गद्य ::
शिव कुमार गांधी

शिव कुमार गांधी

लीनी की डायरी

एक

सोमवार की शाम में खेलने जाने से पहले मैं सोचती रही बस सोचती ही रही कि सड़क सफ़ेद रंग की कैसे हो सकती है? और वह भी पानी में?

मुझे कल सपना आया था कि मैं घर के पास वाले पोखर के पास खड़ी हूँ और पोखर के पानी के अंदर मुझे सफ़ेद रंग की सड़क दिख रही है, वहाँ एक साइकिल भी है जिसे शायद मैं कुछ-कुछ ठीक कर रही हूँ। हाँ ऐसा था कि मुझे साइकिल चलानी है।

मतलब कि पोखर के पानी में जो सफ़ेद सड़क दिख रही है, उस पर साइकिल चलाने के लिए उसे ठीक करती हुई मैं लीनी। जिसको कि पोखर के पास खड़ी मैं लीनी देख रही है। मैं दो-दो लीनी… और ऊपर से यह कि दो लीनी को एक सोती हुई मैं लीनी सपने में देख रही थी। मतलब कि मैं तीन लीनी हुई।

बस यही अचरज था।
एक जो सोते हुए सपना देख रही है।
दूसरी जो सपने में पोखर के पास खड़ी है।
तीसरी जो सपने में पानी में सफ़ेद सड़क पर साइकिल ठीक कर रही है।
तब से मैं बस सोच रही हूँ कि ऐसा भला कैसे? मैं तीन-तीन लीनी। वह भी एक ही समय में।

मैंने बाबा से सुबह उठकर पूछा। उन्होंने हँसते हुए कहा कि सपने तो बस ऐसे जैसे आ जाते है और मेरे सिर पर एक चुम्मी दी। मुझे चुम्मी मिली, पर जवाब नहीं मिला। जवाब मिलता तो अच्छा होता, पर चुम्मी भी अच्छी थी।

हाँ, तीन लीनी। कोई जादू है क्या? पर मन को अच्छा लगा। गिन्नी ने पूछूँगी कि उसने भी कभी ऐसा सपना देखा है क्या? हाँ गज्जू और शिबू से भी पूछूँगी।

मैंने अपनी डायरी का नाम बिल्लो रखा था, यह डायरी मुझे शिबू ने दी थी। अब सोच रही हूँ कि इस डायरी का नाम तीन लीनी का जादू रख दूँ।

दो

बाहर जो आँगन में नींबू का पेड़ है, उसका नाम मैंने ‘कोयल की बैठक’ रखा है; और उपनाम ‘उड़ती कोयल’।

मैं जब नींबू के पेड़ पर कोयल को बैठी देखती हूँ तो मुझे लगता है कि वह सिर्फ़ नींबू का पेड़ ही नहीं है, एक बैठक भी है।

कोयल की बैठक, फिर बैठने के बाद कहीं और उड़ जाती हुई उड़ती कोयल।

जब पूरा चाँद आता है, तब नीले आकाश में नींबू जिस तरह से पीले दिखते हैं तो ऐसा लगता है कि कोयल की बैठक में आज क्या लाइटिंग का इंतज़ाम हुआ है।

कई बार मैंने बहुत रात को बैठक में कोयल को बैठे हुए गाते हुए सुना है।

जब कोई बकरी अपनी दो टाँगों पर उठकर कोयल की बैठक के पत्ते खा रही होती है तो लगता है कि कोयल की बैठक में कोई मेहमान आकर नाश्ता कर रहा है।

और जब पके हुए नींबू माँ पेड़ से ले आती है, तब लगता है कि कोयल की बैठक ने हमें उपहार भेजा है।

सुबह की ओस में कोयल का इंतज़ार
भीगी हुई बैठक में कोयल का इंतज़ार
धूप आएगी
ओस और धूप के बीच कोयल का इंतज़ार
बैठक की दीवारें हरी चमकेंगी
पीले-पीले छोटे नींबू के सूरज के साथ दमकेंगी
कोयल पर यह छटा ख़ूब फबेगी।

