‘अताशी’ पर ::
गार्गी मिश्र

गार्गी मिश्र

बख़्शे है जल्वा-ए-गुल ज़ौक़-ए-तमाशा ‘ग़ालिब’
चश्म को चाहिए हर रंग में वा हो जाना

हमारे आस-पास और हमसे दूरस्थ संसार में ऐसी कहानियाँ साँस ले रही हैं जो यह कहना चाहती हैं कि उन्हें सुनने और समझने से हम सिर्फ़ उनके जीवन से ही परिचित नहीं होते, बल्कि हम स्वयं की भी खोज करते हैं। आख़िर हम कौन हैं? हमारे भय क्या हैं? आज़ादी के मायने हमारे लिए क्या हैं? हम अपने प्रति दूसरों के व्यवहार को आँकते हुए ख़ुद अपनी जटिलताओं को कितना और कैसे स्वीकार करते हैं? प्रेम हमारे लिए कितनी आवश्यक चीज़ है? कितना आवश्यक है आर्थिक रूप से एक स्वस्थ और सुखी परिवार का होना?

इन कहानियों को सुनने और ख़ुद की खोज करने का एक तार्किक, मनोवैज्ञानिक और कलात्मक तरीक़ा है—सिनेमा। इसकी और गहरी तहों में जाएँ तो ऐसा सिनेमा जो सिर्फ़ हमारा मनोरंजन न करता हो, बल्कि वह उस दर्पण की तरह हमारे सामने प्रस्तुत होता हो जो हमारी सच्चाइयों को बहुत ही तीक्ष्णता से हमारी आँखों में उतारता हो। ऐसी छवि जो भूले नहीं भूलती।

ऐसा ही एक दर्पण है—‘अताशी’ [अवधि : 52 मिनट 25 सेकेंड, भाषा : बांग्ला और अँग्रेज़ी, निर्देशक : पुतुल महमूद ((एक स्वतंत्र फ़िल्म निर्माता-निर्देशक हैं। वह फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया (FTII) की भूतपूर्व छात्रा रही हैं और वर्तमान में सत्यजित रे फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट (SRFTI) में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। उन्होंने कई शार्ट फ़िल्म्स का निर्माण और निर्देशन किया है, जिनमें ‘You Who Never Arrived’, ‘Man of Silence’, ‘I shoot You’, ‘Three Sisters’ जैसी विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालने वाली फ़िल्मों का निर्देशन और फ़ीचर फ़िल्म ‘कॉस्मिक सेक्स’ का निर्माण भी शामिल है।)) निर्माता : रत्नाबोली रे ((एक मेंटल हेल्थ एक्टिविस्ट हैं। वह ‘Anjali : A Mental Health Rights Organization’ की संस्थापक हैं। रत्नाबोली रे को Alison Des Forges Human Rights Defender Award से 2014 में सम्मानित किया जा चुका है।))]

वर्ष 2019 में निर्मित ‘अताशी’ की स्क्रीनिंग कई फ़िल्म फ़ेस्टिवल्स में हो चुकी है। वर्ष 2020 में मुंबई फ़िल्म फेस्टिवल में इसे (60 मिनट के अंदर बनी भारतीय फ़िल्मों में) बेस्ट डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म के ख़िताब से नवाज़ा जा चुका है। इंटरनेशनल डॉक्यूमेंट्री एंड शार्ट फ़िल्म फ़ेस्टिवल ऑफ़ केरला में भी इसकी स्क्रीनिंग हो चुकी है। इसके साथ ही अन्य फ़िल्म फ़ेस्टिवल्स में भी इसे दर्शकों तक पहुँचाया जा चुका है और यह प्रयास अब भी जारी है।

कोलकाता की स्मृतियाँ मेरे अंतस्तल में वर्षों से अवदात थीं, जब तक मैंने पुतुल महमूद द्वारा निर्देशित और रत्नाबोली रे द्वारा निर्मित डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म ‘अताशी’ नहीं देखी थी। इस फ़िल्म ने मुझे सामाजिक संस्थाओं और परिवार जैसी संस्था को एक नई दृष्टि से देखने और समझने का अवसर प्रदान किया। इसके साथ ही इस कृति ने मुझे इस बात के और निकट भी किया कि आमतौर पर हम जो किसी वस्तु, मनुष्य या किसी स्थान को उसके सौंदर्य, उसके इतिहास, उसकी संरचना, उसकी संस्कृति से समझने की कोशिश करते हैं; वह संवेदनात्मक और बौद्धिक रूप से पर्याप्त नहीं है। हमें आवश्यकता है अपनी समझ, अपनी चेष्टाओं को अल्पविराम देने की। हमें आश्यकता है सुनने की।

