कविताएँ ::
सुधांशु फ़िरदौस

सुधांशु फ़िरदौस │ क्लिक : अंकुर आज़ाद

ध्यान

ख़ुशियाँ हैं या वैशाख की तितलियाँ
सूखता जाता है तालाब
ग़ायब होती जाती हैं मछलियाँ

एक पका हुआ बेल है प्रेम
जब भी आता है झोली में
आत्मा को—भर देता है संभावनाओं से

धारणा

बचपन का खपरैलवाला घर
जिसमें जज़्ब थी गुमसुम मेरी उदासी
बाँस की खपचियों के दोग में
चमगादड़ों को ढूँढ़ती दुपहरी

अब वही घर छतदार-चमकदार
लेकिन सारे रंग-रोगन के भी बाद
दिख जाते हैं इसमें
कहीं-कहीं चुवाट

दाग़ जाते नहीं हैं मियाँ— इश्क़ हो या बारिश
आदमी उम्र गुज़ार देता है छत को देखते हुए

चाहे कितना ही करा लो क्यूँ न पलस्तर
निगाहें ढूँढ़ ही लेती हैं छुपी हुई दरारें!

मन के राजमिस्त्री
इतनी आसानी से नहीं मिला करते

प्रतीक्षा

शिशिर की अलसाई धूप
सूरज से आँखमिचौली करते तितलियों के संग उनके रंग में ही बीत गई
वसंत की मदमाती धूप गिलहरियों के संग
मंजर चुगने के ढंग में ही ज्यों-त्यों रीत गई

कहाँ तो ग्रीष्म में होती चिलचिलाती धूप में नील अंजन नभ की अभिलाषा
कहाँ यह वैशाख में ही आषाढ़ जैसी मूसलधार वर्षा

बीतता मौसम और वही आँगन—
कितनी मानीख़ेज़ है जीवन में तुम्हारी यह अदृश्य मौजूदगी
कहीं भी रहूँ—मुझे रखता है आच्छादित मेघ की तरह यह तुम्हारा ख़याल
इस वर्ष यूँ ही विलम्बित होती जा रही हैं ऋतुएँ
ऐसा संग-रोध कि छूट ही गया
यकायक सब संग-साथ

इतना असंगत है सारा गणित कि
तुम्हें कोई दिलासा भी नहीं दे पाता कि कब होगी मुलाक़ात!

तुम्हारे और तुम्हारे गीतों के साथ
पता नहीं
इस बार देखूँगा भी कि नहीं चाँद

जब आएगा तुम्हारा प्रिय महीना कुआर
झरता है जिसमें तुम्हारी बातों से भी
खिलकर हरसिंगार

व्यर्थ है सौंदर्य से सौंदर्य में भेद करना
माना कि बहुत पसंद है—तुम्हें हरसिंगार
पर आँगन में गिरते हुए ये नीम के फूल भी
कुछ कम नहीं हैं यार!

अगर आतीं तो देखतीं तुम स्वयं
कितना मधुर है यह चहारदीवारी पर उछलते
कुरकुरइयों का समूहगान
कभी नीम तो कभी आम के गाछ से
स्वादानुसार आती हुई कोयल की आवाज़

सामने राजपथ पर लगातार चले जा रहे हैं लोग
जो थोड़े पैसे वाले हैं वह छुपते-छुपाते एम्बुलेंसों और ट्रकों में भरकर
जो फटेहाल हैं वह रिक्शा, साइकिल या पैदल ही चलकर
आ रहे हैं नियम तोड़
अपनों से मिलने
आ रहे हैं सब छोड़

मिलाता हूँ अपनी कथा में इस व्यथा का सार
बनते-बनाते
खाते-खिलाते
सुनते-सुनाते
तुम्हारे बिना बीत रहा है ग्रीष्म
तुम्हारे सब निर्देशों को मानते
प्रतीक्षा को प्रार्थना में दुहराते

