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देवीलाल गोदारा

hindi writer Devi Lal Godara
देवीलाल गोदारा

तबीयत को रँगो जिस रंग में रँगती ही जाती है
शमशेर बहादुर सिंह की कविता और स्त्री-सौंदर्य पर कुछ बेतरतीब टीपें

एक

शमशेर की एक कविता की पंक्तियाँ हैं :

“एक पल है यह समाँ
जागे हुए उस जिस्म का!
जहाँ शामें डूब कर फिर सुबह बनती हैं
एक-एक,—
और दरिया राग बनते हैं—कमल
फ़ानूस—रातें मोतियों की डाल—
दिन में
साड़ियों के से नमूने चमन में उड़ते छबीले; वहाँ
गुनगुनाता भी सजीला जिस्म वह—
जागता भी
मौन सोता भी, न जाने
एक दुनिया की
उमीद-सा
किस तरह!”1कुछ कविताएँ व कुछ और कविताएँ, शमशेर बहादुर सिंह, पृष्ठ 64, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरी आवृत्ति 2004

स्त्री का एक रूप ऊपर उद्धृत कविता-पंक्तियों में है, जहाँ कवि बात तो उस ‘सलोने जिस्म’ की ही कर रहा है। पर वह जिस्म कैसा है? बस… हर पंखुड़ी पर एक चोट है। शमशेर इस सलोने जिस्म को न जाने कितने नायाब बिंबों से देखते हैं और उसे कविता में प्रस्तुत करते हैं। कभी वह उसे ‘रात की तारों भरी शबनम’ के रूप में देखते हैं तो साँवली नशीली पलकों को चाँदनी से भरी भारी बदलियाँ नाम देते हैं। वह सलोना जिस्म ऐसा है जहाँ ‘शामें डूबकर फिर सुबह बनती हैं’ और ‘दरिया राग बनते हैं’ …वह सलोना जिस्म एक पूरी दुनिया के लिए उम्मीद-सा है। ऐसा जिस्म जिसे दुनिया की उम्मीद के रूप में रेखांकित किया जाए, क्या वह जिस्म महज़ किसी स्त्री-देह का सौंदर्य ही है या फिर इसके समानांतर सौंदर्य की उस असीम सत्ता के पावन प्रतिरूप को सम्मुख रखकर देखना चाहिए! कोई ऐसी परमसत्ता जिसको कवि ने सलोने जिस्म का रूपक देकर अपने नए मुहावरे में प्रस्तुत किया है! इस प्रकार की कविताओं से शमशेर जाने जाते हैं। शमशेर जब इन स्त्री-पात्रों को अपनी कविता में लाते हैं तो दैहिक सौंदर्य बहुत गौण हो जाता है। शमशेर उन पात्रों की आत्मा को छूते दिखाई देते हैं। उनकी चेतना में ये स्त्री-पात्र बहुत ही आत्मीय रूप में आते हैं।

शमशेर की कविताओं में कई स्त्रियों की चर्चा है—कहीं नटखट ‘बालिकाएँ, अति सुंदर, किंतु चपल-सबल है तो ‘बसती पार एक नारि प्रिय है’ जो ‘सपनों की बिनती-सी’ प्रतीत होती है। मध्यवर्ग की ‘मुन्नी’ और ‘मासी’ है जिसकी दुनिया में गाय-सानी-दूध और आग-चूल्हा से अधिक कुछ नहीं है वहीं ‘सर पर लाल मिट्टी के बोझ उठाए हुए मज़दूरनियों की टोलियाँ’ भी हैं। इन कविताओं में ‘गुदगुदैली माँएँ और पत्नियाँ’ हैं तो ‘बच्चों को थपकियाँ देती मालकिन’ हैं। ‘कुमकुम रेखाचित्रों में निर्वासित साम्राज्ञियाँ’ आनन झलकाती हैं तो ‘तुहिन कोमलता में प्राण समेटे’ ‘रूप देवी’ है। वहीं ‘गुलाबी ब्लाउज़ पहने सुंदर गले की साकार मूर्त हँसती सहेलियाँ’ हैं। उषा के जल में अपनी ‘गोरी देह झिलमिलाती’ नायिका है तो एक ऐसी भी नायिका है जो उषा के नीले जल में नहाने को तत्पर है, पर कवि उसे आग्रहपूर्वक न नहाने की सलाह देता है :

