नज़्में ::
शारिक़ कैफ़ी

समझ से परे
किसी की इक झलक भर देखने के वास्ते
रोज़ाना
सत्तर मील का लंबा सफ़र करना
मुहब्बत की ये शायद इंतिहा थी
मगर जाता था उस बस से
ज़्यादा लड़कियाँ होती थीं जिसमें।
आज़ादी
गला बैठ जाने के डर से कभी
एक अंगूर चक्खा नहीं
ब्रांड सिगरेट का बदला नहीं
सींक पर जल गए मेरे हिस्से के सारे कबाब
फिर भी सबसे बड़ा ख़ौफ़ सच हो गया
ख़ैर जो भी हुआ
अब मैं आज़ाद हूँ
आज फ्रूटी पीऊँगा
गले की सिकाई के बाद
आज फ्रूटी पीऊँगा
अब ये वहम
एहतियातन ये डर
उनके सर
जिनकी बीमारियाँ
छप के काग़ज़ पे आई नहीं हैं अभी।
अस्ल ख़तरा
नहीं ये मुमकिन नहीं
ये सब कार-ए- राएगाँ है
कहाँ से लाएँगे हम भला इतनी घंटियाँ
जितनी बिल्लियाँ हैं
मैं एक बूढ़ा उदास चूहा
बस इतना कहकर तमाम करता हूँ बात अपनी
वो सिर्फ़ बिल्ली नहीं जिसे हमको देखना है
वो ऐसा ख़तरा नहीं है शायद
कि उसकी हर चाल से तो हम फिर भी आशना हैं
मगर वो चूहा
गले में घंटी जो डाल कर
आईने के आगे खड़ा हुआ है
जो एक तमग़े की शक्ल में इसको देखता है
वो अस्ल ख़तरा है
जिसका रखना है ख़याल हमको
हज़ार ख़ूँ-ख़्वार बिल्लियों की है रूह उसमें।
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शारिक़ कैफ़ी (जन्म : 2 नवंबर 1961) उर्दू के आधुनिक शाइरों में से एक हैं। यहाँ प्रस्तुत नज़्में उर्दू से हिंदी में उन्होंने ख़ुद लिप्यंतरित की हैं। वह बरेली (उत्तर प्रदेश) में रहते हैं। उनसे [email protected] पर बात की जा सकती है।