‘धूल की जगह’ पर कुछ स्ट्रोक्स ::
सुधांशु फ़िरदौस

सुधांशु फ़िरदौस

एक

महेश वर्मा की कविताएं पूरे शऊर और होशो-हवास की कविताएं हैं. इनमें किसी बेख्याली या बेखुदी के लिए कोई जगह नहीं है. इनमें प्रवाह में आईं या लिखी गईं लंबी-लंबी पंक्तियों के बजाय छोटे-छोटे सुघड़ वाक्य मिलते हैं. ये वाक्य एक कलाकार के हाथों बेहद करीने से कविताओं में सजाए गए हैं.

महेश का कवि अपने वाक्य-प्रयोग में बहुत सचेत है. उसकी कविताएं अपनी ड्राफ्टिंग में गहरे श्रम का परिणाम लगती हैं. यह ड्राफ्टिंग यकीनन स्मृति के भरोसे भी हुई होगी और पंक्तियों को तरतीब देने की कोशिश में भी. यह इसलिए लगता है क्योंकि महेश की कविताओं में कच्चेपन के अवशेष न के बराबर हैं.

दो

महेश अनवरत दौड़कर हांफने वाले कवि नहीं हैं. वह विलंबित में आराम करते, दम लेते चलने वाले कवियों में से हैं. उनकी कविताओं की पहली किताब ‘धूल की जगह’ पढ़ते हुए, उनके कवि की तोड़-फोड़ का कोई अंदाज नहीं लगता है. यों लगता है कि जैसे कवि ने अपने रियाज को पूरी तरह छुपा लिया है.

‘धूल की जगह’ एक अरसे बाद किसी कवि का पहला ऐसा संग्रह है, जिसकी लगभग सारी ही कविताएं एक मयार की हैं. इन कविताओं में लाशऊरी तौर पर ‘तीन और तेरह’ के इस्तेमाल के अलावा कुछ भी नहीं है 🙂

इस संग्रह की ज्यादातर कविताएं अपने प्रथम-पाठ में एक ही तरह के रंग और आहंग को नुमायां करती हैं, जबकि उनका कथ्य व्यापक दृश्य को अपने में समोए हुए है.

तीन

महेश की कविताओं का आहंग मंद और रंग बहुत ही धूसर है. वाक्य-प्रयोग के दौरान उनकी भाषा में कई जगह दुर्लभ प्रयोग मिलते हैं. इन प्रयोगों की शिनाख्त की जानी चाहिए. इस तरह की कविताएं मुक्तिबोध और विनोद कुमार शुक्ल के काव्य-संसार की पर्याप्त सैर कर लेने के बाद बनती हैं. इस बनत में महानगरीय कोलाहल से दूर रहकर एक अनवरत धुन में साधनारत रहने वाले कलाकार के जीवन की भी भूमिका है. यहां इन पंक्तियों को देखें :

पिता को मालूम होगी एक-एक शहतीर की उम्र
वे चुपचाप हिसाब जोड़ लेंगे मरम्मत का
वह बारिश की कीमत होगी जो हमारी ओर से वे चुपचाप चुकाएंगे

यह प्रस्तुत संग्रह की पहली ही कविता है— ‘पिता बारिश में आएंगे’. इस कविता में कवि खपरैल वाले घर में बारिश के दिनों में होने वाली चुअन को रोकने की ऊहापोह के बहाने पिता को याद कर रहा है. पिता की याद उसे उसके बचपन में ले जाती है :

ओरी में गिरते पानी के नीचे बर्तन रखने को हम बचपन में दौड़ पड़ेंगे

यह कविता खपरैल के घर में बारिश में हुए संघर्ष का दृश्य-विधान रचने में सफल है. अब धीरे-धीरे खपरैल के घर गायब हो गए हैं. वे स्मृति से भी गायब होते जा रहे हैं, लेकिन उन्हें यह कविता बचा रही है. इस कविता से बाहर अगर वे कहीं हैं भी तो उन पर छाने वाले खपरे अब नहीं मिलते, जिससे लोग अब खपरों को छोड़ उनके ऊपर एस्बेस्टस डाल उनसे मुक्त हो रहे हैं.