“न पलटना उधर
कि जिधर उषा के जल में
सूर्य का स्तंभ हिल रहा है
न उधर नहाना प्रिये!”2वही, पृष्ठ 125

और वह काली युवती जिसकी हँसी के बाद सड़क सुनसान पड़ी है, झरना उदास है, आसमान को धुँधली-सी बदलियों की शृंखला ने थाम रखा है—सब कुछ ठहर गया है… लगता है कि जैसे समय का चक्र रुक गया है। इस युवती की हँसी ने प्रकृति के संपूर्ण कार्य व्यापार को रोक दिया है। शमशेर इस कविता में सौंदर्य के उस मिथ को तोड़ते हैं, जो यह कहता है कि सौंदर्य गौरवर्ण में ही होता है। स्त्री की इतनी आकृतियों और चित्रों के अलावा शमशेर के काव्य में एक दस-ग्यारह साल की लड़की है जो चाँद से गप्पे लड़ाती है। चाँद की सुंदरता तो जग-ज़ाहिर है, पर इस लड़की ने चाँद के घटने और बढ़ने को बीमारी के रूप में देखा है। शमशेर ने यहाँ बातूनी और अंतर्द्वंद्व में फँसे चरित्र का निर्माण किया है। दस-ग्यारह साल की उम्र… चाँद की हँसी पर जिसका दिल खिंच जाता है और ख़यालों में बेचैनी की लहरें उठने लगती है। परंतु साथ ही :

“जाओ, हटो!
ऐसे इंसान को हम प्यार नहीं करते हैं
मुँह-दिखायी ही फ़क़त
जो मेरा सरवस माँगे
और फिर हाथ न आए।”3वही, पृष्ठ 109

चाँद से बतियाने वाली यह लड़की कुछ-कुछ त्रिलोचन की चंपा जैसी है ‘वाह जी वाह हमको बुद्धू ही निरा समझा है’ और ‘हाय राम! तुम पढ़-लिखकर इतने झूठे हो’ पंक्तियों की टोन देखें। प्रस्तुत कविता में ‘ऐसे इंसान को हम प्यार नहीं करते’ और ‘यह न होता तो’, क़सम से, ‘हम सच कहते हैं—आपसे शादी कर लेते—फ़ौरन में ‘मैं’ की जगह ‘हम’ का प्रयोग कितने सार्थक ढंग से किया गया है। ऐसी ही एक और ‘कन्या’ शीर्षक कविता है। इस कविता की चरित्र की उम्र लगभग यही है—पंद्रह वर्ष से कम की अवस्था। शमशेर ने निस्संग और अकुंठ भाव से इस चरित्र को गढ़ा है। सूरज के झाँकने की क्रिया से कविता की शुरुआत हुई है। सूरज सुबह का है जो अभी साफ़ सामने नहीं आया है, बल्कि वह सूरज गुलाब बनने के सपने के समय में है। फिर सूरज की उस कन्या रूप से तुलन जिसका अल्हड़पन और ऊर्जा और पाकीज़गी सूरज के पास नहीं है। बचपन व वयःसंधि में झूलती किशोरी, उसका उल्लास और उसमें छिपी ऊर्जा को कवि इस तरह चित्रित करता है :

“मगर वह कोमलता
जो किरण को घुला रही थी
धूप को पानी कर रही थी
जो हँस रही थी
वह देवी का गुड़िया रूप
जो आँख झपकाता था
और मक्खन-सी गहरी गुलाबी हथेलियों को
मुँडेर पर टिकाए हुए था
जहाँ उसके नन्हे पवित्र वक्ष
दीवार को कँपा रहे थे
और उसकी आँखों से फूल बरस रहे थे।”4कहीं बहुत दुर से सुन रहा हूँ, शमशेर बहादुर सिंह, पृष्ठ 24, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2012

यहाँ शमशेर का एंद्रियबोध देखिए। किरण को घुलाती, धूप को पानी करती, मक्खन-सी गुलाबी हथेलियों वाली वह किशोरी जिसकी आँखों से फूल बरसते हों… सूरज ऐसा रूप लाता भी कहाँ से! यहाँ एक किशोरी को देखने के सभी प्रचलित प्रतिमानों को कवि ने तोड़ा है। यहाँ कवि में पुरुष दंभ नहीं है।