इस डॉक्यूमेंट्री को देखने की ज़रूरत और इसके साथ तय की गई अपनी यात्रा के बारे में आप से बात करते हुए मुझे बीसवीं सदी के फ़्रांस के प्रमुख विचारक और दार्शनिक मिशेल फूको की ‘पागलपन’ के संदर्भ में कही गई एक बात याद आती है जिसमें वे कहते हैं, ‘‘मैंने मनोरोग की भाषा के इतिहास को लिखने की कोशिश नहीं की है, बल्कि उसके पुरातत्त्व को समझने की कोशिश की है जो कि एक मौन है।’’

अताशी—यह नाम सुनते ही एक विचित्र-सी ध्वनि मन में गूँजती है। मैंने यह नाम पहले कभी नहीं सुना था। पुतुल ने जब यह फ़िल्म साझा की तब मुझे मालूम हुआ कि यह एक बंगाली नाम है। बांग्ला में इसे ओतोशी कह कर पुकारेंगे। इस कहानी को प्रस्तुत करने वाली पुतुल इसे अताशी कहती हैं तो मेरे लिए अताशी एक ऐसे किरदार की तरह सामने आती है जिसके बंगाल से होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, बल्कि अताशी मुझे अब कहीं न कहीं अपने आस-पास अपने शहर की एक लड़की लगती है, जिसकी कथा अब हम सबकी कथा है, जिसका समाज हम सबका समाज है।

‘अताशी’ की निर्देशक पुतुल बताती हैं कि अताशी कैमरे की तरफ़ देखते हुए काफ़ी सहज थी। वह अपनी कहानी ऐसे कह रही थी कि जैसे उसने उस पूरी यात्रा को स्वयं एक दर्शक की तरह से देखा है।

अताशी कोलकाता के एक मुहल्ले में रहने वाली क़रीब बाईस एक वर्ष की बंगाली लड़की है जिसके पिता का निधन हो चुका है। पिता के बाद समस्त संसार में अपनों के नाम पर उसके अपनों में उसकी माँ और उसका बड़ा भाई है।

अताशी अपने घर की ओर जाने वाली सँकरी गलियों में चलते हुई कहती है, ‘‘वे इसी गली में से मुझे एक जानवर की तरह घसीटकर पागलख़ाने की गाड़ी की तरफ़ ले जा रहे थे। मैं नहीं जानती थी कि मेरा क्या क़सूर था। मैं पूरे समय शिव से प्रार्थना कर रही थी…’’

ऐसा कहते हुए उसके निचले होंठों और आँख के नीचे पसीने की बूँदें उभर आती हैं। भय और विवशता का ऐसा रूप जिसने हर रूप तज कर पानी का रूप ले लिया हो। पानी जो मनुष्य के शरीर से छूट रहा हो। यहाँ से शुरू होता है अताशी का वह जीवन जिसकी कल्पना उसने अपने सबसे बुरे स्वप्न में भी नहीं की थी। अताशी को उसके मुहल्ले से पुलिस और रिश्तेदारों ने मारते और घसीटते हुए पागलख़ाने को जाने वाली गाड़ी में भर दिया। उसे कोलकाता के पावलोव अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहाँ डॉक्टरों ने यह पाया कि वह मानसिक रोग से जूझ रही है। डॉक्टरों ने उसे विश्वास दिलाया कि वे उसकी इस समस्या से बाहर आने में सहायता करेंगे।

अताशी कहती है कि उस जगह का दृश्य विचलित करने वाला था। औरतें अर्द्धनग्न और पूरी नग्न दिखाई दे रही थीं। फ़र्श पर पेशाब और मल। मैंने वहाँ पर मौजूद दो महिला कर्मचारियों से पूछा कि एटा आमी कोथाए? मैं कहाँ हूँ? और उनका उत्तर आया कि तुई जानिश ना? Don’t you know? Here people come to die… इन दृश्यों को याद करते हुए उसे अपने साथ अस्पताल में रही अन्य स्त्रियों की भी याद आती है। उसे मौशुमी नाम की एक स्त्री याद आती है जिसका मानना था कि एक रोज़ उसका पति आएगा और उसे वहाँ से ले जाएगा।

अपने पूर्व के अनुभवों को साझा करते हुए अताशी अपनी माँ और अपने भाई से संताप के स्वर में कहती है कि उसे दो रोटी की ही तो ज़रूरत थी और उन्होंने उसके साथ जानवरों का-सा व्यवहार किया। कैमरे के सामने अताशी की माँ और उसके भाई के चेहरों का मौन नज़र आता है जिसमें बहुत सारी परतें हैं। वे परतें सामाजिक दबाव, आर्थिक विपन्नता, कमज़ोर मनोबल और कई संवेदनाओं से बनी हैं। ऐसे में यह समझ पाना मुश्किल होता है कि मानसिक रोग से लड़ने के लिए हमारे समाज में रोगियों के प्रति वैज्ञानिक सोच किस हद तक काम करती है या फिर काम करती है भी या नहीं।