यहां एक निजी याद है :

खपरैल के घरों में खपरों के टेढ़े हो जाने से या पानी निकलने के रास्ते में रुकावट से छत टपकने लगती थी. ऐसे में किसी लंबी छड़ी या बांस से उसे हिलाकर ठीक करना होता था. यह प्रक्रिया अपने आपमें बच्चों के लिए कौतूहल और बड़ों के लिए परेशानी भरी होती थी. मैंने भी अपने बचपन की कई रातें ऐसे खप्परपोश घरों में बारिश से संघर्ष करते हुए बिताई हैं. मैंने इस संघर्ष से ग्रस्त मां को देखा है और पिता को भी, बड़े भाई को भी…

चार

कभी भूल जाऊं बीच में

तो मुझे तुम याद दिलाना

मुक्तिबोध की तरह महेश का कवि भी सिर्फ अकेले मुक्त होना नहीं चाहता. उसे इस बात का एहसास है कि वह अकेला नहीं है. उसकी तरह ही न जाने कितने लोग इस मसाफत में हैं. इसलिए वह बार-बार याद दिलाने पर जोर देता है. भूलना बहुत आसान है, मुश्किल तो याद रखने में है. कवि ने देखा है कि लोग अपनी सुविधानुसार कब बोलना है, कब चुप रहना है… इसका चुनाव कर लेते हैं और सारा दारोमदार भूलने पर डाल देते हैं. ऐसे में वह अपने साथी पर खुद से अधिक विश्वास करता है.

महेश के काव्य-जगत में सहजीवन का बहुत गहरा स्वीकार है. सहजीवन पर यह आस्था एक व्यापक विजन से आती है. कवि का रोजमर्रा ही है जो इसे निर्मित करता है. यहां कविता के प्रतिमान जीवन के प्रतिमान से अलग नहीं हैं. इसलिए ही कवि साफ-सीधी भाषा में कह रहा है :

मुझे कब बोलना है
मुझसे अधिक तुम याद रखना

पांच

ऐसे ही वसंत में चला जाऊंगा,
इन्हीं फटेहाल कपड़ों में जूतों की कीचड़ समेत.

वसंत में जाना कवियों का प्रिय मुहावरा है. वसंत में सब तरफ मौसम खुशनुमा होता है, लेकिन यह खुशनुमाई आदमी के मन को गाहे-बगाहे कई तरह के अंदेशों से भर देती है. वसंत देखते-देखते बहुतों के लिए सबसे ज्यादा अवसाद भरे महीने में तब्दील हो जाता है. इस पर कई शोध भी हुए हैं और अब यह एक वैज्ञानिक तथ्य है. तितलियां यकायक इसी मौसम में गायब होने लगती हैं और गौरैये प्यास से हलकान.

हमारे आस-पास वसंत के आगमन से लेकर उसकी विदाई तक इतने बदलाव होते हैं कि कोई भी संवेदनशील आदमी पस्तगी का शिकार हो पलायन कर सकता है. लेकिन कविता में बात इतनी भर नही है. फटेहाल कपड़ों में वसंत में जाना जैसी रवायती बात तो है ही, साथ में एक नई बात भी है— जूतों की कीचड़ समेत, यानी यहां वसंत किसी शास्त्रीय अर्थ में वसंत नहीं है. यहां वसंत में सावन का कीचड़ भी मौजूद है— जूतों से लिपटा हुआ.

वक्त के बेढंगेपन और मन के दुचित्तेपन को दर्शाने के लिए ऊपर व्यक्त कविता-पंक्तियां उदाहरण की तरह हैं. ये बताती हैं कि कैसे आदमी का जीवन विरुद्धों का सामंजस्य करने के प्रयास में विरोधाभासों का समुच्चय हो गया है.

