कविताएँ ::
सत्यार्थ अनिरुद्ध पंकज

सत्यार्थ अनिरुद्ध पंकज

बातें

एक

बातों से कोई नतीजा नहीं निकला
गतिरोध बना रहा

हर कहे सुने की
कोई न कोई काट थी

कई बार उत्कट इच्छा के बाद भी
मुमकिन नहीं हुआ किसी राह पर निकल जाना

असहमत होते हुए भी
अच्छा लगता रहा उसका बोलना
कभी-कभी सोचना भी बोलते रहने की भंगिमाएँ
होंठों का दाहिनी तरफ़ बार-बार फड़फड़ाना
अचानक चुप हो जाना
आधे शब्दों पर अटक जाना
किसी सन्नाटे में निकलने के बाद लौट आना
और फिर लंबी शांति से भर जाना

उकसाते हुए
कि अब फिर से बातें शुरू कर सकते हैं

इस गतिरोध पर इतनी देर टिके रहते
कैसे हरी हो उठती है उम्मीद

यह न जानते हुए भी कि
इस मोड़ के बाद
कहाँ ले जाती है यह राह

दो

और क्या कहता
उमगती हुई फुनगियों को
कब तक बिठाए रखता इंतज़ार में

वे घूमना चाहती थीं तुम्हारे साथ
उन सडकों पर बेपरवाह
जिनसे तुम रोज़ गुज़रते थे

लेकिन वे अकेली चलीं
नींद में भी
भीड़ में भी
इस तरह अकेले देखे जाने पर
शर्म से गड़ गईं वे

मैंने उन्हें बस तब सींचा
जब कोई न रहा उनका
मेरे सिवा!

तीन

वे तब भी साथ रहीं
जब और कोई नहीं था

उचाट सुबहों से दिन शुरू करतीं
रात-रात भर नींद की कोशिश करने के बाद

दिन उनके मुहावरे बदल देता था
तब वे दफ़्तर में दफ़्तर
और बाज़ार में बाज़ार की ज़ुबान में
बरतती थीं दुनिया को

वे चिल्ला पड़ती थीं
अगर उन्हें टोक देता था कोई
बीच राह शाम को
रात की ओर लौटते हुए

चार

अकेले कौन करता है बातें!

कोई न कोई आ ही जाता है
कभी- कभी तो
पूरी की पूरी बस
मंडियों में घूमते सारे लोग
दफ़्तर के सारे कर्मी

अगर केवल नदी भर ही हो सामने
तो भी
बारी-बारी बहते आते हैं लोग

उनकी बातों के जवाब देते थक जाता है आदमी

अकेले रहने कहाँ देते हैं लोग
कि कोई अकेले करे ख़ुद से बात

पाँच

बातों के सिर पैर नहीं होते
चाहे जितना रस दे दें
वे फूलों की क्यारियों को सींच नहीं सकतीं अपने हाथों
न वे हथौड़े लेकर काट सकती हैं पहाड़

मन का कोई देश है
जिसकी नागरिकता के अधिकार से
वे सीधी चलती चली जाती हैं
भीतर तक
कोई नहीं रोक पाता उन्हें
वे तब भी बैठी रह जाती हैं
जब बातें करने वाला कोई और न हो

स्मृति के प्राचीन स्तंभ
जिनके बारे में किंवदंतियाँ थीं
कि उन्होने अपने हाथों से बनाए हैं
एक नज़र देखकर लौट आती हैं
कि उस तरह नहीं काढ़ेंगे फूल
इस बार अलग डिज़ायन में

इस बार सिर्फ़ दूर तक बहती नदी
और रेत के किनारे
इस बार वे खुलकर बैठेंगी
आसमान के नीचे

छह

बातों ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा

जब भी मैंने कुछ चाहा वे बरबस खोजने निकल गईं
और भूल गईं वापसी का रास्ता

वे पूछा करती थीं हर आने जाने वालों से पता लेकिन
पता कुछ नहीं चल पाया

जब तुमसे मैं कह रहा था
तुमने देखा कैसे उछल कर गले लग गईं वे
कि जैसे दिन भर से वे तुम्हारी ही राह देख रही थीं

अगर बातों की कोई तस्वीर खींचता तो भेज सकता था पहले भी
लेकिन उनमें उनकी शक्ल बदल-बदल जाती है

हालाँकि देखा है मैंने उन्हें
मुँह छुपाते
चुप हो जाते
जब-जब उतर आती है उनकी परछाईं
तुम्हारी आँखों में
वे मन ही मन गूँथती रहती हैं
कोई माला, अदलती-बदलती
फूलों को, बीच-बीच

