकार के ख़िलाफ़ सबसे कड़े प्रदर्शन हो रहे हैं—
और मैं तेज़ी से होने वाले बदलावों का प्रतिपक्ष बनने की कोशिश के बीच
दूर बैठकर ठंड से मरने वालों के आँकड़े नज़रअंदाज़ कर रहा हूँ
और विरोध-प्रदर्शनों में लोगों की कम होती संख्या गिन रहा हूँ

शहर से दूर, प्रेमिका की गली में तो कोई बदलाव नहीं
लेकिन मुझे, उसकी गली
और अपने घर जाती सड़क के पथरीलेपन में
अंतर लगना बंद हो गया है
बल्कि उसकी गलियाँ मुझे बाक़ी सब गलियों की तरह लगने लगी हैं
प्रेम का इतिहासबोध हालाँकि मुझे हिक़ारत से देखता है
क्योंकि मैं इसकी विपरीत बात
मानने को तैयार नहीं

प्रेमिका में कोई ख़ास बात नहीं
वही नाज़-ओ-अंदाज़, वही नुक़्ताचीं है ग़म-ए-दिल
जिसको सुनाए न बने
वही ऐतिहासिक क्लासिक ऊहापोह

लेकिन फिर वही ट्रैजेडी कि वह मुझे लगने लगती है
बाक़ी लड़कियों की तरह
पर यहाँ भी इसकी उल्टी बात लागू नहीं होती

ऐसे परिवर्तनों के बीच मैं हर तफ़्सील
की स्मृति दर्ज कर लेना चाहता हूँ
पुरानेपन को हसरत से देखता हुआ
और परिवर्तन को किंचित सहम कर

हालाँकि तत्काल होने वाले परिवर्तनों से भी मुझे गुरेज़ नहीं
मसलन,
शहर में यमुना से गुज़रते हुए,
‘यमुना नहीं यह नाली है
नदी के नाम पे गाली है’
जैसा नारा ज़बान पर आना तत्काल बंद हो जाना चाहिए

एक शहर में होते विरोध-प्रदर्शन
तत्काल सारे शहरों में दिखने लगने चाहिए

मुझे तत्काल प्रेमिका के चौखट पर सर पटक कर जान दे देनी चाहिए

ऐसे परिवर्तन तत्काल हो जाने चाहिए
पर अफ़सोस,
तमाम दुनिया के हरामख़ोर अचानक से
चेतना और अध्यात्म के,
दर्शन के उच्च स्तर पर जीने लगे हैं
जिनके पास हर ऊँच-नीच का जवाब
उनकी उच्च से उच्चतर होती चेतना है

मेरी चेतना पर से प्रेमिका की स्थानीयता गुज़रती है

मैं बस उसकी मातृभाषा सीखना चाहता था
ताकि उसके दुखों को उसकी मातृभाषा में सुन सकूँ

लेकिन उसकी स्थानीयता के भार से दबकर
चूर होता हुआ मैं
उसकी मातृभाषा का एक मुहावरा बन जाता हूँ
एक बहुत राजनैतिक और भदेस मुहावरा,
जिससे कोई काम नहीं लिया जा सकता
कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता।

वर्तमान

पिछले की रस्सी पर टँगे अगले के वस्त्र में से,
समय की गर्मी से सूखती नमी है वर्तमान

वर्तमान वह जगह नहीं जहाँ रहा जा सके—
यह कहने वाले व्यक्ति के चले जाने के बाद उसकी छूट गई जगह में
सूख चुका वस्त्र पहनकर खड़ा हुआ मैं
उसके आने का इंतज़ार कर रहा हूँ जिसका वर्तमान उसे
शहर की उस सबसे सुंदर जगह पर ले गया होगा जहाँ वर्तमान सबसे सुंदर है