यह राजनीति से समाज और समाज से साहित्य तक जिंदगी के हर इलाके में बनती और बिगड़ती छवियों का दौर है. अगर हम ज्यादा दूर न जाकर कविता के जगत पर ही नजर डालें तो नवोदित से लेकर वरिष्ठ कवियों तक अपनी गढ़ी गई छवि से जकड़े हुए हैं. इसका नतीजा यह है कि वे जो सोचते हैं, उसे लोक-वृत्त (public sphere) में लिखने और बोलने का साहस एकत्र नहीं कर पाते. यह छवि बनाने और बचाने का मिथ्या प्रयत्न और प्रपंच है. यह उपस्थित परिदृश्य को जीवन से दूर कर सतही संवेदनाओं से भर रहा है.

राजनीति और कॉर्पोरेट में लोग अपनी छवि बनाने और विरोधी की छवि को धूमिल करने के लिए करोड़ों रुपए में कंपनियों को कॉन्ट्रेक्ट दे रहे हैं. साहित्य में भी अमुक कवि की छवि खराब है, जैसे जुमले आम हैं. लोग अपनी रचनाशीलता से ज्यादा अपनी छवि की परवाह करने लग गए हैं. कहीं कुछ बोलिए, चार लोग समझाने आ जाते हैं. ऐसा लगता है कि यह साहित्य की दुनिया कम, किसी पोप का राज्य ज्यादा है. यहां ‘बहुतों के मामले में बहुतों से अलग राय रखना’1कुंवर नारायण की एक कविता-पंक्ति. किसी ग्राम्य-देवता के अपमान सरीखा है. राय रखते ही ‘धर्माधिकारी’ और ‘बाउंसर्स’ समझाने आ जाते हैं. ऐसे में महेश जब ये पंक्तियां लिखते हैं :

कई बार बेजरूरत भी कुछ बोल पड़ना चाहिए,
भले इससे हमारी छवि थोड़ी बिगड़ती हो.

और :

वसीयत चुपचाप लिखनी चाहिए
और लिखकर भूल जाना चाहिए

तब वह किसी दुनियावी वसीयत की बात नहीं कर रहे होते, क्योंकि कवि की वसीयत तो उसकी कविता ही है. कविता से इतर कवि के कार्य-व्यापार को भला कौन और कब तक याद रखता है, भले ही उनकी भूमिका कवि-निर्माण में बहुत अहम हो.

लेकिन महेश का कवि यहां सबसे जरूरी चीज कविता को भी भूलने की सलाह दे रहा है. वह कह रहा है कि बहुत अप्रतिम और दुर्लभ कविताएं लिखने के बावजूद, उन्हें भूलना ही बेहतर है, क्योंकि लिख देने के बाद कवि के लिए उनका कोई महत्व नहीं है. वह कवि की वसीयत की तरह हैं.

छह

यह इतनी सरल बात थी कहने में
कि मुझे भाषा की शर्म थी उसे लिखने में

अगर यह हत्या थी
तो यह एक आदिवासी की हत्या थी

महेश के काव्य-जगत में अपने अधूरेपन के लिए स्वीकार बहुत है. उनके कवि को पता है कि वह जो लिख रहा है, उसे वह पूर्णता में नहीं लिख पा रहा है. उसकी भाषा में असमर्थता, उसे विनीत बना रही है. वह शर्मिंदगी से भरा है और इसे कहने के लिए वह कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं कर रहा, बस शर्म से नतमस्तक है. वह अपनी एक कविता ‘आदिवासी औरत रोती है’ में कहता है :

हम बहरहाल उन लोगों के साथ हैं
जिनकी नींद खराब होती है— ऐसी आवाजों से.

कवि अपनी सहजता और सरलता से दुनिया को देख रहा है, और इसलिए ही उसे यह दुनिया अपने आदिम और नग्न रूप में दिखाई दे रही है. वह दुनियावी कार्यक्रमों के लिए कितना नया है, इसे वह बार-बार स्वीकार करता है :

अभी तो न्याय की गुस्सैल निगाह
और जीभ काटने की धारदार छुरी
सबके लिए नया हूं.

