व्यंग्य ::
प्रचण्ड प्रवीर

प्रगतिशीलता के प्रकार

कल की बात है। जैसे ही मैंने पार्क में क़दम रखा, सामने से कुछ साहित्यकारी पर्यटक लोग आते दिखाई पड़ गए। उनमें एक प्रगतिशील लेखिका थीं, जिन्हें हमारे पड़ोसियों समेत सभी बुआजी कहते हैं। हज़ारों की भीड़ में भी हिंदी साहित्यकार अलग से पहचान में आ जाते हैं। जिन्हें जानकारी नहीं है उनके लिए हम बता देना चाहते हैं कि ‘चिर युवा’ कहलाने के अलावा इनके दो लक्षण होते हैं। पहले तो अपने प्रति लापरवाही, जिसे आज के शब्दों में ‘केयरलेस ब्यूटी’ से नवाज़ा जाता है। मतलब हजामत नहीं बनी रहेगी। कपड़े धुले भी नहीं रहेंगे। बाल इधर से उधर उड़ रहे होंगे। दूसरा लक्षण इनकी वाणी में दिखता है। हर दो-तीन पंक्ति के बाद क्रांति-क्रांति की ज्वाला जला देंगे। एक साँस में व्यवस्था, सरकार और सामाजिक सरोकार, साहित्य और साहित्यकार, पत्र और पत्रकार, कला और कलाकार को गाली देने का विलक्षण सामर्थ्य और असाधारण क्षमता से लैश! हैबरमास से हाइडेगर तक, ट्रॉत्स्की से चोम्स्की तक बातें करते हुए बेर्टोल्ट ब्रेष्ट को लेकर एकदम सख़्त हो जाना, इनकी ख़ासियत होती है। ऐसे-ऐसे नाम ऐसे-ऐसे उच्चारण के साथ उद्धृत करेंगे कि उसे समझना तो दूर, दुबारा बोलना भी बेहद मुश्किल।

साहित्यकारी पर्यटक दो प्रकार के होते हैं। पहले केंद्रीय सत्ता वाले (मसलन दिल्ली वाले, इलाहाबाद वाले, बनारस वाले, भोपाल वाले) जो कि केंद्र से निकलकर दूर-दराज़ साहित्य की मशाल जलाते हैं। दूसरे विकेंद्रित कविगण, जो कि केंद्र में यदा-कदा आकर अपनी पैठ बनाना चाहते हैं। वे जनवादी होते हैं और लोकतांत्रिक और प्रगतिशील तो निश्चित तौर पर ही होते हैं। केंद्रीय पर्यटकों की रचनाएँ केंद्रीय पत्रिकाओं में, विकेंद्रित पर्यटकों की रचनाएँ अख़बारों में, पत्रिकाओं में, जुलूसों में, मुशायरे में, कवि-सम्मेलनों में, मेलों में ठेलों पर खड़े होकर पढ़ी जाती हैं। ये विकेंद्रित साहित्यिक पर्यटक थे। ऐसे में कंधे पर खादी का झोला लटकाए हुए बुआजी के हवाई चप्पलों से सुशोभित पैरों को छूकर प्रणाम किया। बुआ जी ने आशीर्वचन देते हुए कहा, ”जीते रहो।” फिर सीधे सवाल किया कि तुमने हमारा वेबिनार देखा या नहीं? हमने क्षमा माँगी और बताया कि सूचना और समय के अभाव में नहीं देख पाया। वैसे विषय क्या था?