स्त्री के रूप और देह की एक और दुनिया शमशेर ने निर्मित की है जिसमें ढेरों मांसल बिंब और दैहिक सौंदर्य की अकुंठ अभिव्यक्ति मिलती है। इन कविताओं पर बहुत चर्चा हुई है। नामवर सिंह ने इसे ‘अकुंठ मन से रचा गया शरीर का उत्सव’5होड़ में पराजित काल, शमशेर बहादुर सिंह विशेषांक, संपादक : विष्णु खरे, वर्ष-26, अंक-97, फ़रवरी 2012 कहा है, वहीं विश्वनाथ त्रिपाठी इसे ‘तोड़कर रख देने वाली एंद्रिकता’6वही, पृष्ठ 84 मानते हैं। शमशेर के कवि ने इस सौंदर्य को देखा है, महसूस किया है। याद करें ‘दूसरा सप्तक’ का वक्तव्य : “सुंदरता का अवतार हमारे सामने पल-छिन होता रहता है, अब यह हम पर है, ख़ास तौर से कवियों पर कि हम अपने सामने और चारों ओर की इस अनंत और अपार लीला को कितना अपने अंदर घुला सकते हैं।”7दूसरा सप्तक, अज्ञेय, पृष्ठ 87, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, नवाँ संस्करण 2006 सौंदर्य को पहचानना और फिर उसको भाषा में बाँधना बहुत मुश्किल है। क्योंकि सौंदर्य को कौन देख पाया है, वह आँख कहाँ मिली है जो सृष्टि में व्याप्त सौंदर्य को चीन्ह सके और फिर सौंदर्य को देखने वाली आँख मिल भी जाए तो उस सौंदर्य की अखंडता का बयान करने वाली ज़बान किसे नसीब हुई है? उस अखंडता को वाणी देने वाला कवि कहाँ है?

शमशेर ऐसे ही कवि हैं जिन्होंने सौंदर्य को उसके अनावृत लिबास में भी तर्ज़े-तकल्लुफ़ की एक तहज़ीब बख़्शी; सौंदर्य को सहज भाषा में अनाहत रूप प्रदान किया। शमशेर ने अपनी कविताओं में प्रेम की तीव्रता के साथ-साथ दैहिक सौंदर्य का अद्भुत चित्रण किया है। उनके यहाँ स्त्री-देह और सौंदर्य के प्रति चरम आसक्ति तथा सम्मोहन है।

शमशेर बड़ी विकलता के साथ सुंदरता के निकट आते हैं और स्त्री-देह के एंद्रिक एवं मांसल बिंब सिरजते हैं, लेकिन यहाँ रूप को आँकते भाव-चित्रों व मांसल देहयष्टि के अंकन में भी हृदय की धड़कन मौजूद है। इसलिए इनकी कविताएँ देह-वर्णन के बावजूद रीतिवादियों से बहुत अलग हैं।

दरअसल, पत्नी की बीमारी व अकाल मृत्यु के कारण उनके जीवन में प्रेम और सौंदर्य का अभाव रहा। वह अपनी दिवंगता पत्नी के प्रति आजीवन नॉस्टेल्जिया के भाव में रहे, शमशेर में रूप और देह-तृषा का एक कारण यह अभाव भी है। इस अभाव को शमशेर शिद्दत से महसूस करते हैं। इसलिए उनकी कविताओं में एक आग्रह—प्रेमिका को बुलाने का आग्रह—है। इस आग्रह के स्वर करुणा से भीगे हुए हैं :

“तुम आओ, गर आना है
मेरे दीदों की वीरानी बसाओ;
शे’र में ही तुमको समाना है अगर
ज़िंदगी में आओ, मुजस्सिम…
बहरतौर चली आओ।
यहाँ और नहीं कोई, कहीं भी,
तुम्हीं होगी, अगर आओ;
तुम्हीं होगी अगर आओ, बहरतौर चली आओ अगर।”8कुछ कविताएँ व कुछ और कविताएँ, शमशेर बहादुर सिंह, पृष्ठ 68

अभाव से उपजी आग्रह की यह अनुगूँज उनकी बहुत-सी कविताओं में पसरी है। यह अभाव उस हसरत से उपजा है जो कभी पूरी नहीं हुई। उनकी काव्य-भाषा में शब्दों की किफ़ायत और कंजूसी भी शायद उस अभाव की ही देन है। मौन के प्रति आग्रह और लाघवता के प्रति तीव्र आकर्षण अप्राप्य से उपजे अवसाद का कारण रहा होगा। शायद!