प्रार्थना

हँसता हूँ तो डर लगता है
उड़ न जाए कहीं किसी और का मज़ाक़
आजकल तो अपने भी बहुत पकड़ते हैं बात
रोता हूँ तो कमज़ोर दिखता है
ख़ुद की नज़रों में ही
ख़ुद का किरदार

सब्र है या होमियोपैथ की गोलियाँ
बचपन में अक्सर जिसे इलाज के भरम में खाकर पाया करता था स्वाद

अब न वो बचपन है और न वो गोलियाँ
अपनों के बीच भी अजनबी की तरह लेता हूँ साँस
दफ़्न कर सारी बेचैनियाँ
कहाँ जाकर छुपाऊँ मैं अपनी तल्ख़ियाँ

इतना थक चुका हूँ सब तरफ़ देते हुए—मूर्खता का इम्तिहान
कोई भी कुछ कहता है तो उसे हाथ जोड़ करता हूँ प्रणाम
मालिक बहुत किया है आपने एहसान
मान लिया है आपको भगवान

देव आप जाओ, अब अपने लोक जाओ
आपको तो नहीं लगता कभी मैदान
लेकिन, हमारे लिए ज़रूरी है
दिव्य निपटान!

अभिनिष्क्रमण

महसूस किया है तुम्हारी उपस्थिति का संगीत
प्रकृति लिख रही है तुम्हारी अनुपस्थिति का गीत

क्या ज़ुल्म था कि ओरियानी तक—
लबध आए मेघ जैसी इच्छा के बावजूद
किसी छाया-मानुष जैसा सालों-साल
आकांक्षाशून्य रहा तुम्हारे पास

अब जबकि माँझी ने तान दी है पाल
तुम्हारे स्पर्श से यह पछ्या हवा भी हो गई है पागल
मैं ठहरा ‘धीरे-धीरे गाड़ी हाँको मेरे राम गाड़ी वाले’
विदा के वक़्त भी यह धकेले जा रहा
शून्य है लौटने की संभाव्यता
किसी प्रेत की तरह,
फिर भी पलटकर हूँ देखता

जन्म और मृत्यु ही मौलिक
शेष सब है पुनरुक्ति
जीवन पर्यायवाची है रुदन का
रोकर इसे और भी नाटकीय नहीं चाहता करना

उसी बिंदु पर हुआ व्यर्थ जहाँ पाना था अर्थ
हेरत हेरत हेरा ही गया वह भी जो था निष्णात
निर्मूल हुआ उसी क्षण सब प्रयोजन
यह अछोर फैला असारता का जंगल

कच्ची नींद से जाग
अश्रुहीन
भावहीन चेहरा सपाट
विदा के लिए ख़ुद को किया था तैयार
थम गई विगत से आ रही स्वरलहरियाँ
अनागत दे रहा निमंत्रण
अब यात्री हूँ—मुक्त मन!

सुधांशु फ़िरदौस सुपरिचित हिंदी कवि हैं । उनकी कविताओं की पहली किताब इस वर्ष ‘अधूरे स्वाँगों के दरमियान’ शीर्षक से प्रकाशित हुई है। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : इन दिनों उदासी कोई हीर हैमेघदूत विषाद

1 Comment

  1. Akhilesh singh सितम्बर 12, 2020 at 3:24 अपराह्न

    दाग जाते नहीं मियाँ !

    इन कविताओं को पीने कौन आयेगा ? ज़ाहिर है कि, इनका प्रचार नहीं किया जा सकता। इन्हें सिर्फ़ पिया जा सकता है। वैसाखी तितलियों, गायब होती मछलियों, पलस्तर के बावजूद दिख ही जाती दरारों, कुकुरइयों का समूहगान, और तुम्हारी यह अदृश्य मौजूदगी ! उफ़ !
    जो, प्रेम में भासित से अलग, परिभाषित में जीता है…या जो सैलानी की तरह खाता है धूप, वह बेल को ठेले के शर्बत की त्तरहः पियेगा…और इन कविताओं को नहीं पी पायेगा।
    पहली तीन कविताओं ने मन ख़ुश कर दिया।

    Reply

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *