कविताएँ ::
रवि भूषण पाठक

रवि भूषण पाठक

उत्तर महाभारत

एक

गाँव का शोक यहाँ तक नहीं पहुँच पाता
वैसे बागमती पूरे बलवेग से उड़ेलती है
अपना पूरा दुःख गंगा में
परंतु गंगा के दुःख में इतनी अपरिचित आकृतियाँ हैं
कि नहीं रख पाता अपने दुःख पर हाथ
फिर इस असफलता के जश्न में गुज़र जाती है एक ऋतु

दो

अगली सभ्यता के उत्खनन में नहीं मिलेंगी किताबें एक भी
सारे शब्द गलकर बढ़ा रहे होंगे मिट्टी का यश
निरक्षरता की अलग ही व्याख्या करेंगी भग्नावशेषों की खिड़कियाँ

तीन

मुअनजोदड़ो में पश्चिम द्वार से घुसे थे बर्बर अश्वारोही
इस बार चारों दिशाओं की हवाओं से
मुअनजोदड़ो के उत्खनन में कहीं भी ‘उनका’ डर नहीं मिला
कोई ध्वनि
कोई लिपि नहीं
उनके कपाल-परीक्षण में दिखी बस राजधानी की क़िलेबंदी

चार

‘डर’ को हटाओ दार्शनिकों के कमरे से
उनके कक्ष से शीशे को हटाओ
डर की बहुगुणित छवियाँ और भी डराएगी उनको
‘डर’ को कवियों के कमरे से हटाओ
वे रंग-रोगन से उसे अनचिन्हार कर देंगे

पाँच

राजधानी ने डरना नहीं छोड़ा,
गेहूँ ने पकना बंद नहीं किया
उनके दानों में एक मुलायम ख़ुशबू भर रहा मार्च
तुमने सुना चना और मटर की फलियाँ और कठोर हो रही हैं
उनके छिलकों ने अपरिचित कीटाणुओं के विरुद्ध बढ़ा दी है छिलके की मोटाई

छह

बीमारियों से डरो राजन्, ‘डर’ से नहीं
विज्ञान से उत्साहित हो, संयोग से नहीं
निदान का व्याकरण देखो, श्रेय का नहीं

सात

देववाणी को पुण्यात्माओं ने सुना,
मेरे खाते में कराहें थीं
चीख़ों के लिए वक़्त निकाला
निदान मेरे पास भी नहीं है
पर तुम कराहों को अवैज्ञानिक नहीं कह सकते
नहीं कह सकते चीख़ों को असामयिक
और अनैतिहासिक दुखों को
स्वस्तिगायनों से ही देश दीर्घायु नहीं होता राजन्,
सारी ध्वनियों को आने दो राजधानी तक

आठ

अब पता चला त्रेता और द्वापर भी मनुष्यों का ही था
प्रलयकवलित सारे मनुष्य ही थे
युगांतक शिलाओं की हरेक नोक मनुष्यों की ओर ही आती है

नौ

यह महांत नहीं है, अंत भी नहीं
एक ‘अंत’ में छोटे-छोटे हज़ारों बंद होते हैं
शायद ‘अंत’ की लंबाई ही लाखों वर्ष में है
सन्नाटा हज़ार सालों वाला
ये कैसी नीरवता है कि सूरज आ जा रहा है समय से
लाखों चींटियाँ लौट रही हैं दाना लेकर
और उससे भी ज़्यादा तैयार हो रही हैं
आबादी की ओर जाने के लिए

दस

इतने विशाल दुःख को किस तालाब में डूबो कर रखूँ?
इतने विष को कौन पात्र सह पाएगा?
इतने ‘डर’ से बचने के लिए कैसा परदा सही रहेगा?
कौन-सा मुखौटा सही रहेगा, अपनों से बचने के लिए ?

ग्यारह

हरेक दैत्य को मारने के लिए
एक नया शिल्प था देवी भगवती के पास
रक्तबीज वाला सबसे अलग था
हिरण्यकश्यप वाला भी अलग
इस दैत्य को मनुष्य मारेगा,
अपनी नई किताब को पढ़कर

बारह

मंत्र पहले ही चुक रहे थे
डगमगाती श्रद्धाओं के बीच अगरबत्ती भी ख़त्म हो गई
फिर मिश्री भी तो छोटे डिब्बे में ही थी
कुछ बताशे से भी कैलेंडर बदला
अब चीनी का ही आसरा था
जिस पर पहले से ही दबाव था चाय का

तेरह

एक सेर आटा होगा?
नहीं
आधा सेर दाल?
नहीं
आध पाव तेल ही दे दो?
नहीं है, वह भी नहीं
इतने ही ‘नहीं’ से फ़ुलप्रूफ़ क्या जा रहा है सुरक्षा-तंत्र
इस एक ‘नहीं’ से ही माना जाए युगांतर?