इस समय जाने मुझमें प्रेम की ऊर्जा है
या किसी महान प्रेरणा की
पर निश्चय ही यह वर्तमान है
और वर्तमान वह जगह नहीं जहाँ रहा जाए—
ऐसा कहने वाले व्यक्ति की ख़ाली जगह पर खड़ा हुआ मैं कमबख़्त।

ओ माँ

सरयू के किनारे अनवरत प्रार्थना में लीन माँ,
यमुना का पानी मैं पीता हूँ
और जिस मकान में मैं रहता हूँ,
नहीं कह सकता,
शायद यमुना को पाट कर बनाया था सरकार ने
वह नदी अब कहाँ बहती है
मालूम नहीं

चिंतित हो माँ,
अदृश्य नदी का पानी पीता हूँ
अदृश्य प्रेमिका को प्रेम करता हूँ
अदृश्य बीमारी से डरती हो माँ

दूर देश में सिंधु के किनारे
दूर देश में यांग्त्ज़े के किनारे
दूर देश में अमेज़न के किनारे
या तुम्हारे देश में यमुना के किनारे माँ
असंख्य हत्याएँ होती हैं
नदियाँ ग़ायब हो जाती हैं
और उन पर मकान बन जाते हैं
असंख्य लोगों को नहीं मिलता भोजन
नहीं मिलता प्रेम
ओ प्रार्थना में लीन माँ
अपनी सरयू से पूछना
क्या उसे प्रार्थना और विष्ठा के अतिरिक्त
कभी प्रेम मिला?
मैं यमुना से पूछता पर वह कहीं दिखाई नहीं देती

नदियों के किनारे के कवि को कोई सुनता नहीं
सुनता, तो पास की नहीं पर दूर की तो सुन लेता
यांग्त्ज़े के किनारे सुन लेता
क्या कह रहा है सिंधु का कवि—
‘‘उन दुखी माँओं के नाम
रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और
नींद की मार खाए हुए बाज़ुओं में सँभलते नहीं
दुख बताते नहीं’’
या फिर अमेज़न के जंगलों के किनारे सुन लेता
हिमालय में भटकते और पेड़ों से चिपक जाते
फ़क़ीर का करुणा में डूबा एक वाक्य

हम प्रार्थना की अंतर्धारा से जुड़े हैं माँ
सरयू के किनारे की तुम्हारी प्रार्थना
सुनता हूँ मैं दुस्सह नींद में
उसी नींद में ‘माँ-माँ’ कह कर मेरा बिलखना
सुनना तुम और सरयू

धीरे-धीरे बहुत कुछ
अदृश्य हो रहा है
और हम किसी-न-किसी नदी के किनारे के लोग
उन्हीं अदृश्य होती चीज़ों से खींच रहे हैं
अपना अंतस्सत्व

उठो माँ
अदृश्य होती सरयू के किनारे से
उठो अदृश्य होती नदियों के लोगो
अदृश्य होते जंगलों के लोगो
उसी चूसे गये अंतस्सत्व से
दृश्य में बने रहने की जद्दोजहद करने को,
दृश्य में आओ

सरल होने
न्यून होने
प्रार्थना करने
रोने—
का
सभ्यताओं से प्राप्त मंत्र लेकर

आओ!

अमन त्रिपाठी हिंदी की उल्लेखनीय काव्य-प्रतिभाओं में से एक हैं। यहाँ प्रस्तुत कविताओं में से कुछ कविताएँ ‘सदानीरा’ के 23वें अंक में पूर्व-प्रकाशित हैं। उनसे laughingaman.0@gmail.com पर बात की जा सकती है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : श्रीराम कंहार ने अब दीये बनाना बंद कर दिया है ‘कोई गीत था तो यहीं था’

1 Comment

  1. अमित एस. परिहार जून 12, 2020 at 3:20 अपराह्न

    गझिन मुकम्मल और जो कहना है उसे पूरी शिद्दत से अभिव्यक्त करती कविताएं!
    अमन को ख़ूबसारी शुभकामनाएं !

    Reply

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