दो

अज़ीज़ लखनवी का एक शे’र है :

“अपने मरकज़ की तरफ़ माइल-ए-परवाज़ था हुस्न
भूलता ही नहीं आलम तिरी अँगड़ाई का”

इस शे’र में सौंदर्य अँगड़ाई का है—सौंदर्य की वह प्यास जो अपनी मंज़िल को ढूँढ़ रही थी, लेकिन पहले मिसरे ने इसे काम-अभिलाषा से संपृक्त होने से बचा लिया। अब रह गया सौंदर्य के बीच से झाँकता अध्यात्म या उस असीम सत्ता की ओर एक इशारा-सा कुछ। इसी सौंदर्य में एक दोहा बिहारी का भी देखें :

“अहे दहेड़ी जिन धरै, जिन तूं लेहि उतारि।
नीके हैं छीके छुवै, ऐसे हि रहि नारि।”9बिहारी का नया मूल्यांकन, बच्चन सिंह, पृष्ठ 40, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पाँचवाँ संस्करण 2008

यहाँ छींके पर दहेड़ी रखने का नायिका का कार्य-व्यापार नायक को प्रिय लग रहा है, इसलिए वह कहता है कि तुम दहेड़ी को छींके पर न रखो और न उतारो। बस छींके को छू रखो। इस स्थिति में रहने से नायक को तनाव के कारण उसके वक्ष का इंद्रियोत्तेजक उभार देखने का शुभ अवसर मिलता रहेगा।

अब शमशेर की निम्नांकित पंक्तियों को इनसे मिलाकर देखिए :

“—सुंदर!
उठाओ
निज वक्ष
और-कस-उभर!”10कुछ कविताएँ व कुछ और कविताएँ, शमशेर बहादुर सिंह, पृष्ठ 138

शमशेर के मन में भी यह शे’र और बिहारी का नायिका चित्रण रहा होगा। ये तीनों चित्रण कितने मिलते हैं, लेकिन विशिष्टता के साथ। शमशेर भी इस स्थिति में दिखाई देने वाले सौंदर्य को खोना नहीं चाहते। वक्ष के सौंदर्य के लिए अनेक बिंबों का सहारा लेते हुए, मुक्त मन से उनके प्रति आकर्षण के स्वीकार भाव के साथ वह एक चित्र तैयार करते हैं, मानो कोई मुसव्विर स्त्री-देह को सुंदर पोज़ देने के लिए अपने वक्ष को उभारने-कसने का निर्देश दे रहा हो।

शमशेर के काव्य में देह का प्रबल आकर्षण है। कुछ और चित्र देखें :

”एक ठोस बदन अष्टधातु का-सा
सचमुच
जंघाएँ दो ठोस दरिया
ठै रे हुए-से
मगर जानता हूँ कि वो
बराबर-बराबर बहुत तेज़
रौ में हैं
ठै रा हुआ-सा मैं हूँ मेरी
दृष्टि एकटक
ठोस वक्ष कपोल उभरे हुए चारों
निमंत्रण देते चैलेंज-सा।”11वही, पृष्ठ 138

या फिर

”तुम्हारा सुडौल बदन एक आबशार है
जिसे मैं एक ही जगह खड़ा देखता हूँ।”12वही, पृष्ठ 100

शमशेर ठोस व मांसल सौंदर्य के मूर्तिकार है। यहाँ स्त्री-देह मानो पहली बार सच्चे अर्थों में अपनी दैहिकता प्राप्त करती है। रीतिकाल के नख-शिख से एकदम अलग। यहाँ सिर्फ़ बदन नहीं, बल्कि ठोस और सुडौल बदन है—गठा हुआ बदन। यदि पत्थर की तराशी हुई ठोस प्रतिमा देखनी हो तो :

“चिकनी चाँदी-सी माटी
वह देह धूप में गीली
लेटी है हँसती-सी।”13काल तुझसे होड़ है मेरी, शमशेर बहादुर सिंह, पृष्ठ 102, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण 2002

वह उसे पाने की लालसा भी करता है, परंतु कविता में एकाध पंक्ति ऐसी आ जाती है जिससे यह धारणा ही धराशायी हो जाती है कि वह किसी स्त्री-देह पर ही लिख रहे हैं।

