कविताएँ ::
अशोक कुमार पाण्डेय

अशोक कुमार पाण्डेय

ज़हर कोई दौड़ता है

एक

दरवाज़े बंद कर लो
मौत अब बाहर भी है

हवा में साँसें हैं और ज़हर भी
पानी में ज़िंदगी और मौत भी
शब्दों में उम्मीद और निराशा बराबर

हाथ मिलाने वाला चुरा सकता है रेखाएँ
गले मिले तो दुःख सीने बदल सकता है

ज़िंदगी
का
पता
नहीं
मौत से डरो।

दो

उस कोने में गिलास है
इस कोने में शराब
दोस्त कहीं नहीं

तीन

मौत नहीं
मौत की वजह चुननी है

रुको
हम चुनेंगे तुम्हारे लिए
हमी करेंगे जो करेंगे
हम जो नहीं मरेंगे

चार

विसाल-ओ-वस्ल के चाँद सब
डर के कुहरे में
बुझ गए

आवाज़ की मद्धम बत्तियाँ
साँझ के दीए में
डूबतीं

सुना उस डर को
देखा आवाज़ के कंपन को
ख़ामोश

उमगती है देह
चहचहाहट
धमनियों में
ज़हर कोई दौड़ता है

पाँच

बालकनी हो तो
पेड़ उगा लो
ख़ुशी मना लो
दीए जला लो
शोर मचा लो

बौने बौने
खेल रचा लो

छह

घर में जाओ
बारह बाई बारह के कमरे में
बारह जन जान बचाओ

घर में जाओ
बारह जन मिलकर
चूल्हे की गर्मी बन जाओ
बच्चों के खेला बन जाओ

बहुत घुटन है बाहर भाई
घर में जाओ
घर में जाओ

सात

भूख का डर
मौत का डर

सपने सारे
कबके मारे

क्या लेकर थे शहर में आए
क्या लेकर अब जाओगे
घर से बचे सड़क पर आए
यहाँ बचे घर आओगे

आठ

दीखते हैं पहाड़
एकदम साफ़
खो गई
राह उन तक पहुँचने की

नौ

हँसा ठठा के दक्खिन टोला
अब बढ़िया है
सब अछूत हैं

अशोक कुमार पाण्डेय हिंदी के सुपरिचित कवि-लेखक और अनुवादक हैं। ‘कश्मीरनामा’ के बाद वह इन दिनों ‘कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ की वजह से चर्चा और विमर्श के केंद्र में हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : एक आवाज़ बेआवाज़

2 Comments

  1. जयंत अप्रैल 5, 2020 at 12:41 अपराह्न

    हाथ मिलाने वाला चुरा सकता है रेखाएं , बौने बौने खेल । बहुत खूब । इस अकेलेपन के समय , बेचैनी को व्यक्त करती सशक्त कविताएं ।

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  2. अमित उपमन्यु अप्रैल 5, 2020 at 2:15 अपराह्न

    बहुत ही बढ़िया कविताएं। बिना प्रयत्न समय को सकाव्य ख़ुद में दर्ज करती हुईं।

    Reply

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