कविताएँ और तस्वीरें ::
उत्कर्ष

उत्कर्ष

संसार का समग्र आत्मकथ्य

अनंत ब्रह्मांड में यह पृथ्वी
बुनाई का शायद महज़
एक नीला धागा भर है
वस्तुतः अशेष कपड़े में एक टाँका
कोई एक सहस्राब्दी करवट लेती है
और खिलौने की चाभी
एक बार और घुमा दी जाती है
वही रक्त का लाल
वही वैभव की लालसा
वही आडंबर
और वही पलायन।

जोगी कहे कि
सब वही सब लिखकर
मिटा दे रहे हैं
स्लेट पर खींच लकीर
जोड़-गुना-घटा रहे हैं
स्लेट तो एक ही वही है।

इति।

प्रकृति अबूझ विचार है
इसे धरती से ऊपर रहकर
नहीं समझा जा सकता
जमीन पर थोड़ी देर बैठो।

इति।

जैसे प्रकृति को
वैसे कलाकार को
सब कुछ सपाट दिखाई देता है
रिक्त
जहाँ भरा जाना हो
बारंबार जीवन।

इति।

कई मसीहा हुए।
कई दीवारें बनीं।
घेरा बना।
लोग उस घेरे में रहते रहे।
और बाहर बारिश और हवा
बहती रही
धाराप्रवाह।
घेरे के भीतर बसे लोग कैसे जानते
भीतर हो रही बारिश
और बाहर हो रही बारिश में क्या भेद?

इति।

कई आदमक़द मूर्तिकार
यथेष्ट की तलाश में
घूमते रहे भीतर अनंत काल तक।
कई आदमक़द विजेता
नापते रहे भूमि
और
और
बहुत
अंत तक
अचेत होने तक।

इति।

तुम चाहते हो
जीवन एक व्यंजन हो
स्वादिष्ट हो अति
खोजते रहते हो सामान
कि ये बने यथार्थ में महत्तम।
लालसा की नियति अपूर्ण रही है।

इति।

एक दिन
जैसे आई थी पूर्व सदी में
ज़ोर की आँधी आएगी
और बहा ले जाएगी अपने साथ
सारे अनुसंधान
प्रयोग
प्राक्कथन।
तुम अपने लिखे का पहला और आख़िरी हिस्सा
खो दोगे।
बीच का पन्ना बिखर जाएगा।
जैसे पहले कभी हुआ था।

इति।

धरती पर एक जगह
भाषा का संपूर्ण महात्म्य
स्मृति और वार्तालाप की परंपरा से पोषित है।
अगर कुछ जानना हो तो लोग
एक-दूसरे से पूछ सब जान लेते हैं।

एक बड़ी जगह है
यहाँ सब चुप रहते हैं
भूल चुके हैं भाषा
स्थित मूर्तभाव
दीवारों से मूक प्रश्न करते हैं।

लोगों ने इतनी रोशनी बना ली
कि सूरज का सत्य ढँक दिया गया।
जैसे चंद्रमा की शीतल ओजस्वी उज्ज्वल ओस
सतही कृत्रिम प्रकाश में सनी वासना में
प्रवेश न कर सकी।

इति।

वह कहता है,
पहले भी…
शायद प्रथम स्मृति और बीच से अभी तक।
तुम्हारे आसमान के पार भी आसमान है
जैसे और भी बहुत कुछ
नदी
पहाड़
वन
सभी साबुत।

और?

तुमने बंद खिड़की नहीं खोली।
और खोल भी ली तो
समक्ष कई और हैं
जैसे मानव-कर्म केवल खिड़कियाँ खोलने
और उन्हें बंद और अधखुला रखने का था।
निकलो उस भू-भाग से
दूर कहीं वन का एक हिस्सा शेष है
वहाँ बरगद इतनी स्मृतियों का ज्ञाता है
तुम्हें प्राप्त करनी है
जीवन-मूल की स्मृति
धरती का स्पर्श कर
बोधिसत्व नहीं
तुम्हारी तरह, साधारण।
फिर साधनारत।
जैसे बोधिसत्व।