“छंद और आज की कविता!” उन्होंने बताया।

अब ताज़ा हालात यह है कि कोरोना काल में छंद और उसकी उपयोगिता, फ़ाशीवाद और कलावाद को लेकर कुछ महायुद्ध हो चुके हैं जिसका ब्योरा हिंदी के समकालीन इतिहासकारों के पास प्रामाणिक रूप से मौजूद है। समकालीन इतिहास के युद्ध में किसी की हार हुई, किसकी जीत हुई, यह प्रश्न नहीं रह जाता है। मुद्दा यह है कि युद्ध में कितने वीर हताहत हुए! कितनों को कितनी सार्वजनिक गालियाँ पड़ीं! कितनों के समर्थन में किन्नर आए, कितनों के समर्थन में वानर आए! अलंकारप्रेमी साहित्यकर्मी इन बारीक मुआमलों पर बहुत ग़ौर फ़रमाते हैं और फिर चटखारे लेकर दूसरों को सुनाते हैं। इसमें कुछ रस-विरोधी लोग रस लेते भी हैं जो बाद में यह कहते हुए पाए जाते हैं कि यह रस नहीं है, क्योंकि भरतमुनि के अनुसार ‘निंदा’ कोई रस होता ही नहीं!

हमारे पास मुद्दा यह था कि बुआजी तो छंद में निष्णात हैं और प्रगतिशील भी हैं। वह कैसे? हमने अपनी शंका ज़ाहिर की। उन्होंने कहा, “हर नास्तिक बौद्ध नहीं होता। वहीं कुछ आस्तिक बौद्ध हो भी सकते हैं। कुछ ईश्वर में विश्वास करने वाले मार्क्सवादी भी हो सकते हैं। यह जो विरोधाभास तुम्हें प्रतीत हो रहा है, वहीं से जीवन का गूढ़ रहस्य खुलता है। अभी-अभी बेंगलुरु से देश के जाने-माने 170 हिंदी कवियों की कविताओं का संकलन छपा है। उसमें कोरोना पर मेरी भी एक चौपाई छपी है। चौपाई समझते हो ना, जिसमें ‘रामचरितमानस’ लिखा हुआ है? उसी चौपाई में। आख़िर कैसे संभव हुआ यह? सोचो?’’

पड़ोसी के सौजन्य से सुनने में यह भी आया था कि बुआजी के जीजाजी छंद के बड़े विद्वान थे, तो हमने पूछ लिया कि बुआजी, कहीं ऐसा तो नहीं कि आपने छंद की शिक्षा अपने जीजाजी से पाई? बुआजी सुनकर बिदक गईं। अपने साथियों को सुनाकर बोलीं, ‘‘ऐ रामेश्वरजी, ऐ मनोहरजी, सुनिए इस छोकरे को। इसके आरोप का खंडन करना अति आवश्यक हो गया है। जान लो, हमें किसी ने कुछ नहीं सिखाया। यह सब ‘गॉड गिफ़्टेड’ है, भगवान की देन। अब सत्तर साल की उमर हो गई मेरी। साठ साल पुरानी बात बताते हैं तुम्हें। सुनो! हमारे बड़का भैया और छोटका भैया हमसे पूछते थे कि बड़ा होकर क्या बनोगी? हमारी सहेलियाँ बोलती थीं—डॉक्टर, इंजीनियर। हम बोलते थे कवि। यह सुनकर हमको दूष दिया जाता था। भैया लोगों ने कहा, ‘यह मुँह और मसूर की दाल!’ कवि बनना बच्चों का खेल नहीं है। आज देखो, राष्ट्रीय स्तर की ख्याति मिल ही गई है। अब विदेश में अपना नाम चमकाना बाक़ी है। वहाँ भी काम शुरू ही कर दिए हैं। यू-ट्यूब पर मेरा दो-दो वीडियो है और वेबिनार पर हम लगातार आते ही रहते हैं। इसके अलावा स्लोगन प्रतियोगिता में भी हमको पहला पुरस्कार मिला है। अब हम पुरस्कार लेने से मना तो कर नहीं सकते हैं, इसलिए ले लेते हैं।’’

