कविताएँ ::
देवयानी भारद्वाज

देवयानी भारद्वाज

कामना का रंग

जैसे बारिश से पहले की धरती पर
घिर आई हों घनी घटाएँ
परिंदे पुकारते हैं अपने संगी को
ज़मीन पानी को
मैं
तुम्हें
कि तुम
कहीं हो तो सुनो

यह जो पवित्र है मन में
काग़ज़ पर कविता-सा
जीवन में इसके लिए
ऐसा ही नहीं है नाम

इसको प्रेम का नाम नहीं दिया हमने
अलग हैं मायने प्रेम के
और कामना के
दोनों पवित्र अपने होने में
दुनिया
न इसकी क़द्र करती है
न उसकी
मुझे पता नहीं
कामना का रंग गहरा
या प्रेम का
मैं
अनिश्चय के हवाले
निरुत्तर जीने लगी हूँ इधर

मुझे जब भी जवाब मिले
झूठ मिले
मुझे सवालों का सच
अधिक प्रिय है
मैं बिना पूछे
उनकी पवित्रता सहेजती हूँ

तुम्हारा प्रेम मिट्टी का ढेला है

वह प्रेम जो मुक्त करे
मुक्त नहीं होता
बहुत धागे उलझे होते हैं
रिश्तों के
वादों के
अतीत के
भविष्य के
बाँटने को
थाली भर मन होता है
थाली
जो मोतियों से भरी
आसमान में औंधी धरी है

मुक्त प्रेम
न बाँधता है
न मुक्त करता है
ठहरे जल पर
ढेला भर हिलोर पैदा करता है
लुप्त हो जाता है

आसमान की थाली
और ठहरे हुए पानी के बीच
धरती भर फ़ासला है

मेरा मन ठहरा हुआ पानी
तुम्हारा प्रेम
इस ख़ाली जगह में
रखा मिट्टी का ढेला है
घुल जाएगा पानी में ही
देखना!

प्रेम पर कुछ कविताएँ

एक

प्रेम कई किए
और छोड़ दिए
तो क्या ब्याह में रहना बेहतर था!

पूछती है अकेली औरत—
ठहाका मारकर हँसती है

अकेली तब भी रहती
न प्रेम करती
न छोड़ पाती
अब यह जो जीवन है
इसके बीहड़ और मरुस्थल
ख़ुद ही चुनने हैं
चल उठ,
चाय बना!

दो

यह जो सुलगती है
मिलने की आस
यह जो अधिकार नहीं है
यह जो आशंका है
‘आज है कल होगा या नहीं’
यह तो प्रेम नहीं
कहीं यह निरी वासना तो नहीं?
—उलझी है अकेली औरत सवालों में

प्यार होता तो आश्वस्ति होती
कोई राह भी होती साथ-साथ
कुछ ख़्वाब होते साझा

और वे
जो देखे थे साझा ख़्वाब
साझे थे क्या?
वासना न थी तो क्या था प्रेम
बस तुम्हारी देह
तुम्हारी न थी
मन तो था तुम्हारा
मर्ज़ी भी थी क्या?

अब जो देह है
तुम्हारी
उसके सुख तुम्हारे
दुख भी तुम्हारे
तुम्हारे मन की मर्ज़ी है

सुलगती है जिसके मिलने की आस
जितना पाता है तुम्हें
उतना ही लौटाता है
यह कोई कारोबार तो नहीं है

ख़्वाब तुम्हारे
तुम जानो
एकांत तुम्हारा
तुम जानो
जब तक है
जितना है
समय
साथ
तुम्हारा है
तुम जानो

तीन

जब रात में
छूटती है रुलाई
एक तकिया होता है
एक चादर होती है
होता है सन्नाटा
कोई नहीं होता पास
एक हूक होती है
सीने में मुँह छुपा लेने की

जब पास में बिस्तर पर
कोई सोता था मुँह फेर
हलक में अटकी रहती थी रुलाई

रोना आए तो
देखो आईना निपट अकेले
अपनी आँखों से झरते गाढ़े तरल को देखो
उजली होती आँख को देखो
हल्के होते मन को देखो
जिस काजल को लगाना
देखती हो
कभी-कभी उसका बहना देखो

देखना मुक्त करता है इस तरह
तुम्हारे आँसू को
तुम ही थाम सकती हो

इस वक़्त हम जैसी कविताओं और जैसे गद्य से घिरे हुए हैं, उसमें देवयानी भारद्वाज की रचनाएँ एक अलग सिफ़त लिए हुए रहती हैं। उन्हें पढ़ना एक अर्थ में सुकून की राह है और दूसरे अर्थ में विकलता की। उनसे devyani.bhrdwj@gmail.com पर बात की जा सकती है।

2 Comments

  1. बकुल देव दिसम्बर 24, 2020 at 6:31 पूर्वाह्न

    सुंदर कविताएंं.

    साधुवाद.🌺

    Reply
  2. प्रमोद दिसम्बर 24, 2020 at 9:55 पूर्वाह्न

    बहुत सुन्‍दर कविताएं हैं।

    Reply

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