यह कविता मैं शिबू को जरूर सुनाऊँगी, और पक्का से शिबू कहेंगे कि चमकेंगी, दमकेंगी, फबेगी की अच्छी धुन बैठाई है; चलो इसे गाकर देखते हैं।

शिबू जब तुम यहाँ आओ तो घर की बैठक में जाने से पहले यह कोयल की बैठक ज़रूर देखना। इसमें बैठना मत। बस देखना।

गिन्नी, गज्जू, अनि, सुमन या सब लोग, उनके घर में पक्का से कोई न कोई ऐसी बैठक होती होगी। पूछूँगी उनसे।

तीन

मैं सोचना शुरू करूँ तो सोचती ही चली जाऊँ। पता नहीं क्यों?
दिन जल्दी-जल्दी बीत जाए। पता नहीं क्यों?
शाम में मैं जब खेलकर वापस आऊँ तो मेरा मन उदास रहे। पता नहीं क्यों?
बाबा ने कल हरी पैंट पहनी। पता नहीं क्यों?
अभी तीन दिन पहले पप्पू जब दूध देने घर आया, उसने मेरे गाल पर चिकोटी काटी और हँसने लगा। पता नहीं क्यों?

कल गिन्नी चुप-चुप थी।

स्कूल में सुबह की सभा में लाइन में खड़े ही खड़े रहो। पता नहीं क्यों?
कमरे में खिड़की सिर्फ़ एक। घर का दरवाजा सिर्फ़ एक। पता नहीं क्यों?
हाथी वैसा और चूहा ऐसा। चिड़िया उड़े, गिलहरी चले। पता नहीं क्यों?
गिलहरी की पूँछ और मैं बिन पूँछ! हाथी की तो सूँड़ और मेरी चोटी! पता नहीं क्यों?

देखूँ ज़रा दिमाग़ के मन में ‘पता नहीं क्यों’ वाली जेब भारी है या जो ‘मुझे जो पता है’ उसकी जेब भारी है?

अब वह कौन-सी है? कैसे जानूँ? या ना जानूँ?

पता नहीं क्यों?

चित्र : शिव कुमार गांधी

चार

शिबू ने मुझे एलिस की कहानी सुनाई थी ‘आश्चर्यलोक में एलिस’ (एलिस इन वडंरलेंड)।

सुनकर मैं तो खो गई। मुझे मेरे सपने याद आए। मुझे एलिस अच्छी लगी। एलिस के चित्र में उसकी फ्रॉक बहुत सुंदर है। मैंने तो हरी सलवार पहन रखी थी और पाँव में चप्पल। एलिस के जूतों जैसे जूते तो फ़रजाना पहन कर आती है। पेड़ से झाँकती बिल्ली बहुत सुंदर थी।

मैं सोचती रही ऐसा कैसे? कितनी अलग है एलिस की ज़िंदगी। कितनी जगह घूम आई वह। कितनी तो सारे लोगों से बात की उसने। मुझे अच्छा लगा कि वह डरी नहीं। मुझे भी ऐसा जादू आना चाहिए। मुझे भी कहीं ऐसी जगह जाना है। यह जादू है या इसमें छिपी कोई और बात है—मुझे अभी समझ नहीं आया। पर कहानी में जो जो भी होता है, वह अलग है।

फिर भी मैं सोचती रही कि ऐसा कैसे? मैं रोई और सोचा मेरा आश्चर्यलोक कहाँ है? कौन-सा है? कैसा है?