रामेश्वरजी और मनोहरजी ने भी अपनी ताम्बूलरंजित दंतपंक्तियों से उनकी हाँ में हाँ मिलाकर कहा, “पुरस्कार प्रतीक है। किसका? सम्मान का, साधना का और कीर्तिमान का। इसलिए हम कहते हैं कि न मिले तो हासिल कर लेना चाहिए। साहित्य-संसार में पुरस्कार असमानता लाते हैं। सर्वहारा लेखकों को कोई पुरस्कार नहीं मिलता।’’

बुआजी ने आगे कहना शुरू किया, ‘‘अब देश के बाहर विजय पताका फैलाना बाक़ी है। तुम्हें मालूम नहीं होगा पर जानकारी के लिए बता देते हैं। हमारी कविताओं का जर्मन भाषा में अनुवाद हो चुका है। एक कनाडाई मैगज़ीन में भी मेरी कविता अनूदित हो चुकी हैं। दिल्ली में लोग हमें नहीं जानते, क्योंकि दिल्ली धृतराष्ट्र का प्रतीक है। यहाँ के लोग अंधे हैं। दरअसल, हमने ही छंद और परंपरा को बढ़ाया है और कवित्त को इतना आगे बढ़ाया है कि वह भारत की सीमा लाँघ गया है और विदेशों में पहुँच गया है।’’

“फिर आप प्रगतिशील कैसे हुईं बुआजी?” मैंने पूछा।

“प्रगतिशीलता बहुत तरीक़े से होती है। अभी देखो, राष्ट्रीय स्तर की स्लोगन प्रतियोगिता में मुझे प्रथम पुरस्कार मिला है—आल्हा छंद में लिखने के कारण। प्रगतिशीलता विषय से होती है, लहजे से नहीं। अब देखो—यू-ट्यूब पर मेरा दो-दो वीडियो है। है कि नहीं? यह प्रगति हुई या नहीं? हर दूसरे तीसरे दिन हमको वेबिनार पर आना पड़ता है। अब व्यस्तता के कारण मना करने लगी हूँ। श्रोताओं के संख्या की प्रगति क्या प्रगति नहीं है?’’

हम अभिभूत होकर बोले, ‘‘बुआजी, आप ही हमारी संस्कृति और भाषा की ध्वजावाहक हैं।’’

बुआजी बोली, ‘‘सब सरस्वती माता की कृपा है कि हम उनके नाम की जलेबी खा रहे हैं। कर वे रही हैं और नाम हमारा हो रहा है। लेकिन यह भी तो माता का आशीर्वाद ही है, सो ले लेना चाहिए।’’

रामेश्वरजी ने मनोहरजी को देखकर कहा, “युवा कवि हैं हम लोग। अभी ख़ुशी नहीं मनाएँगे तो क्या बुढ़ापे में मनाएँगे?!

ख़ुशियों के दिन मनाए जा, दिल के तराने गाए जा
तुझको जवानी की क़सम, दिल की लगी बुझाए जा
दुनिया मेरी बसाए जा, आजा पिया, आजा पिया
अभी तो मै जवान हूँ, अभी तो मैं जवान हूँ,
अभी तो मै जवान हूँ, अभी तो मैं जवान हूँ
अभी तो मै जवान हूँ, अभी तो मैं जवान हूँ

प्रचण्ड प्रवीर हिंदी कथाकार और अनुवादक हैं। हाल ही में उनकी कहानियों के दो संग्रह ‘उत्तरायण‘ और ‘दक्षिणायन’ शीर्षक से प्रकाशित हुए हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व प्रकाशित उनके काम के लिए यहाँ देखें : भिन्नकहीं ऐसी बातें भी की जाती हैंफूल खिलाती बहार, मृत्यु पर और चंद्रमा

इस प्रस्तुति की फ़ीचर्ड इमेज़ : The Sinner

1 Comment

  1. Sneha जुलाई 3, 2020 at 11:14 पूर्वाह्न

    Samsamyik vishay aur behtarin prastuti..sadhuvaad!

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