सबसे ज़्यादा भागती हैं वे
सियासत से
वे नहीं पड़ना चाहतीं
आम और ख़ास के बीच
मगर घसीटी जाती हैं हर बार
तब वे अंदर से बिखरी हुईं
ऊँची आवाज़ में ज़ोर-ज़ोर से चलती ही चली जाती हैं
जैसे कोई जगह खोज रखी है उन्होंने छिपने की
और वहाँ नहीं पहुँच सकते राजा के सैनिक भी

दरअस्ल, ओट उन्हें शुरू से पसंद है
चाहे झिझक से
चाहे चालाकी में
वे हर बार सब कुछ नहीं बताना चाहतीं
चाहे कितने ही ध्यान से देखने की कोशिश करो
चाहे कितने ही मन से बिठाओ अपने पास

बातें कोई एक सिरा देकर
सालों नहीं बतातीं
कुछ भी
जगी-जगी घूरती रहतीं हैं तुम्हें।

हमारी दुनिया

मैंने उससे कितनी ही बार कहा
यही दुनिया है
यह तुम्हारी है
दोस्त हम इसी मुहल्ले में शुरू से रहते थे
हमारे नाम तब भी कुछ नहीं था
लेकिन इस गली को हम अपनी गली मानते थे
और वे सारे मोड़
हमने अपने नाम से कर रखे थे
जिन पर हमारी शामें कटती थीं

तब भी बहुत से लोग थे जिन्हें यह
अपना नहीं लगता था
लेकिन उससे क्या

वे जब मरे तो हमने यही कहा कि
गाने मत बजाओ
अपने मुहल्ले में आज ग़मी हुई है

एक दिन अचानक हम छोड़ नहीं सकते
अपना शहर
अपने मुहल्ले
अपनी गली
अपनी दुनिया

यही है दुनिया
हमारी दुनिया
हम शुरू से यहीं रहते आए हैं।

अपनी गली का आदमी

अगर तुम शहरों के बदलते नामों से परेशान हो
तुम्हें लगता है जिस जहाज़ से तुम
उड़कर वहाँ पहुँचे हो
वह तुम्हें अकेला उतार गया है
तो सुनो
क्या फ़र्क़ पड़ता है

क्या फ़र्क़ पड़ता है
तुम उसे नहीं जानते थे
क्या करना है, कैसे और कब से
यह सब बेकार है
इसके सामने कि
यह सब उसी दुनिया में है
जिसमें हम शुरू से रहते आए हैं

जो बच्चा अभी बोलना भी नहीं जानता
जिसे तुमने मुस्कुराने का एक और ढब सिखाया
जिसे तुमने किनारे कर दिया बीच सड़क से
वह किनारे नहीं गया
शामिल हो गया
वह तुम्हारी तरह ताउम्र मुस्कुराता रहेगा

दुनिया की जिस गली से गुज़रो
वह तुम्हें अपनी ही गली का आदमी समझेगा।

समय के बारे में

न घड़ी या पृथ्वी की गोलाई में
न केंद्र में, न गर्भ में
मेरी धमनियों में और तुम्हारी आँखों में
बहता है, नदी की तरह नहीं
जैसे पहाड़ों के पत्थरों में भीतर ही भीतर रिसता हुआ
जिससे एक दिन दो फाड़ हो जाती है चट्टान

मैंने जब तुमसे पूछा था—‘क्या हुआ?’
और तुम बेतहाशा फेंकने लगी थी
बदन से रगड़-रगड़ कर
अपना दीमक
जैसे हाल में पहुँचा कोई सूफ़ी
अपने पाए का एक-एक बूँद लौटा देना चाहता हो
समय का ही पहिया उल्टा घुमा रही थीं तुम
तब, जब वह बीत तो चुका था
लेकिन हठ से हठात्, बेमन से, आगे बढ़ता हुआ
शाश्वत होने की विवशता में
किसी पेंडुलम के दोलन में गिरफ़्तार

यह सिर्फ़ तुम्हीं नहीं थीं
जिसे कुछ पता नहीं था कि आगे क्या

हम सब दफ़्तर को निकलकर यही सोचते थे
और लौटते हुए भी
जो हुजूम सड़क पर बेतरतीब चल रहा था
या जो अभी-अभी जुलूस ख़त्म होने के बाद
चाय पी रहा था
जो जोड़ा पार्क की बेंच से उठा था वह भी
वे बूढ़े भी जिन्हें ट्रेन की सीट पर बिठाकर
उनके बेटे दूकान को चले आए थे

घर का तोता तक अब सिर्फ़ यही सोचता था कि
कौन पहचानेगा आसमान में अब
कौन जाएगा तिनके लाने
कौन जुटाएगा रोज़ दाना
वह काव्य में आत्मा की रूढ़ि बनकर
मन ही मन उच्चस्थ था—पिंजरे में
वह पिंजरे की तीलियों को समय की सुई समझता था