चौदह

हरेक नवजीवन को गर्भाशीष नहीं मिले
आँधी में गिर गई आम और नींबू की टहनियाँ
जहाँ-जहाँ तना को मिली भीगी ज़मीन,
वहीं-वहीं फूटा कल्ला
आलू ने छिपा ली जीवनाक्ष अपनी जड़ में
पान के पत्ते अपने आप ही थे शुभमंगल
मेरा जीवन रस भी कहीं न कहीं है ही
मैं कहीं भी उग सकता हूँ
रह सकता हूँ हरा

पंद्रह

राजा के पास बहुत सारे लोग थे हुंकारी भरने वाले
खड़े पैर मुग्ध होने वाले विद्वान दरबारी
दोनों हाथ उठाकर साधुवाद देने वाला विशाल साम्राज्य
और गदगद देखता राजपथ
हमने शुरू से ही अल्पज्ञात पगडंडियों पर चलना सीखा
और ख्याति मिलते ही फिर से खोजने लग गये नई पगडंडियाँ

सोलह

रोटी नहीं होने का आरोप झेल रहे राजा ने दंतमंजन
और रेजर भी गुम करवा दी
दाढ़ी बढ़ेगी, मैल जमा होगा और दुर्गंध भी
इस तरह संतुलन बनेगा अल्पपोषण और वजनहीनता के विरुद्ध

सत्रह

इस चमत्कार में अविश्वास करने वाले विज्ञानवादी नष्ट हो जाएँगे
वाममार्गियों का दक्षिणांश पिघलकर गल जाएगा
संदेहवादियों की गुफाएँ विषैली गैसों से भरकर
अनीश्वरवादियों का दर्पदर्शन तितर-बितर हो जाएगा इसी सूर्य-प्रकाश में

अठारह

तानाशाह का अथ-मध्य-इति रहस्यों में डूबा होता है
उसका आदि भरा होता है देव-रहस्य से
और मध्य असुरगोपन से
वे कैसे, कब, कौन-सा चिह्न बनाते होंगे दुश्मनों के घर पर
झरोखों, सुराख़ों, सेंधमारों से कैसे निपटते होंगे?
उनकी हँसी, टिप्पणी, गालियाँ सब रहस्य ही हैं
वैश्विक आलोचना को नकारती विनम्रता के सौंदर्य पर रीझते आचार्य नहीं नोट कर पाते
तानाशाही के अंत का मानव-रहस्य

उन्नीस

इत्र ख़त्म हो चुका था
नई साड़ियाँ भी
मास्क के नीचे छिप गया था लिपिस्टिक, बिंदी का पुरानापन
उद्दीपन के मंच भी शोकमग्न कर रहे थे
नदी के दोनों ओर जल रही थीं चिताएँ
फूलवाड़ियों से तोड़-तोड़कर गुलाब,
अर्थियों को बनाया जा रहा अपार्थिव
पहाड़ धू-धू कर जल रहे थे चंदन-धूप-घी के साथ

बीस

महाप्रलय में भी प्रेमी ख़त्म नहीं हुए
बवंडर की धूल-गर्द सोखती उसकी देह रैन-बसेरों के बाहर
लॉकडाउन की लैलाओं के इंतज़ार में है
उफ् उसके कपड़े वापस ले लिए हैं कपास ने
देह का पानी ‘पानी’ में मिलना चाहता
और मिट्टी भी मिट्टी में
पहले के सारे ध्वनि और चित्र खो गए हैं कृष्ण-पिंड में
मजनू आ जा रहे सब्ज़ी के ठेलों के साथ
नफ़रत की दीवारों में इतना लोहा सीमेंट-डाला गया है
कि वे मरेंगे सामने, जीने का अभिनय करते हुए
और क़सम निभाती लैलाएँ अनचिन्हारी के अभिनय में देखती रहेंगी शून्य में

इक्कीस

आठ घंटा कम है बाहर के कोने-कोने के लिए
चौबीस घंटा तो बहुत ही कम है घर के कोने कोने के लिए
पूरी ज़िंदगी भी कम है मन के एक कोने के लिए
इस व्युत्क्रमानुपात से यह तो पता चल ही सकता है
कितना कम समय चाहिए सुल्तान की आँखों को पढ़ने के लिए

बाईस

नैतिकता, नियम और अनुशासन राष्ट्र के लिए है
यह आपके लिए नहीं हे महाभोग! हे महाजीवन!
यह राष्ट्रीय सूची है कि
क्या-क्या खाए बिना रहा जा सकता है
क्या-क्या गाए बिना?
किनसे मिले बिना प्रतीक्षा नहीं, उपालंभ नहीं, दर्द नहीं
एक लंबी सूची संलग्न है, जिसके बिना जिया जा सकता है

तेईस

लाशों को नमक लगाकर सुरक्षित रखने का विचार त्याग दे पुत्र
महासागर सारा लवण देकर भी सभी लाशों पर लेप नहीं लगा सकती
जलाने का विचार कितना ख़ाली
जबकि पहले से ही कट चुके हैं दो-तिहाई वन
कैसे ताबूत, अर्थियाँ किससे?
बस दिख रही देहरहित वृक्षों की ठूँठ
लाशों को लाशों पर रख प्रार्थना करो कि
मांसभक्षियों को दें साहस और भूख
सागर ले अपना लवण और जल
अपकीर्ति ले पाताल और आत्मा आकाश हो जाए

चौबीस

अर्थी का कोरम भी पूरा नहीं
लकड़ी, घी, मंत्र भी किफ़ायती
पुलिस के डर से तेरही में ग्यारह पंडित भी नहीं
भोजनादि के बिना कैसे रहेंगे प्रेतात्मा?
इस दुनिया में गरुड़ पुराण की अलग लय है!

पच्चीस

ये बातें बहुत ज़्यादा नहीं हैं राजन्
यह दुःख : अंतिम दुःख नहीं
तुम्हारे आदेश : अंतिम आदेश नहीं
यह कविता : अंतिम कविता नहीं!

  रवि भूषण पाठक हिंदी कवि-लेखक हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : सारे चित्रों के नष्ट होने पर

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