इति।

इस पृथ्वी पर
जीवनदायी वृक्ष की जगह उग आया है
मानव-शरीर
असंख्य।

पृथ्वी का भार बढ़ गया है

और इसी तरह होगा संसार का अंत

विस्फोट से नहीं
वरन् जैसे गुब्बारे से निकलती है हवा।

इति।
संसार एक प्रयोगशाला नहीं है।

रात, चाँद और गिटार

तब तक
गमले में रातरानी लौट चुकी थी
चंद्रमा पूरा गोल होने से ज़रा-सा कम था
पूरी छत
सन्नाटे में गुँथी हुई थी
और शहर में जितनी रोशनी थी
चाँद के उजाले से ज़्यादा फैला दी गई थी

झींगुर नहीं थे
सन्नाटे के होने की दुविधा में भी
कोई रात की कश्तियाँ बना
अतीत की बरसात के जल में तैरा रहा था

और कोई था
जो हल्के गिटार के नोट्स बजाते
ह्विटमैन गुनगुना रहा था

ये एक ब्लूज़ वाली रात थी
जिसके कोरों में ओपेरा का धागा बँधा हुआ था
सन्नाटे को चीरता
शनैः शनैः
जोड़ता आज से आज को
कल के लिए।

घर अकेला रह गया है

बरसात हुई बहुत उस रोज़
जैसे बादल फट पड़ा हो
और जैसे खोल दिए गए हों पगहों से
कई मवेशी
एक साथ
भागते-पराते दिशाहीन

कई बरसातें एक साथ
और
धुल गया सब कुछ
जो घर का अपना था
पुरानी गाढ़ी पुताई
मोटी मज़बूत दीवारें
दीवारों पर अनगिनत हाथों की छाप
सभी छूट गए।

घर सबसे उदास रहा उस दिन
जब उससे उसका
भंडार-घर छीन लिया गया
सभी पुराने बर्तन
उनकी बातचीत
कौर की संपूर्ण कहानी बिसरा दी गई।

दीवारें बनीं
बँटवारे हुए
एक-एक चम्मच का हिसाब हुआ।

घर के बूढ़े रो रहे थे
मूक-स्वर में
उनका भी बँटवारा हुआ था
उनकी गर्म हथेलियों का।

वे कई नाती-पोतों में से किसी एक को ही
एक समय प्रेम कर सकते थे।
यह दुविधा
यह दुःख
कितना भारी था
इसका वर्णन करने की
शब्दों में सामर्थ्य नहीं।

घर उदास वीरान गली हो गया था
उसके निर्माण के दिनों के यार सब छूट रहे थे।
नीम का पेड़
जिसके दातुन की मिठास
अभी घर के ज़ेहन में ताज़ा है।
मेहँदी का पुराना गाछ।
सभी वर्णमालाएँ बिखर गई थीं।
दीवाली के छोटे-छोटे मिट्टी के घर
तोड़े जा चुके थे।
बच्चे बिलख रहे थे
जैसे उनका ज़रूरी हिस्सा
उनसे जबरन छीन लिया गया हो।
पुराना स्कूटर
घर से बाहर खड़ा
विषाद-गीत का एकालाप रच रहा था।

घर अकेला हो गया था
ये समझना और समझाना शायद बहुत मुश्किल है
पर अंजोरिया घर पर
अब रात को उस तरह नहीं बरसेगी
जैसे बरसों से छूटकर गिरती थी।

नए जंगले बन रहे थे
नए पर्दे, नई घड़ी, नया सब कुछ
शायद घर के लोगों ने
नया दिल भी कहीं से इंतज़ाम कर
लगा लिया था शरीर में!