कवि हर तरह की कोमलता और तरलता के प्रति प्रेमपूर्ण है. ‘नसीहत’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियां यहां दृष्टव्य हैं :

व्यर्थ के तुकांत के लिए भी एक सहृदयता मिले
इतना मुस्कुराते हुए सुनाना चाहिए गीत

सात

महेश के यहां चुपचाप अपना काम करते रहना एक काव्यगत अभिव्यक्ति है. उनकी कविताएं ‘अतिरिक्त शोर’ और ‘अद्भुत कहने के दावे’ को जाहिर किए बगैर वंचितों के प्रति अपनी पक्षधरता को व्यक्त करती हैं. जब सब तरफ कहने का इतना कोलाहल हो, तब एक दबी हुई आवाज भी महत्वपूर्ण हो जाती है, बशर्ते कहने वाले की नीयत साफ हो.

आठ

पुकारू नाम बचपन की बारिश का पानी है
जिसे बहुत साल के बाद मिलने वाला दोस्त उलीच देता है सिर पर
और कहता है बूढ़े हो रहे हो

‘पुकारू नाम’ बोलने वाले कम हैं और दिन-ब-दिन कम होते ही जा रहे हैं. स्मृति में पुकारू नाम की एक खास जगह होती है. कई लोगों के कई पुकारू नाम होते हैं, जिन्हें पुकारने वाले भी अलग-अलग लोग होते हैं. यह अपने आपमें दुर्लभ है— पुकारू नाम को पुकारने वालों के बारे में सोचना… महेश यह काम करते हैं. उनकी कविताएं विस्मृति की स्मृति हैं. वे शब्द और अनुभव जो स्मृति से बाहर कर दिए गए, अपना देशनिकाला काट वापस स्मृति में या कहें ‘धूल की जगह’ में लौट आए हैं. इस जगह में साधारण से साधारण वस्तुएं और घटनाएं अपने आसाधारण आख्यान के साथ प्रस्तुत हैं. चाहे वह चंदियां स्टेशन की प्रसिद्ध सुराहियां हों या संजय साइकल स्टोर्स के शतरंज खेलते किरदार या फ़िरोज़ अख्तर फ़िरोज़ जैसे किसी नामालूम शाइर की शाइरी जिसने एक दुपहर अपनी प्यास को बुझाते अपने शे’रों से कवि के कमरे को चांदमारी के मैदान में बदल दिया या यहां मलेरिया मिलने की खुशी में मुतमइन वे डॉक्टर हों जिनकी खुशी के बीच मलेरिया का मरीज ऐसे मरा कि किसी का उस पर ध्यान नहीं गया या बर्फघर के वे पुराने नौकर हों :

जिन्होंने रुलाई को यूं छुपाया
कि अगरबत्ती कहां है,
कहां है माचिस?

या ‘शू तिंग’ कविता का वह नायक ही क्यों न हो जो मान्यतानुसार बड़े कान के साथ सौभाग्य लेकर पैदा हुआ, लेकिन जब वह नौका में बदला तो दोनों कान बादबान हो गए :

यात्रा के संस्मरण
और गिलास की शराब खत्म हुए अरसा हुआ

काहे का बड़ा कान?
काहे का सौभाग्य?

या ‘स्ट्रगल कर रहे कलाकार’ हों या दो संस्कृतियों के गुस्से की मीनारों पर तनी रस्सी पर बदहवास दौड़ता अनुवादक हो :

कभी रुककर साधता संतुलन
पूरा संतोष कहीं नहीं था.

महेश की कविताओं में किरदारों की यह बहुलता किसी ‘सुखांत’ की प्रतीक्षा में है, जिसके बारे में कवि अपनी कविता ‘बाहर’ में इशारा करता है :

तुम्हारी इच्छा से बाहर थी तुम्हारी प्रतीक्षा.
तुम्हारी प्रतीक्षा से बाहर तुम्हारा प्रेम.

