कवितावार में अवधेश कुमार की कविता ::

AVADHESH kumar hindi poet
अवधेश कुमार

बाँस के तहख़ाने

रगड़ खाते हैं बाँस :
आपस में ही
क्या वे शत्रु हैं?
अपने ही।

या अपने भारी हो आए, कठोर
पैरों को, गहराई तक धँसी पीड़ा की
जकड़न से छुड़ाना चाहते हैं।

हवा,
किसी आग लगी फिरकन्नी की तरह
उनके बाज़ुओं और कानों के पास
सरसराती : जैसे
किसी आवाज़ को छीलती हो।

एक हल्ला-सा है, आपस में ही
लिपटते, रगड़ खाते जंगली बाँसों में।

वे कहीं भी हों, शहर के किसी कोने में
किसी चौराहे पर या रास्ते के
किनारे, कुछ छुपे हुए-से : आग
लगती है हमेशा, हर परिस्थिति में
जब वे झूमते हैं, और
एक दूसरे से लिपटते हैं।

संबंध छिलते हैं
आवाज़ होती है; क्या
संघर्ष यही है।

फिर आग बुझती भी है,
काली पड़ जाती है।

नए बाँस अपने पूर्वजों की गाँठों से
उगते हैं, बड़े होते हैं और
एक-दूसरे से कस कर लिपट जाते हैं।

आग का संस्कार एक है
और इतिहास भी नहीं बदलता।

हवा,
इन्हीं के पास आ कर
आवाज़ों को छीलती है।

पूरी तरह बाँस खोखले नहीं होते
उनके भीतर ख़ालीपन ज़रूर होता है,
वे अपने पोर-पोर शरीर को
आपस में जोड़ते
उनमें से पोर-पोर
उगाते, ऊपर बढ़ते हैं।

पोरों के भीतर के खोखलेपन का
शायद हवा को पता चल जाता है : वह
पहले बाँस को ठोक बजा कर देखती है
और तब उसके जिस्म को
छीलती हुई उसमें घुस जाना चाहती है।

हल्ला वहीं पर होता है
आवाज़ तभी आती है ׃ एक खोखलेपन
को बाँट कर दूसरा या तीसरा
ख़ालीपन बसाती है।

आवाज़ सरसराने की नहीं
झींकने की, फिर नफ़रत की
और फिर तब वही आग।

क्या बाँस यह सब जानते हैं?
और अपनी-अपनी गाँठ को खोलकर
अपने खोखलेपन को
उसी तरह उजागर कर देना चाहते हैं।

हवा छीलती है आवाज़ को
और किर्ची हुई हवा बाँस की गाँठ के नीचे
हर खोखले तहख़ाने में
आग लगा देती है।

इतिहास जलता है : पर समय
वह बाँस के तहख़ानों में
फिर से जा समाया है।

रगड़ खाते हैं बाँस, क्या इसीलिए
कि वे अपने खंड-खंड समय के
इन तहख़ानों को खोल कर देखें।

समय क्यों बार-बार और बराबर
उनके भीतर घुसता चला जाता है।

वह अपने को
इस तरह छुपाने की यह नाकाम कोशिश
क्यों करता है, जबकि वह
समूचा का समूचा बाहर छूट गया है।

हर जगह, हर वक़्त
समय को महसूस किया जाता है
बाहर हवा क्यों चीख़ती है?
बाँस क्यों जल जाते हैं?

वे शत्रु हैं किसके : ज़मीन के
हवा के, या कायर समय के
और तहख़ानों में दबे इतिहास के
या अपनी विवशता को
वे एक-दूसरे के कंधे दबा कर
सहज करना चाहते हैं : वे ठीक
करते हैं : आग लगती है तो
ठीक होता है : सब कुछ एक बार
जल जाता है।

लेकिन अफ़सोस, ये नए बाँस
वे फिर से वैसे के वैसे ही
रह जाते हैं।

इतिहास
अपने खोखले तहख़ाने
बना लेता है।

वक़्त
उनकी गाँठों का सिरा
पकड़ लेता है, और
हवा अपने दाँत चबाने लगती है।

रगड़ खाते हैं बाँस :
आपस में ही
क्या वे शत्रु हैं?
अपने ही।

अवधेश कुमार सबसे ख़राब सप्तक के सबसे बेहतर कवि हैं। कविता की नई दुनिया और पीढ़ी उनके बारे में कम जानती है। उनके बारे में सूचनाएँ और उनकी चीज़ें दृश्य में नहीं हैं। ‘जिप्सी लड़की’ नाम से आया उनका संग्रह अब अप्राप्य है। दरअसल, अवधेश कुमार सरीखे कवियों की भी हिंदी में एक परंपरा है या कहें इलाक़ा है। इस इलाक़े में घुसना हिंदी कविता के उस तहख़ाने में घुसने जैसा है, जहाँ कई बेहतरीन कवि घुटकर ख़त्म हो गए। इस प्रकार के कवियों में दिलचस्पी; सहमति, स्वीकृति और सर्वानुमति को संदेह से देखने के लिए बाध्य कर सकती है—इसलिए हिंदी-वृत्त इन्हें बाहर रखता है। ‘सदानीरा’ की यह इच्छा है कि वह समय-समय पर ऐसे बहिष्कृत और भुला दिए गए काव्य-जीवन को अपनी प्रियता के प्रांगण में खिलने दे। इस क्रम में यहाँ प्रस्तुत कविता ‘निषेध के बाद’ (संपादक : दिविक रमेश, विक्रांत प्रेस, दिल्ली, संस्करण : 1981) शीर्षक पुस्तक से ली गई है।

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