घर अकेला हो गया था
कई हिस्सों में अकेला
प्रश्नों में अकेला
और जवाबों में भी।

व्याकरण से परे और एकांग में सौंदर्य के
अलंकारहीन।

गमन
शरीर से शरीर का जाना
आत्मा का आत्मा से टूटने जैसा कुछ है

अब उस घर में बिल्लियाँ चार जगह से
दूध के बर्तन जुठारेंगी।

गौरैया अब घर के कौन-से हिस्से से
बटोर पाएगी कविता।

जा चुके लोग

यहाँ सन्नाटा है—पसरा हुआ—
छूटने की गंध में डूबा।
अँधेरे में टटोलने पर मिलता है चश्मा।
चीज़ें और भी…
जैसे—
अधूरा स्वाद, बेरंग जिल्द वाली किताबें और धूल।
जाने वाले जैसा बता गए
वैसी नहीं पाई गई सूखे महुए की महक।
नहीं थी चारपाई।
न ही आई ड्योढ़ी पर जाने पर कजरी।
नाही किसी के आने पर सोहर।
गीत गाने वाली महिलाएँ चुपचाप चली गईं।
इतनी चुप कि किसी ने उनके जाने की आहट भी न सुनी।
जैसे दीवार के पीछे नहीं सुनी जाती कोई आवाज़।
औरत शब्द के संज्ञा होने की मौजूदगी या फिर,
ना ही इस शब्द के विशेषण बना दिए जाने की साज़िशें।

अब चँवर डोला रही आजी नहीं हैं।
नहीं है उनके गीतों के मद्धिम स्वर के चलायमान पहिए।
आँखों से बोझिल हो चुका है कहानी का पाठ।
भगजोगनी और एक कहानी का प्लाट।
मलबे में दबे आदमी का जीवाश्म भी नहीं है।
ना ही हैं खंभे—नक़्क़ाशीदार
जिन पर कारीगरी में महीने लगे।

बहुत तेज़ चल रही है गर्म हवा।
कंठ सूख रहा है।
फिर भी चले जा रहे हैं आदमी।
उस टोली में स्त्रियाँ भी हैं।
लेकिन उनके गले रुँधे हुए हैं।
सख़्त है आदमियों की पगड़ी।
प ला य न
हर दूसरी वर्णमाला पर भारी है।

एक जगह थी।
जहाँ लोग बीमार पड़ें
और ‘स्वस्थ’ होने पर नहीं रहा उन्हें याद
कि बरसात से पहले आम मीठा स्वतः नहीं होता
बल्कि रसायनों में पकाया लोभ होता है।

ग म न
ग से म से होते हुए न तक की यात्रा है
जिसके बीच नहीं पड़ती कोई भी बावली, नदी या कुआँ

जा चुके लोग
चुके हुए लोग होते हैं
जिनकी स्मृति का महत्व
आधुनिकता के मलबे में दबा दिया जाता है
जैसे बदल दिए गए नाम
कितने ही।

फलस्वरूप
नहीं जान पाता कोई
अकाल में भी
पास के छिपे जलाशय का भी पता।
जैसे यह भी स्मृति-भंग का है उदाहरण।
अगर घर में कुछ नहीं तो
चावल और जल से बन सकता है भात
चाउर, शक्कर और दूध से भूख के लिए थोड़ी खीर।

भूल जाना
चली गई स्मृतियों के दोष में नहीं
बल्कि फ़र्क़ न पड़ने के माथे मढ़ा रहता है
पूरी दुपहर और अर्द्धरात्रि की बेचैन करवटों में समाहित।

मैं तुम्हें वहाँ मिलूँगा

ऐसे समय में जब सब खोज रहे हैं अपना पता—कहीं बाहर—किसी भीड़ में।

तुम मुझे खोजना किसी भीड़ से अलग—नदी किनारे।

मैं घाट पर निहारता हूँ उस दीवार को जिस पर कभी किसी ने कोई ग्राफिटी बनाई थी… कोई पेंटिंग।

तुम मुझे शहर के आईने में मत खोजना।
शोर से बाहर आ जाना थोड़ा।
वहाँ आ जाना, जहाँ शहर ख़त्म होता है आजकल। वही किसी मलबे में होगा पुराना शहर जिसकी जड़ें टटोलता मिल जाऊँगा या खोजते वह सब जो अब कोई पुरानी ग़ज़ल है। मिलूँगा शहर की मरम्मत का सामान तलाशती किसी विरासत की शरण में।

तुम मुझे किसी भीड़ में मत खोजना।
मैं तुम्हें वहाँ नहीं मिलूँगा ।
मैं तो कभी वहाँ था ही नहीं और कभी था भी तो
यह मेरी सबसे बड़ी विवशता रही होगी।

उत्कर्ष हिंदी की नई नस्ल से वाबस्ता कवि-लेखक और कलाकार हैं। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 23वें अंक में पूर्व-प्रकाशित है। उत्कर्ष से और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : रास्ते भर के जीवन से होकर

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