समय और कुछ नहीं था बंद पड़े घंटाघर का दरवाज़ा था
और सदर बाज़ार में रिक्शों, ठेलों, गायों और मनुष्यों का
बेतुके अनुपात वाला एक स्टिल फ़ोटोग्राफ
जिसके बीचोंबीच एक काली कार सुकून से निकली जा रही थी
कार में बैठा आदमी ऊँघ रहा था
शौफ़र सिर्फ़ इतना सुन सका था—‘आगे चलो’

वे लोग जिनकी आवाज़ बीच-बीच में पार्श्व से
आ रही थी
वे कहीं मौजूद नहीं थे, वे आदि कवि की कल्पना थे
जो उम्मीद की तरह गुनगुनाने के लिए रचे गए थे
जब सब चुप हो जाएँ।

पीछा

मैं तुम्हारी आँखों का एक दृश्य भर हूँ
परिदृश्य में चलता हुआ

अपनी चमक और रौनक़ के लिए
निर्भर हूँ रोशनी के ग्रहों पर
और तुम पर

बोलने या चुप रहने के लिए भी
देखता हूँ पहले तुम्हें
फिर निकालता हूँ
डरी या डराने वाली आवाज़ें

ढेर से फ़ैसले तो
न अपने सोचने से
न अपने समझने से
बस चीज़ों के बीच होने भर से तय कर लेता हूँ

चलता चला जाता हूँ
कभी कोई मिल भी जाए तो कुछ नहीं कहता
‘देर हो रही है’ या ‘फिर मिलता हूँ’
कह कर आगे बढ़ जाता हूँ

हर समय मेरा पीछा करना ज़रूरी नहीं
तुम न रहो तो भी

मैं तुम्हारी माया का नागरिक
ब्रह्म जानता तुम्हें
प्रदक्षिणा करूँगा

और यह सब मतदान के परिणाम से निरपेक्ष है।

नदी और पृथ्वी

नदी का जन्म
किसी दुःख से नहीं हुआ था
न पृथ्वी का

वे जन्म के बाद के दुःख ढो रही हैं

पहले वे पेट में दबाए चलती रहीं
उन्हें कोई रास्ता समझ नहीं आया
वे घूमती-भटकती रहीं
उन्हें लगा दो पल मिले तो
सुस्ता कर सोच पाएँ
कोई और मार्ग

लेकिन ऐसा नहीं हुआ
रात के साथ सूर्य चला गया
सुबह के साथ चंद्रमा
शुक्र का तारा जब चाहा—
आया और गया
लेकिन वे कोई समय न पा सकीं

इस तरह वे रवाँ रहीं
और तब उनके दुःख भी
साथ ही साथ
शाश्वत…

सत्यार्थ अनिरुद्ध पंकज की कविताएँ कुछ पत्र-पत्रिकाओं और ‘लल्लनटॉप’ जैसे लोकप्रिय माध्यम पर प्रकाशित हो चुकी हैं। वह लखनऊ में रहते हैं। उनसे sap2880@gmail.com पर बात की जा सकती है।

6 Comments

  1. Arbind फ़रवरी 26, 2021 at 7:21 पूर्वाह्न

    बेहतरीन 👏👏

    Reply
  2. साजू फ़रवरी 26, 2021 at 11:13 पूर्वाह्न

    ‘बातें हैं, बातों का क्या !’ मग़र यहाँ कवि की बातें जितनी सुन्दर हैं, उतनी ही सार्थक और संप्रेषणीय भी। जीवन के विविध आयाम इन बातों में समाये हुए हैं। ये बातें केवल कवि की बातें नहीं हैं, उन सब की हैं जो जीवन की ‘ज़रा-ज़रा सी बात’ को भी जीते हैं। अमूर्त बातों को मूर्त करने के लिए प्रयुक्त बिम्बों की सहजता के कारण भी ये बातें सब को अपनी लगती हैं।

    Reply
  3. अक्षय फ़रवरी 27, 2021 at 5:11 पूर्वाह्न

    “मैं तुम्हारी आँखों का एक दृश्य भर हूँ
    परिदृश्य में चलता हुआ…..”.वाह!

    आपकी सभी कविताएँ पाठक को अपने साथ घुलाने-मिलाने में समर्थ हैं….,🙏🙏

    Reply
  4. Bharti फ़रवरी 27, 2021 at 8:05 पूर्वाह्न

    लाजवाब👌👌👌

    Reply
  5. ,,,, फ़रवरी 28, 2021 at 5:34 अपराह्न

    बहुत ही लाजवाब कविताएं।

    Reply
  6. सुरेश यादव अगस्त 17, 2021 at 6:29 अपराह्न

    नदी का जन्म
    किसी दुःख से नहीं हुआ था
    न पृथ्वी का

    Reply

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