अताशी बताती है कि जब वह अस्पताल से बाहर आई तो वह संसार को एक नई दृष्टि से देख रही थी। उसने अपने जीवन में महसूस किए गए प्रेम के अभाव को समझा। वह कहती है कि वह सिर्फ़ प्रेम के मानसिक पक्ष को जानती थी और उसने कभी भी उसके दैहिक पक्ष को महसूस नहीं किया था। बात-बात में वह कहती है कि उसकी पसंदीदा फ़िल्म ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’ है। उसके इस कहने में प्रेम का वह अभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है जो उसने अपने परिवार में महसूस किया। साथ ही यह उसके स्वप्नशील होने को दर्शाता है। कुछ ही समय में अताशी की दोस्ती फ़ेसबुक से पंजाब में रहने वाले एक लड़के से हुई। कुछ समय बाद यह दोस्ती प्रेम में तब्दील हुई और फिर उन्होंने विवाह करने का मन बनाया। अताशी एक बिल्कुल नए संसार में प्रवेश कर चुकी थी; जहाँ प्रेम था, आदर था और विश्वास था।

यहाँ एक दृश्य है जहाँ अताशी अपने पति दीप के साथ हावड़ा ब्रिज के नीचे नाव पर एक उन्मुक्त प्रेमिका-सी दिखती है और कहती है कि यह भी एक संसार है। सुंदर संसार। इसमें वह अपने पिछले दुःख भूलती तो नहीं, लेकिन उन दुखों को स्वीकारते हुए उस रौशनी को अपने भीतर आने देती है जिसका नाम उम्मीद है। अताशी धीरे-धीरे रुक-रुककर अपने पति से पंजाबी में बात करती है। वह एक ऐसे संसार को पूरा जीना चाहती है, जहाँ उसके लिए सम्मान और अपनापन है।

एक नए जीवन की शुरुआत करने के साथ-साथ अताशी अपने रिश्तों के मनोविज्ञान को भी समझने की कोशिश करती है। अताशी शादी के बाद अपने घर आई है और कुछ समय व्यतीत करने के बाद वह अपने पति के साथ पंजाब वापस जाने की तैयारी कर रही है। वह अपनी माँ और भाई जो उसकी मनोदशा से अपरिचित रहे उनसे स्नेह महसूस करती है। उसे फ़िक्र होती है कि उसके बेरोज़गार भाई और बूढी माँ का जीवन कैसे व्यतीत होगा। वहीं उसकी माँ और भाई भी उसे विदा करते हुए उदास होते हैं।

अताशी की माँ उससे बार-बार वचन माँगती है कि वह फिर आएगी। अताशी कहीं न कहीं इस बात को जानती है कि उसकी माँ और भाई आज भी उससे सिर्फ़ भावनात्मक स्तर पर नहीं जुड़े। वे निरीह हैं और आर्थिक रूप से भी अताशी पर निर्भर हैं। यह सब जानते हुए अताशी जैसे रेगिस्तान के एक फूल की तरह अपने जीवन में खिली दिखती है। उसने पागलपन के इस दौर में ख़ुद को अपने ही अंतस के प्रेम से सींचा है। निर्देशक ने निश्चित रूप से इस फ़िल्म की आत्मा को आत्मसात करते हुए उसे यह नाम दिया है—अताशी : लव इन द टाइम ऑफ़ मैडनेस

बतौर दर्शक मेरी नज़र में यह फ़िल्म मानवीय संवेदनाओं को सूक्ष्मता में देखने और उससे किसी भी तय निष्कर्ष पर न पहुँचने का प्रयास है। यह मानवीय विरोधाभासों की कहानी है। यह कृति एक अवसर प्रदान करती है कि हम सामाजिक संस्थानों को और उससे जुड़े मनुष्यों को एक ही तरह से परिभाषित न कर सकने का गुण धारण करें। हम इस बात को समझ सकें कि हर संवेदना अपने श्वेत और श्याम दोनों ही गुणों में फलती-फूलती है। ग़ालिब के शब्दों में अताशी की कहानी को समझें तो वह यही है :

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना

‘अताशी’ को देखने के लिए इस लिंक : https://vimeo.com/300333958 और पासवर्ड : Putul4moons का प्रयोग किया जा सकता है। गार्गी मिश्र से परिचय के लिए यहाँ देखें : मैंने पहला शब्द कहा—पार्वती

1 Comment

  1. डॉ महेश शुक्ला जून 12, 2020 at 8:45 पूर्वाह्न

    गार्गी तुम्हें पढ़ने के बाद ऐसा लगा जैसे तुम्हारे अंदर जीवन को बहुत करीब से टटोलने का जज्बा है। बहुत कम लोग हैं जो इतनी गहराई तक जाकर सहज रूप से व्यक्त करने मे समर्थ होते हैं।
    बहुत अच्छा प्रयास बधाई

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