मंदाक्रांता सेन की कविताएँ ::
बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी

मंदाक्रांता सेन

बेड़ियाँ

बीच-बीच में
निरर्थक उपमाओं की तरह
बज उठते हैं ये दिन,
भयानक जलन लिए
मुँह फेरकर
मैं उनके पास बैठी रहती हूँ
कमज़ोर बिल्लियों की तरह ये दिन
दिन-रात मेरे पैरों को छूते भटकते रहते हैं
सिर के भीतर एक गुप्त कॉरिडोर से
किन्हीं अदृश्य बेड़ियों की
झनझनाहट सुनाई देती है…

जब भी ऐसा होता है तो
मुझे बाथरूम में छिप जाना पड़ता है
असल में पानी को ही तो
पता होती है पानी की उपमा
दीवार पर टँगे आईने में
नग्नता को मैं नग्नता की ही आँखों से देखती हूँ
इन सबसे थोड़ी राहत मिलती है,
दो-एक दिन बाद
पैरों को घसीटकर चलते
क़ैदियों के तलुवों के घावों में
फिर से पानी लगता है और
पानी की तरह जलन होने लगती है।

स्वप्नरूपेण

मुझे विश्वास है कि तुम कर सकती हो।

तुमने निहायत सस्ती
सिंथेटिक साड़ी पहन रखी थी
हाथ में था प्लास्टिक का गुलाबी पैकेट
कलाई में केवल शाखा-पला1विशेष प्रकार के कड़े, जिन्हें बंगाल की सधवा स्त्रियाँ सुहाग की निशानी के तौर पर पहनती हैं। और घिस चुकी हवाई चप्पल पैरों में
लगता है तुम्हें सेफ़्टी-पिन बहुत पसंद है
लगता है तुमने कुछ और पसंद करने के बारे में
कभी सोचा ही नहीं।

समझ में आ जाता है कि
तुम विज्ञान नहीं जानती, कविता भी नहीं,
गाना या कि अल्पना रचना भी तुम्हें नहीं आता
(जो ये सब जानते हैं, वे कुछ तो उजले दिखते हैं)
तुममें चमक नहीं, चेहरे की त्वचा खुरदुरी।

यहाँ तक कि टिकिट लेकर
खुल्ले पैसों का हिसाब तक नहीं कर पातीं
कंडक्टर धमक देता है।

तुम्हारे चेहरे पर उभर आता है आतंक
और फटे होंठों पर अर्थहीन हँसी।
सब तुम्हें सता रहे थे
और किसी तरह तुम बस से उतर पाईं
अच्छा कहो, अब तुम क्या करोगी? घर जाओगी?
तुम्हारा पति घर पर नहीं है
बच्चे भी नहीं, अच्छा-बुरा खाना बनाओगी कुछ?
वह भी तुम्हें शायद ठीक से नहीं आता!
तेल नहीं है, केवल दो आलू पड़े हैं
यह सब कहने से क्या होता है!
जो क़ाबिल हैं, अन्नपूर्णा,
वे दाल-भात को भी अमृत बना देती हैं
रात ढलने पर एक-एक कर
तुम्हारा संसार घर लौट आया
खाना हुआ और सोने का इंतज़ाम भी
मिलन भी हुआ और तुम कुछ भी नहीं कर सकीं।

फिर आधी रात को तुमने
पति और संतानों के चेहरों को
चुपके से छुआ
और वे स्वप्न में नीले पड़ गए।

मैंने कहा था तुम कर सकती हो
बस किसी ने इस पर विश्वास नहीं किया।

पार्थिव

ईश्वर से प्रेम के चक्कर में
मैं तो देवी बन ही गई थी!
जब तुम आए तो कितनी
इंसानी गंध थी तुम्हारी देह में
और तब पद्म-पलाश थे मेरे नाख़ून
जिन्हें तुम्हारी छाती में गड़ाना चाहती थी
लेकिन वे नहीं बिंध रहे थे
मेरे होंठों पर अमृत-मलाई की मोटी परत थी
तीन दिन शेव न किए गालों पर
रगड़ते ही लौट आई छिपी हुई धार
फिर भी मैंने कहा कि ज़रा बैठो
मैं मंदिर में दिया दिखा आती हूँ।

लेकिन तब धधकती शिखा थे मेरे नाख़ून
संध्या-बाती के वक़्त उछलकर
ईश्वर के बहुत क़रीब जा गिरे,
मैंने देखा—जलने लगा उनका उत्तरीय
दिखाई दिया उनका दमकता चेहरा
बोले :
हिलो मत, डरो नहीं, थिर रहो।
… लेकिन मैं सचमुच की देवी तो थी नहीं
अब तुम ही बताओ
मुझे भला क्यों डर न लगता!
मैंने खींच-खींच कर उखाड़ दिए
जलते हुए सारे नाख़ून
फिर साँस खींचकर निकली बाहर
और बेतहाशा लगा दी दौड़
एक सौ आठ सीढ़ियाँ उतर
पार कर तोरण द्वार—
अपने पूरे अतीत समेत
धू-धू जल रहा था स्वर्ग…

ईश्वर का घर फूँक देने का पाप
मैं आज भी वहन कर रही हूँ;
लेकिन मैं किसी भी हालत में देवी नहीं बनी
यक़ीन करो मैं देवी क़तई नहीं बनी
यह देखो, फटे हुए हैं मेरी हर उँगली के सिरे
नाख़ूनों की जगह हैं बजबजाते घाव
ख़ैर होने दो, ओ पार्थिव लड़के
तुम्हारी नग्न छाती में है वनौषधि
वहाँ, सोई हुई घास से
क्या तुम मुझे अपना ख़ून नहीं पोंछने दोगे?

रास्ता

तुम्हारी आँखों में
एक लंबा रास्ता ठिठका हुआ है
इतने दिनों तक मैं उसे नहीं देख सकी
आज जैसे ही तुमने नज़रें घुमाईं
मुझे दिखाई दे गया वह रास्ता।

बीच-बीच में तकलीफ़ झेलते मोड़
रास्ते के दोनों ओर थे मैदान
फ़सलों से भरे खेत
वे भी जाने कब से ठिठके हुए थे
यह सब तुम्हें ठीक से याद नहीं था
आँखों के भीतर एक रास्ता पड़ा हुआ था
सुनसान और जनहीन।

दूसरी ओर
कई योजन तक ज़मीन पर फैला हुआ था पानी
वहाँ रास्ता भी व्यर्थ की आकांक्षा जैसा मालूम होता था
कँटीली झाड़ियाँ थीं और नमक से भरी थी रेत,
कहीं पर भी ज़रा-सी भी छाया नहीं थी
इन सबको पार कर जो आया है
क्या तुम उसे पहचानते हो?
वह अगर कभी भी राह न ढूँढ़ पाए
तो क्या तुम उससे नहीं कहोगे
कि तुम्हारी आँखों में एक रास्ता है
जो उसका इंतज़ार कर रहा है?

मंदाक्रांता सेन (जन्म : 1972) सुपरिचित बांग्ला कवयित्री और कथाकार हैं। उत्पल बैनर्जी से परिचय के लिए यहाँ देखें : हट जाए परिचित निर्वासननिभृत प्राणों के देवताबारिश होने पर

1 Comment

  1. रवी वर्मा अगस्त 30, 2020 at 6:21 पूर्वाह्न

    मंदाक्रांता सेन जी की कविताओं ने मन छू लिया। स्वप्नरूपेण, पार्थिव को कई बार पढ़ा।

    Reply

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