दुखांत यथास्थितियों से भरी कथाओं में महेश की कविता सुखांत को यों रचती है :

अंत में ऐसे आया सुखांत
आने की ताक में था जैसे : घुसपैठिया.

नौ

उन्होंने आंखें ढांप तो नहीं ली थीं हाथ से
जब आया था प्रकाश

महेश के कवि को अपनी परंपरा से गहरा लगाव है. उसे पता है कि उसने जो भी अर्जित किया है— पूर्वजों की रचनाओं को गुनते-धुनते ही अर्जित किया है और उसे कहीं भी इस अकीदत को पेश करने में कोई झिझक नहीं है :

पूर्वज कवि आते हैं
और सुधार देते हैं मेरी पंक्तियां
मैं कहता हूं हस्ताक्षर कर दें जहां
उन्होंने बदला है कोई शब्द या पूरा वाक्य

इस कविता के अंत में फुर्र से एक गौरैया उड़ जाती है और एक अन्य कविता ‘हमारे कवि’ में कवि अपने समकालीनों से सवाल करता है कि वे :

क्या कर रहे हैं
क्या उन्होंने लिख लिया यह अंधेरा
जो हमारे बीच फैला है

वे लिख पाए क्या धूप से भी सुंदर हंसी
जो फैली हुई थी आकाश पर, उस समय वे
धरती की भीतरी तहों को तो नहीं सोचते थे

दस

अंधेरा कोई वृक्ष है
तो उसके भी पत्ते गिर रहे हैं रात में

अपनी कविता ‘किस्सा’ में महेश जीवन की निस्सारता से पैदा हुई एक तरह की अराजकता से भरी काहिली की तरफ इशारा करते हैं. इस कविता में सब कुछ वहां आ गया है, जहां सब बेअसर हो गया है… मसलन जहां चाकू किसी चीज को काट नहीं पाते, जहां राजकुमारियां झुर्रियों से बेपरवाह और उनके बाप शतरंज में मशगूल, सब कुछ इतना गड्मड् है कि हर शै अपनी तासीर खो चुकी है और हम अंधेरे में दीवार टटोल रहे हैं— बाहर निकलने के लिए. इसलिए ही शायद अपनी कविता ‘लाओ’ में महेश का कवि एक नई चीज लाने पर जोर देता है.

लेकिन उसे लाना मुमकिन नहीं, जिसे कोई जानता न हो, जिसकी कोई परिपाटी न हो, जिसके बारे में कोई कयास भी न लगाया जा सके. उसका आना इसलिए भी असंभव है, क्योंकि हर तरफ इतने पूर्वाग्रह हैं कि कुछ नया लाना और कहना मुश्किल हो गया है. कवि को इस लाने की मुश्किल पता है, इसलिए ही वह कहता है :

उसे ऐसे लाओ कि कोई उपमा न दे पाए
वह कहीं से भी लाई जाए या कहीं नहीं से भी

ग्यारह

कोई चापलूसी व्यर्थ नहीं जाती थी
प्रमेय की तरह सिद्ध होता था हर मुस्कान का प्रयोजन

और तो और
छींकने से पहले हाथ आ जाता था रूमाल

‘अनुकूल’ शीर्षक कविता से ऊपर व्यक्त इन कविता-पंक्तियों में महेश एक ऐसे अनुकूलन को प्रकट करते हैं, जो सब तरफ इस कदर बढ़ गया है कि आदमी मनोविज्ञान के सिद्धांतों का विषय बनने से बहुत आगे निकल गया है. अब किसी को सिखाना नहीं पड़ता कि कब किस सभा में किस बात पर ठहाके लगाने हैं और कहां ताली बजानी है. सब कुछ आदमी किसी सुपर-कम्प्यूटर की गति से कर रहा है. इस गति में एक कवि का संकट बेहद गंभीर है. महेश इस संकट को दर्ज करते हैं :

कितना भयावह है सोचना कि एक वाक्य
अपने सरलतम रूप में भी कभी समझा नहीं
जा पाएगा पूर्णता में, हम अजनबी थे अपनी
भाषा में, अपने गूंगेपन में रुंधे गले का रूपक
यह संसार.