तीन

दुनिया के अधिकतर कवियों का प्रेम उम्र की प्रौढ़ता के साथ और अधिक गहरा व एंद्रिक होता चला गया है। शमशेर भी इसके अपवाद नहीं है। नामवर सिंह का कहना है, ‘‘विचित्र बात यह है कि उम्र के साथ कवि में प्रेम की यह तीव्रता, पार्थिवता बढ़ती गई है और चढ़ता गया है सघन एंद्रियता का ज्वार। साठ की उम्र के बाद शमशेर ने ज़्यादा अच्छी प्रेम-कविताएँ लिखी हैं।”14प्रतिनिधि कविताएँ, शमशेर बहादुर सिंह, संपादक : नामवर सिंह (भूमिका से) राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, छठी आवृत्ति 2013

शमशेर सौंदर्य को पूरी कंपोजिशन के साथ देखते हैं। हिंदी के आलोचकों ने देह का कवि, सौंदर्य का कवि उनको कहा है फिर भी एक पाठक की हैसियत से शमशेर की रचनाओं के पाठ से गुज़रते हुए मेरे मन में कई बार यह सवाल उठा है कि वह कैसी देह रही होगी जिसकी कोई स्पष्ट सूरत ही नहीं है। न आँखें, न होंठ, न नाक और न ही कोई स्पष्ट रूप छवि। शमशेर की तमाम कविताओं में जो सौंदर्य की मूरतें आई हैं, किसी का कोई स्पष्ट चेहरा नहीं है। कुछ विद्वान शमशेर की इन कविताओं के मूल में प्रभाववाद को मानते हैं। मैं स्वीकार करता हूँ कि शमशेर का अवबोध प्रभाववाद से भी बना था, परंतु जिन कविताओं पर प्रभाववाद की छाया है, उनके अंत में आई यही पंक्तियाँ उलझन भी पैदा करती हैं। इन कविताओं के अंत में जाकर कवि का प्रभाववाद बहुत पीछे छूट जाता है और वह अदृश्य एवं रहस्यमय सत्ता की ओर संकेत करते जान पड़ते हैं। क्या कारण है कि शमशेर की कविताओं में जैसे-जैसे ठोस और सुडौल बदन वाली स्त्री चित्रण बढ़ता गया उसके साथ ही साथ वह प्रेम को परिभाषित भी करते गए। प्रेम का हर बार नया अनुभव-विधान, सबसे पहले कवि का दावा :

“चुका भी हूँ नहीं मैं
कहाँ किया मैंने प्रेम
अभी।
जब करूँगा प्रेम
पिघल उठेंगे
युगों के भूधर।”15चुका भी हूँ नहीं मैं, शमशेर बहादुर सिंह, पृष्ठ 103, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय आवृत्ति 1975

प्रेम में युगों के भूधर पिघलाने वाले कवि के लिए प्रेम ही सौंदर्य हो जाता है। वह सौंदर्य कैसा है। हाथ उठाकर देखने मात्र से ‘एक सोने की घाटी का उड़ चलना’ और आँख भर देखने से ‘एक सहस्रदली कमल का होंठों से दिशाओं को छूने लगना’ …पवित्रता का यह आलोक क्या महज़ देह से संबंध रखने वाला मात्र है। कहीं ऐसा तो नहीं कि कवि सौंदर्य के माध्यम से किसी अनकहे सच को उद्घाटित करना चाहता है! प्रेम की चरम अवस्था में पहुँचकर कवि कबीर का गूँगापन (‘गूँगे केरि सर्करा’) पा लेता है। शमशेर की बहुत-सी कविताओं में मौन पसरा है। यह मौन उस ‘गूँगेपन’ की एवज़ी ही हैं। कवि जब स्व को पा लेता है तो उसके पास बोलने के लिए वैसे भी कुछ नहीं बचता। अज्ञेय की एक कविता की पंक्तियाँ हैं :

‘‘खोया-पाया, मैला उजला
दिन-दिन होता जाता वयस्क
दिन-दिन धुँधलाती आँखों से
सुस्पष्ट देखता जाता था;
पहचान रहा था रूप,
पा रहा वाणी और बूझता शब्द,
पर दिन-दिन अधिकाधिक हकलाता था :
दिन-दिन पर उसकी घिग्घी बँधती जाती थी।”16आँगन के पार द्वार, अज्ञेय, पृष्ठ 9, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पंद्रहवा संस्करण 2008

