कविताएँ और तस्वीरें ::
सोमप्रभ

सोमप्रभ

बरखा में भिलोर गिरता है

सगर दिन डोलते रहते
छोटी-सी डील, तींणी जैसी देह लिए
जब साँझ ढलती और बिजली के तारों में
दूर-दूर तक करंट नहीं होता
जब चली जाती लौकलवा भी
छह किलोमीटर दूर से गन्ना मिल का साइरन बजता
तब सड़क पर लाठी पटकते लौटते जगदंबा

मैं लोटे में पानी और अचार रखकर
दुआरे पर इंतज़ार करता रहता
यहीं तो दो बात बोलते थे
यहीं तो दो घड़ी सुस्ताते थे
कितना भी करो खाने का आग्रह
हाथ जोड़ते जगदंबा
बस टपके हुए भिलोर लेते
सारी बरसात बनाते उसी का भर्ता
जो फल सबके लिए ज़हरीला था
दो इस जेब में दो उस जेब में रखते

एक ऐसी ही साँझ किसी की टोकरी और खंइची बीनकर
लौटते हुए गन्ना मिल की ट्रक से मारे गए
छितर गया था पिसान
बिखर गई थी बकरियों की दवाई
और भिलोर का भर्ता
कोस भर रह गया था गाँव

फिर भिलोर किसी ने नहीं चखा
कोई नहीं जानता है उसका स्वाद
भिलोर सबके लिए ज़हरीला फल है
सारी बरखा टपकता और सड़ता है।

फिर कितनी भी हो वर्षा

माँ सदा ही कहती है—
हमेशा के लिए नहीं होता है कुछ भी
यह सुनकर ही दिल बैठता है
अजीब कल्पनाएँ आती हैं
भीतर डर व्याप जाता है

जीवन में कुछ खो देने से बुरा
कुछ भी नहीं होता है इस संसार में
यह जानते हुए
हर ऋतु का सामना करना होता है

जिस ऋतु में खोता है कुछ
ऋतु भी चली जाती है सदा
के लिए, फिर कितनी भी हो वर्षा
धाराधार गिरे पानी, कुमुदनियों और
बगुलों से भर जाए पोखर
कुछ भी रास नहीं आता।

कथानक

शाम वे काटते हैं चक्कर
या उड़ते अदृश्य ज्यामितियों पर
या रचते ज्यामितियाँ

ज्यामितियों के खेल में तैरता है समस्त
पुलों के भीतर काँपती हैं जगहें, वृक्ष, इमारतें आदि
ज्यामितियों के फैलाव पर बीतता है जीवन
और बिजलियों के हजार वोल्ट पर नष्ट होती है देह
चिपके रहेंगे पंख शेष, मृत पतंगों की तरह झूलते हुए
हवा, पानी, ऋतुओँ से नहीं; समय में गलेंगे

नींद के वक़्त
झुलसते हुए चमगादड़ दिखते हैं
तितलियाँ, शलभ—कीट मृत्यु की रेखाओं पर
जिनके काँपते हैं पर
हवा से हिलता है
झील का जल
लिसलिसा, गंध छोड़ता हुआ तैरता है द्रव
और सतह पर अजीब आकृतियाँ बनाता है

रात पसारती है हाथ-पाँव
पदार्थ बनते-नष्ट होते हैं
बहुत अनिश्चितता है इन रातों में
दिन की दुश्वारियों से भागता हूँ
और रात में शरण लेता हूँ
घटनाएँ अस्पष्ट रहती हैं
ज्यामितियों के अदृश्य से उपजता है कथानक
और उलझी हुई भाषा।

सुबह कुँइया देखने जाना

मैं सोचता हूँ कि जिसने घास तक न लगाया जीवन में
वह भी पूरी सृष्टि खोंटकर देवताओं को क्यों अर्पित करना चाहता है
किसी को नहीं परवाह कि जंगल ख़त्म हो गए
जुगनुओं के पेड़ ख़त्म
सियार और लोमड़ियों का रास्ता ख़त्म हो गया
कछुए, जोंक, घोंघे, रामघोड़ी सब सपना भए
आम की लकड़ी पर घी डालने से नहीं लौंटेगे जीव

मैं देवता नहीं भजता हूँ कभी
यही सब याद करता रहता हूँ
तो भाँज आता हूँ साइकिल ही
कहीं तो दिख जाए उनके लौटने के चिह्न
जब सात किलोमीटर बीत जाता है
तब दिखाई देता हैं कुँइया से भरा पोखर
पास नहीं है एक भी
किसी धर्म-ग्रंथ में नहीं लिखा मिलेगा कुँइया का महात्म्य
फिर भी जो पूजते हैं देवता और मुँह अँधेरे निपाट देते हैं पड़ोसी का अड़हुल,
देवता को प्रसन्न करने
सुबह-सुबह जल चढ़ाने भागने से पहले
उनको मुँह अँधेरे खिलती हुई कुँइया का दर्शन करना चाहिए।

तब मैंने जाना

बहुत आसान नहीं है कविता लिखना
पेड़ पर लिखना कितना मुश्किल
सिर्फ़ पतझड़ के बाद उग रहे पत्तों के बारे में
लिखने से संभव नहीं है कुछ कह पाना
सिर्फ़ यह कहकर नहीं
कि रात पेड़ों के ऊपर उगे थे तारे
और पेड़ मजे से हिलता था
बहुत कम कहना है
वास्तव में यह कुछ भी नहीं है
मैं अभी इतना ही कह सकता हूँ
कि एक साँप आया और पेड़ की जड़ों से रेंगता खेतों में गुम हो गया
कुछ बकरियाँ जड़ों पर की दूब चर गईं
दो आदमी आए, वहीं बहुत देर तक चुप रहे
माथा पोंछते रहे और खेतों में वापस चले गए
फिर चिड़िया आई और तीतीवित्त-तीतीवित्त की आवाज़ें
मैं आया अधीरता में
और देखा कि जहाँ रात आए होंगे हिंस्र पशु
वह जगह बहुत तेज़ हवा और धूप से घिरी है।

मुझे डर लगता है

मुझे डर लगता है यह सोचकर
कि क्या कुछ बचेगा भी
या सब ख़त्म हो जाएगा
ख़त्म हो जाएँगे हमारे दोस्त
ख़त्म हो जाएँगे हमारे पड़ोसी
ख़त्म हो जाएगा यह दिन और
हवा से भरी ख़ूबसूरत रात
ख़त्म हो जाएगी हमारी भाषा
और मारा जाएगा विवेक
फिर बचेगा ही क्या हमारे पास
सिर्फ़ भाषण बचेंगे
सिर्फ़ झंडे बचेंगे
और उन्माद के नारे रहेंगे

मुझे डर लगता है सोचकर
कि इस मुश्किल में कविता किसी के काम नहीं आएगी
मेरी सदिच्छा किसी के काम नहीं आएगी
सिर्फ़ भीड़ आएगी
और घरों को आग लगा देगी
शोर मचेगा, लोग मारे जाएँगे
और फिर चुप्पी छा जाएगी
कोई किसी के काम नहीं आएगा।

सोमप्रभ हिंदी कवि-लेखक और अनुवादक हैं। उनसे और परिचय तथा इस प्रस्तुति से पूर्व ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित उनके गद्य, कविताओं और तस्वीरों के लिए यहाँ देखें : कुटुंब कथाजैसे कोई निरंतर विलाप करता चला जा रहा है

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