कवि आगे ‘तुम्हारी बात’ में यह ताकीद करता है :

कहां जाऊंगा तुम्हें तो मालूम हैं कि मेरे सारे जतन
इस गर्वीली मुद्रा के भीतर एक निरुपाय पशु हूं
वधस्थल को ले जाया जाता हुआ

और आखिर में :

पहले सीख लूं एक सामाजिक भाषा में रोना
फिर तुम्हारी बात लिखूंगा.

यहां तक आने के बाद कहने को और क्या रह जाता है सिर्फ इस प्रचलित वाक्य के कि ‘धूल की जगह’ एक अनिवार्य कविता-संग्रह है, और इसे हर हाल में पढ़ा जाना चाहिए… क्योंकि :

यकीन मानिए साहब
हमने चीजों के मायने बदल दिए.

***

इधर की हिंदी आलोचना में ‘समकालीन विवेक’ कहीं गहरे क्षीण हुआ है. आलोचक कहकर पुकारे जाने वाले व्यक्तित्वों की गतिविधियां और भाषा अपने-अपने लेखक-संगठनों की विज्ञप्तियां लिखने, पर्चे जारी करने, चालू वैचारिकता के तहत तात्कालिक राजनीतिक स्टैंड लेने, खुद को आंदोलनकारी-सा दिखलाने और फेसबुक पर परस्पर टीका-टिप्पणी करने में सर्फ़ हो रही है. उनमें कवि होने की इच्छा भी (कहने की इच्छा नहीं है, लेकिन) बलवती दिखती है. ‘स्मृति-उपक्रम’ उनके लिए सबसे प्रतीक्षित, प्रासंगिक और प्रिय कर्म है.

वहीं आलोचना की ‘सामर्थ्य’ रखने वाले कुछ नए चेहरों का ‘जीवन-गणित’ इतना सशक्त है कि वे समकालीन चेहरों से बचकर स्पेंसर, एडोर्नो, हेबरमास, अल्थ्युसे, इगल्टन, जेमेसन, फूको, देरिदा, सोंटैग, बाख्तिन, बौद्रिया वगैरह पर लिखने और उन्हें हिंदी में स्थापित करने में मस्त हैं. यह अयोग्यों की बौद्धिकता और उनका उल्लास एक साथ है.

बहरहाल, हिंदी में कुछ कवि शायद ऐसे ही वक्तों में आलोचना की आवश्यकता को समझते हुए इस तरफ सक्रिय होते आए हैं. इस सिलसिले में नया नाम सुपरिचित कवि सुधांशु फ़िरदौस का है, जिन्होंने साथी कवि महेश वर्मा के पहले संग्रह ‘धूल की जगह’ को स्पर्श किया है.

इधर हमने कुछ बेहतरीन कवियों के पहले संग्रहों की भयानक उपेक्षा देखी है. इस माहौल में एक कवि पर एक कवि का यह गद्य आलोचना की भाषा को उसका सही कार्यभार बताने की तरह है.

महेश वर्मा का कवि-व्यक्तित्व उनकी नेपथ्यगत काव्य-तपस्या का अभीष्ट है. वह इस सृष्टि की समग्र संवेदना को उसके वस्तुनिष्ठ वैभव और अभ्यंतरालोक के संसर्ग में धारण करने को व्यग्र है. उसमें एक सुंदर गद्य की काव्यगत लय है जिसमें बहुत सूक्ष्म स्तर पर एक अद्वितीय नवाचार घट चुका है.

महेश वर्मा से maheshverma1@gmail.com पर और सुधांशु फ़िरदौस से sudhansufirdaus@gmail.com पर बात की जा सकती है.

इस प्रस्तुति में प्रयुक्त सभी तस्वीरें सुमेर के सौजन्य से.

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