निज़ार कब्बानी की कविताएं ::
अनुवाद : योगेंद्र गौतम

Nizar Qabbani photo
निज़ार कब्बानी

कला का एक पाठ

मेरा बेटा अपना रंगों का बक्सा मेरे सामने रखता है
और मुझे कहता है उसके लिए एक चिड़िया बनाने को…
मैं सलेटी रंग में ब्रश डुबाता हूं
और एक चौकोर खाना बना देता हूं— तालों और सलाखों के साथ.
उसकी आंखों में आश्चर्य भर जाता है—
‘‘…लेकिन यह कैदखाना है, पिता,
क्या तुम्हें चिड़िया बनाना नहीं आता?”
और मैं उसे बताता हूं—
‘‘बच्चे, मुझे माफ करना
मैं चिड़ियों की बनावट भूल गया हूं.”

मेरा बेटा चित्रकला की किताब मेरे सामने रखता है
और मुझे कहता है गेहूं की डंठल बनाने को…
मैं कलम पकड़ता हूं और
एक बंदूक बना देता हूं.
मेरा बेटा मेरी नासमझी का
यह कहते हुए उपहास करता है—
‘‘पिता, तुम्हें गेहूं की डंठल और बंदूक का फर्क नहीं पता?”
मैं उससे कहता हूं—
‘‘बच्चे,
एक समय था जब मुझे गेहूं की डंठलों की बनावट पता थी
रोटी की बनावट पता थी
गुलाब की बनावट पता थी
किंतु इस कठिन समय में
जंगल के पेड़
नगर सैनिकों में शामिल हो गए हैं
और गुलाबों ने ओढ़ ली हैं धूसर सैन्य वर्दियां,
सशस्त्र गेहूं की डंठलों
सशस्त्र चिड़ियों
सशस्त्र संस्कृति
और सशस्त्र धर्म के इस समय में
तुम रोटी नहीं खरीद सकते
बिना इसके भीतर बंदूक पाए,
तुम मैदान से कोई गुलाब नहीं तोड़ सकते
बगैर उसके कांटे अपने चेहरे में उगाए,
तुम कोई किताब नहीं खरीद सकते
जो तुम्हारी उंगलियों के बीच फट न पड़े…”

मेरा बेटा मेरे बिस्तर के किनारे बैठता है
और मुझसे कहता है एक कविता सुनाने के लिए,
एक आंसू मेरी आंख से तकिए पर ढुलक पड़ता है
मेरा बेटा उसका आस्वादन करते चकित होकर कहता है—
‘‘लेकिन यह एक आंसू है, पिता, कविता नहीं!”
और मैं उसे बताता हूं—
‘‘जब तुम बड़े हो जाओगे, मेरे बच्चे,
और अरबी शाइरी के दीवान पढ़ोगे
तो तुम जानोगे कि शब्द और आंसू जुड़वां हैं
और अरबी शाइरी एक आंसू ही है,
उन्हें लिखती हुई उंगलियों से ढुलका हुआ.”

मेरा बेटा अपना कलम, अपना रंगों का बक्सा
मेरे सामने ही रख देता है
और मुझसे कहता है उसके लिए मातृभूमि बनाने को.
ब्रश मेरे हाथों में कांपता है
और मैं रोते हुए दफन हो जाता हूं…

मैं विश्व जीतता हूं शब्दों से

मैं विश्व जीतता हूं शब्दों से,
मातृ-भाषा जीतता हूं,
क्रियाएं, संज्ञाएं, वाक्य-विन्यास…
मैं चीजों की शुरुआत मिटा देता हूं
और एक नई भाषा के साथ,
मैं आने वाली पीढ़ी को प्रकाशित करता हूं
जिसमें जल का संगीत है आग का संदेश,
और तुम्हारी आंखों में समय रोक लेता हूं
और उस लकीर को पोंछ देता हूं
जो समय को इस इकलौते क्षण से विलग करती है.

***

निज़ार कब्बानी (21 मार्च 1923–30 अप्रैल 1998) अरबी भाषा के सुप्रसिद्ध कवि हैं. यहां प्रस्तुत कविताएं अंग्रेजी से अनूदित हैं और ‘पोएम हंटर’ से ली गई है. योगेंद्र गौतम ने इधर अपने कवि और अनुवाद-कर्म से ध्यान खींचा है. उनसे yogendragautam567@gmail.com पर बात की जा सकती है.

1 Comment

  1. Pooja Priyamvada नवम्बर 24, 2018 at 12:59 अपराह्न

    Khoobsurati se kia hua sashakt anuvaad

    Reply

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