कविताएँ ::
सारुल बागला

सारुल बागला

ईश्वर

यह दुनिया उनके लिए नहीं बनाई गई
जिनके लिए सिर्फ़ आसमानी
पाप और पुण्य से बड़ी कोई चीज़ नहीं
फ़र्ज़ कीजिए कि ईश्वर कोई
नई दुनिया बनाने में व्यस्त हो जाता है
या फिर चला जाता है दावत पर कहीं
किसी स्वाद में डूबकर
अनुपस्थित हो जाता है
तो आप कितने इंसान रहेंगे?
बेशक मुझे एतराज़ नहीं है
लेकिन आप यक़ीन मानिए
आप बस उतने ही इंसान है
जितना ईश्वर की अनुपस्थिति में होते हैं।

हुनर

दिमाग़ को खोखला करता हुआ यह
और मेरा धूसर द्रव्य ज़हर में तब्दील होता जा रहा है
जब तुम यह सवाल करोगे कि
उस सुबह मैं किसके लिए जाग रहा था
तो ऐन उस वक़्त मेरे वजूद की हत्या होगी
दोहराया जाएगा जिसे दोहराने के ख़ौफ़ से
पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाने से भी नहीं घबराया
जिसकी ऊब से मैं पच्चीस साल की अंतहीन ऊब से भी ऊबा
शब्दों को इतना ख़ौफ़नाक कभी नहीं पाया था
कि वे मेरी जान लेने पर आमादा होंगे
और मुझे बम की तरह बरतने होने अपने ख़िलाफ़ अपने शब्द
कि बस कि वक़्त की मियाद है और फिर वक़्त की मियाद नहीं है

यह क्या है अजीब से लिजलिजेपन से भरा हुआ दिन
जिसे न तुम्हारी फ़िक्र है न मेरी
और अजीब वहशत का मारा मैं
बस ख़ुद को क़त्ल करने का हुनरयाफ़्ता
दिमाग़ी बीमारी का बोझ ढोता हुआ कीड़ा
जो काटता है भीतर
तो जानता भी नहीं कि अपना कितना ख़ून पी चुका है

हाँ, मैं पैदा हुआ हूँ वहशत के बीच
बड़ा हुआ हूँ एक जाती दुश्मनी और हौलनाक अज़ीयत में
वो दिन और आज का दिन
सुबह मेरा ख़ून पी रही है
मेरी नब्ज़ डूब-डूब कर ऊब चुकी है
और अफ़सोस इसको भी मोहब्बत के हिसाब में जोड़ा जाना है
इससे बेहतर कोई हिसाब नहीं हो सकता
कि मेरा हिसाब छोड़ कर लोग मुस्कुरा दें
और कह दें कि तुम्हारा हिसाब न करना ही बेहतर है
मुझे ख़ुद भी नहीं पता है
तो क्या यह किसी को पता ही नहीं है
कि है भी इलाज या नहीं है
ख़ामोशी खा रही है
मेरा गला घुट रहा है इस अजीब-सी सुबह में
तुम्हें मेरी आवाज़ आ रही है
बताओ! मैंने जो भी हल ढूँढ़े थे
ये मुसीबत उससे बड़ी क्यूँ है?

मैं चीख़ कर चिल्लाऊँगा तो जानता हूँ कि बच जाऊँगा
फिर अभी ऐन इसी वक़्त क्यूँ रुँधा है मेरा गला।

बेमन गीतों के देश से

बेमन गीतों के देश से
पोटली में प्यार बाँधे हुए
किसी तरह तुम तक लौटा हूँ
जब कोई किसी का इंतज़ार नहीं करता
तुम मिलाती रही कोयल के तुक से तुक
और रास्ते की धूप में
छाँव के छोटे-छोटे पेड़ आते रहे
कैसे कहूँ मैं जब जल रहा था
उन ख़बरों की आग में
जो मुझे तक नहीं पहुँचनी चाहिए थीं
तो तुम्हारी याद हमेशा एक
अच्छी ख़बर की तरह मन को हरा करती थी
इस तरह अच्छे मौसम भूले
जैसे कभी मैंने देखा ही न हो वसंत
तो तुम्हें याद करते-करते
मुझे मेरा गाँव याद आया
बहुत बार लगा कि
प्रेम में ईमानदार होकर तुम्हें
अपना सब कुछ कह देना
या बाँहों में भर कर सारी उम्र सोचना
तौहीन है तुम्हारी
उस मुस्कान से कमतर है
जो जब भी डूबता हूँ तो तिनका बनती है
बेमन गीतों के देश से
लौटने का आख़िरी रास्ता तय करते हुए
पोटली में तुम्हारा प्यार बाँधे लौट रहा हूँ।

संघर्ष

बग़ैर संघर्ष के जीना
अपमान है परिश्रम का
बग़ैर संघर्ष के खाने से
ख़ुश नहीं होता अनाज
बग़ैर संघर्ष के प्यास बुझे तो
प्यासा रह जाता है पानी।

सारुल बागला हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध कवि हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : रात दिन को हसरत से देखती अगर देख सकती

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