शिबू ने बताया कि यह किताब हिंदी में इंगलिश से अनुवाद करके लिखी गई थी, मतलब कि पहले यह इंगलिश में लिखी गई फिर इसे हिंदी में लिखा गया जिसे कि अनुवाद करना कहते हैं शायद। इंगलिश में लिखी थी लुई कैरोल ने और हिंदी में लिखी जिनका नाम मुझे शिबू ने जब बताया तो थोड़ी देर तो मैं समझी ही नहीं, बड़ा-सा भारी नाम था—शमशेर बहादुर सिंह।

उस दिन तो मैं बार-बार शिबू को यह नाम अलग-अलग आवाज़ों में सुना रही थी कि श्श म श्शे र बहा हाहा दूर सिंसिं सिंह या श्शमश्शेर सिंह या बहादूरशमशेर या सिंह में बहादूर श्शमश्शेर। मुझे मज़ा आया, यह नाम मुझे अच्छा लगा। तो पक्का से मुझे अपनी किसी मनपसंद बात या दोस्त का नाम श्शमश्शेर बहादूर सिंह तो रखना ही है।

शिबू ने बताया कि जब तुम थोड़ी-सी और बड़ी हो जाओ तो फिर तुम इनकी कविताएँ भी पढ़ना। मुझे यह बात थोड़ी अलग लगी, क्योंकि शिबू ने कभी ऐसा पहले तो नहीं बोला था—किसी भी बात पर। छोटी होने या बड़ी होकर कुछ अलग करना है के बारे में। बाक़ी और लोगों से मैंने यह कई बार सुना है। पिछले साल जो सुनील मेरी कक्षा में था तब तो वह सिर्फ़ बड़े होने की ही बात करता रहता था। पर अभी तो मैं जैसी हूँ ठीक हूँ।

तो फिर दूसरे दिन। क्या हुआ?

जहाँ शिबू की किताबें रहती थीं, वहाँ मैं जब एक-एक किताब देख रही थी, वहीं मुझे एक किताब दिखी जिस पर लिखा था— शमशेर बहादुर सिंह। अचानक लगा कि जैसे मेरा हाथ बड़ा होता जा रहा है और वह किताब की तरफ़ जा रहा है ताकि वह किताब में अलमारी में से मैं ले सकूँ और फिर क्या वह किताब मेरे हाथ में थी? मैंने महसूस किया कि मैं एलिस की तरह बड़ी हो रही हूँ और बड़ी होते-होते किताब का पन्ना मैंने खोला है और किताब में से मुझे ख़रगोश दिखा फिर दिखा छोटा दरवाज़ा और जैसे कि बड़ी होते-होते मेरा सिर टकराया हो ऊपर की छत से।

पर यह एलिस वाली किताब नहीं थी, यह कुछ और थी, पर मुझे एलिस जैसे ही लग रहा था… और मैंने तो कोई दवाई नहीं पी थी, बस किताब हाथ में ली थी। शमशेर बहादुर सिंह का नाम किताब पर देखा था।

ख़ैर, एलिस की कहानी सुनी थी ना शायद इसलिए वैसा महसूस हो रहा था; पर यह मुझे मेरे जादू जैसा लग रहा था, अच्छा लग रहा था।

मैंने वह किताब खोली। उसमें कविता थी। मैंने उसे पढ़ा :

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे

भोर का नभ

राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)

बहुत काली सिल ज़रा-से लाल केशर से
कि धुल गई हो

स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
मल दी हो किसी ने

नील जल में या किसी की
गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो।

और…
जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।

पढ़कर मन किया शिबू को बोलूँ कि मैं इतनी छोटी भी नहीं! यह कविता मुझे अच्छी लगी और मैं समझी भी।

भोर देखती हूँ तो कभी यह तो नहीं सोचा था कि इतनी नीली और उसमें सूरज का दिखता लाल रंग कैसे और तरह से भी दिखाई दे सकता है। यह कविता में पढ़ना अच्छा लगा और इसे मैंने अपनी डायरी में लिख भी लिया है। ऐसा कहकर कि यह कविता एलिस के नाम पर है।

शिव कुमार गांधी हिंदी कवि-लेखक कलाकार हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : कुछ निगाहें, कुछ रेखाएँ 

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