कवि की भाषा ऐसी हो जाती है जैसी पेड़-पौधों और नदियों में लहरों की होती है। ऐसी स्थिति में कवि अपने अस्तित्व को खो देना चाहता है :

“ऐसा लगता है जैसे
तुम चारों तरफ़ से मुझसे लिपटी हुई हो
मैं तुम्हारे व्यक्तित्व के मुख में
आनंद का स्थायी ग्रास…हूँ।”17काल तुझसे होड़ है मेरी, शमशेर बहादुर सिंह, पृष्ठ 103, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण 2002

अपने वजूद को फ़ना कर देने वाली यह कैफ़ियत कुछ-कुछ सूफ़ी-दरवेशों जैसी है। अब उन कविताओं जो उद्दाम मांसलता और एंद्रिकता के लिए जानी जाती हैं, के उन हिस्सों की बात करें जिनको सामान्यतः उद्धृत नहीं किया जाता। ये उद्धरण उन्हीं कविताओं से लिए गए हैं, जिन कविताओं के कुछ हिस्सों को अपने पूरे संदर्भ से काटकर बहु उद्धृत किया जाता रहा है और पाठकों के सामने अधूरे शमशेर को पेश किया जाता रहा है। इन कविताओं में कवि सघन मांसलता के बिंब तैयार करता है, लेकिन उसी बीच कुछ पंक्तियाँ जहाँ-तहाँ ऐसी चमक जातीं हैं जो किसी बड़े सच या सृष्टि के अद्भुत रहस्य का भेद खोलती हुई प्रतीत होती है। ये पंक्तियाँ सौंदर्य की ख़ुमारी के विस्तार को भंग करती है (शायद!) और आस्था और आध्यात्मिकता के आयाम को सर्जनात्मकता का रंग देकर सौंदर्य के माध्यम से किसी और असीम सत्ता की ओर संकेत करती है। शायद उनकी अर्थ-छायाएँ कहीं ओर चली जाती हैं। देखें :

“चरण
है वहीं मगर दरअसल हैं नहीं वहाँ
वो उस अष्टधातु की मूर्ति को
कहीं लिए जा रहे हैं
शायद
मेरे व्यक्तित्व के अदृश्य सागर की ओर।”18वही, पृष्ठ 105

यह व्यक्तित्व का सागर कहाँ है? कवि ठोस बदन अष्टधातु की मूर्ति के किस लोक की ओर ले जाने की बात कर रहा है? और ‘एक मुद्रा से’ में :

”स्वप्न-जड़ित-मुद्रामयि
शिथिल करुण!
हरो मोह-ताप, समुद
स्मर-उर वर :
हरो मोह-ताप—
और कस उभर!”19कुछ कविताएँ व कुछ और कविताएँ, शमशेर बहादुर सिंह, पृष्ठ 138

भाव के स्तर पर वैष्णव भक्तों से समता रखने वाली यह शब्दावली किस ओर संकेत करती है! शमशेर ने वक्षों के उभार से अपनी बात की शुरुआत की है, लेकिन कविता के अंत में आते-आते वह वैष्णवों की बोली बोलने लगते हैं। औघड़ सूफ़ियों की-सी बानी! दृश्यमान सौंदर्य से द्रष्ट्यातीत सौंदर्य की ओर एक विराट प्रतीति का भाव जगाते हुए! एक और उदाहरण देखें :

“कहाँ शरीर त्वचा केश
अधर वक्ष जंघा—
ये केवल आवरण सघनतम
रूपार्थ के आवरण।”20चुका भी हूँ नहीं मैं, शमशेर बहादुर सिंह, पृष्ठ 73

गोल से गोल वक्ष, बिंबाधर जहाँ अंगारे जलते प्रतीत हो रहे हैं, कटि प्रदेश, गोरे पारद के दरिया-सी वे जंघाएँ, केश… जहाँ रात के जादू का प्रवेश होता है—ऐसी देह… जो सुंदरता का निकष है, कविता के अंत में आकर कहाँ खो जाती है! आर्टिस्ट कौन-सी सत्ता की प्रतीक्षा में है! उसके कैनवास को किसका इंतज़ार है! रंजना अरगड़े ने एक जगह लिखा है, “शमशेर भीतर से गहरे तक कहीं आध्यात्मिक थे। संपूर्ण रचना रूप भी अंदर-बाहर से ऐसा ही था। आज तक मार्क्सवाद और रूपवाद की लड़ाई में उनकी असली कविता मानो हमारे हाथों से निकल गई।’’21कहीं बहुत दूर से सुन रहा हूँ, शमशेर बहादुर सिंह, भूमिका से। रंजना अरगड़े के इस वक्तव्य की सत्यता का मैं दावा नहीं करता, परंतु शमशेर की कविताओं से गुज़रते हुए मैंने ऐसा महसूस किया है कि उनकी रचनाओं में किसी स्त्री (या प्रेमिका) की कोई सूरत नहीं है, कोई स्पष्ट चेहरा नहीं है। वहाँ एक रहस्य का भाव है। इस संपूर्ण जगत में सिर्फ़ विराट सत्ता ही अगम-अगोचर और अदृश्य सत्ता है जिसकी कोई मुकम्मल सूरत नहीं है। वहीं विराट सत्ता में एक रहस्य का भाव भी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि कवि उस असीम/विराट सत्ता की ओर संकेत कर रहा हो। प्रेम को पारिभाषित करते हुए और उसका निर्वाह करते हुए कवि का गूँगा/भाषाहीन हो जाना—सूफ़ियों की-सी तड़प का एहसास कराता है। इस पर भी अलग से विचार किया जाना चाहिए। शमशेर की कविताओं से गुज़रना भी एक कैफ़ियत है—इश्क, जुनूँ और बेख़बरी की कविता के लिए सिराज औरंगाबादी का यह शे’र कितना मौज़ूँ हैं :

‘‘ख़बर-ए-तहय्युर-ए-इश्क़22इश्क़ की विस्मयकारिता का हाल सुन न जुनूँ रहा न परी रही
न तो तू रहा न तो मैं रहा जो रही सो बे-ख़बरी रही’’

उद्धरण/संदर्भ :

  1. कुछ कविताएँ व कुछ और कविताएँ, शमशेर बहादुर सिंह, पृष्ठ 64, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरी आवृत्ति 2004
  2. वही, पृष्ठ 125
  3. वही, पृष्ठ 109
  4. कहीं बहुत दुर से सुन रहा हूँ, शमशेर बहादुर सिंह, पृष्ठ 24, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2012
  5. होड़ में पराजित काल, शमशेर बहादुर सिंह विशेषांक, संपादक : विष्णु खरे, वर्ष-26, अंक-97, फ़रवरी 2012
  6. वही, पृष्ठ 84
  7. दूसरा सप्तक, अज्ञेय, पृष्ठ 87, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, नवाँ संस्करण 2006
  8. कुछ कविताएँ व कुछ और कविताएँ, शमशेर बहादुर सिंह, पृष्ठ 68
  9. बिहारी का नया मूल्यांकन, बच्चन सिंह, पृष्ठ 40, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पाँचवाँ संस्करण 2008
  10. कुछ कविताएँ व कुछ और कविताएँ, शमशेर बहादुर सिंह, पृष्ठ 138
  11. वही, पृष्ठ 138
  12. वही, पृष्ठ 100
  13. काल तुझसे होड़ है मेरी, शमशेर बहादुर सिंह, पृष्ठ 102, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण 2002
  14. प्रतिनिधि कविताएँ, शमशेर बहादुर सिंह, संपादक : नामवर सिंह (भूमिका से) राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, छठी आवृत्ति 2013
  15. चुका भी हूँ नहीं मैं, शमशेर बहादुर सिंह, पृष्ठ 103, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय आवृत्ति 1975
  16. आँगन के पार द्वार, अज्ञेय, पृष्ठ 9, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पंद्रहवा संस्करण 2008
  17. काल तुझसे होड़ है मेरी, शमशेर बहादुर सिंह, पृष्ठ 103, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण 2002
  18. वही, पृष्ठ 105
  19. कुछ कविताएँ व कुछ और कविताएँ, शमशेर बहादुर सिंह, पृष्ठ 138
  20. चुका भी हूँ नहीं मैं, शमशेर बहादुर सिंह, पृष्ठ 73
  21. कहीं बहुत दूर से सुन रहा हूँ, शमशेर बहादुर सिंह, भूमिका से।

***

देवीलाल गोदारा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में हिंदी साहित्य और कविता का अध्ययन कर रहे हैं। उनसे devilalgodara012@gmail.com पर बात की जा सकती है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 21वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।

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