स्मृति-लेख ::
सुधांशु फ़िरदौस

शशिभूषण द्विवेदी │ क्लिक : सुघोष मिश्र

आदमी क्या खोता है और क्या पाता है, यह उसके मन और आत्मा से निर्धारित होता है।

— शशिभूषण द्विवेदी

शशिभूषण द्विवेदी नहीं रहे… इस सूचना के लिए जो भी उनको ज़रा भी क़रीब से जानता था, उसने अपने मन को बहुत पहले से ही मज़बूत कर लिया था। सभी अपने हद तक उन्हें समझा कर थक चुके थे। उनकी दैनंदिन निराशा का एक रूपक था जिसमें आशा की केवल एक ही बात थी कि उनमें कहानी लिखने की थोड़ी-बहुत जिजीविषा अभी भी बची हुई थी। वह अराजकता का आलस्य ही था जो उन्हें उसे लिखने से रोक रखे था। हम सभी उनके जीवन में रचनात्मक जड़त्व के टूटने की प्रतीक्षा कर रहे थे, लेकिन यह प्रतीक्षा और कुछ सार्थक रचने का इसरार, इतने मान-मनौअल के बाद भी अंततः प्रतीक्षा के ही रूप में समाप्त…।

‘‘जानते हो, मैं लिख नहीं पा रहा हूँ…’’

‘‘आप कुछ दिन के लिए फ़ेसबुक छोड़ दीजिए और लिखने, भाभी और नौकरी को समय दीजिए—देखिएगा अपने आप सब ठीक हो जाएगा। आप लिख नहीं पा रहे, इसलिए ही इतना बेचैन रहते हैं। मेरी मानिए कुछ अलग तरह का लेखन ट्राई कीजिए। अगर कहानी या उपन्यास नहीं बन पा रहा तो हिंदी साहित्य के अंदरख़ाने के ही कुछ क़िस्से लिख मारिए।’’

लंबी चुप्पी के बाद :

‘‘जानते हो!—नींद में इतनी कहानियाँ आती हैं, लेकिन कुछ ढंग का लिख नहीं पा रहा हूँ। भीतर इतने चरित्र चलते रहते हैं। क्या बताऊँ तुम्हें? लेकिन, लिखता हूँ तो कुछ भी लिखने का मन नहीं होता है!’’

बहुत सारी कहानियाँ स्वप्न में आतीं, लेकिन कोशिश करने पर भी लिखी नहीं जा पाती थी। रोज़मर्रा के नीरस और उबाऊ रूटीन से मुक्ति वह शराब में पाने की कोशिश करते थे। महानगरीय जीवन के लिहाज़ से उनकी नौकरी से आमदनी उतनी नहीं थी कि वह शराब का ख़र्च भी उठा सकें। इसके लिए उन्हें प्रूफ़रीडरी जैसा महाउबाऊ काम करना पड़ता था। एक ऊब से दूसरी ऊब की यात्रा का यह चक्र उन्हें अंदर से सोखे जा रहा था। इस आवागमन से वह इतना थक और खप जाते थे कि बड़ी रचना के लिए ज़रूरी धैर्य का उनमें अभाव हो गया था।

उनकी ज़िंदगी और कथा दोनों के शिल्प बेतरतीब हो गए थे। हमारी लाख कोशिश के बाद भी उसमें कुछ भी सुधार नहीं हुआ। दूसरे संग्रह की उनकी कहानियाँ जैसे ही अपना वितान खोलती हैं, ऐसा लगता है कि लेखक ने उकताकर कहानी को जल्दबाज़ी में ख़त्म कर दिया है। यह उकताहट उनके स्वभाव का हिस्सा हो गई थी और जीवन पर भी असर करने लगी थी। उनका पहला संग्रह बहुत ही धैर्य और सौंदर्य से लिखा गया है। जिससे कोई भी नया कहानीकार ईर्ष्या कर सकता है। लेकिन उसके बाद का बहुत वक़्त उन्होंने अपने अंतर्विरोधों से जूझते, अपने मज़े और दूसरों के एजेंडे के लिए लिखने में बर्बाद किया है। इसका असर बाद में उनके शिल्प और जीवन में दीखता है। उन्होंने स्वयं को कभी इतना महत्त्वपूर्ण नहीं माना कि वह इसकी फ़िक्र करते कि फ़लाने वरिष्ठ उन्हें नहीं जानते हैं। कभी ऐसा दीन-हीन भी नहीं बने कि किसी वरिष्ठ से अपनी पहचान जोड़ने के लिए उनकी दरबारी करते। मैंने बहुत बाद में जाना कि यह साधारणता ही उनका शिल्प था। उनके जीवन से कोई भी नया लेखक यह सीख सकता है कि उसे क्या करना है और क्या नहीं करना है। उन्होंने दुनिया-समाज की फ़िक्र करते हुए कहानीकार का जीवन जिया और उसी फ़िक्र में उलझे हुए कहानीकार की मौत मरे। उनका जीवन एक लेखक का जीवन था जिससे उन्होंने तमाम परेशानियों के बाद भी पलायन नहीं किया।

वह मंटो से बहुत प्रभावित थे। एक बार उनकी तबियत ख़राब थी और जब हम उनके घर मिलने गए तो भाभी ने बताया देखिए न कह रहे हैं तुम सफ़िया हो, कौन ऐसे बोलता है। मुझे डर लग रहा है। जब हमने उनसे इसके बारे में पूछा तो हमेशा की तरह बात को मज़ाक़ में उड़ाकर कुछ और कहने लगे। उनमें एक क्रिएटिव मैडनेस थी—मंटो की ही तरह—उनकी यही ट्रेजडी रही कि वह भी जीवन और कथा को अलग-अलग नहीं देख पाए। उनका जीवन उनकी कहानियों के साए से कभी भी मुक्त नहीं हो पाया। नज़दीक से देखने पर यह पता चलता है कि उनकी कहानियों का हाहाकार उनके जीवन में बहुत अंदर तक घुसा हुआ था। अपनी कहानी ‘भूतो न भविष्यति’ के किरदार नाना के भूतों की तरह उनकी कहानियों के किरदार भी उनके मन की कोठरी में उधम मचाते रहते थे। उन्होंने अपने वक्तव्य में ख़ुद ही लिखा है : ‘‘जीवन निरर्थक हो सकता है, लेकिन रचना नहीं…’’ इसलिए ही शायद अपनी रचना की सार्थकता के बरअक्स जीवन की इस निरर्थकता से वह उकता गए थे।

कई बार मुझे लगता था कि वह बहुत हद तक मजबूर थे, नहीं तो जो आदमी अपने परिवार की इतनी परवाह करता हो वह भला ख़ुद को लेकर ऐसे लापरवाह कैसे हो सकता है। उनकी बहुत-सी भावनाएँ उनकी कहानियों में ही क़ैद रह गईं। उनकी बातों को याद करते हुए जब फिर से उनकी कहानियों को पढ़ता रहा हूँ तो लगता है कि जैसे वे अपना सब कुछ अपने किरदारों को सौंप स्वयं एक छाया की तरह दुनिया में घूम रहे थे।

वह उस डॉक्टर की तरह थे जो ऑपरेशन के वक़्त बदहवासी में अपना औज़ार मरीज़ के शरीर के अंदर ही छोड़ देता है। बाद में उसे बाहर ढूँढ़ते हुए बेचैन रहता है। वह मूलतः कवि थे अपनी कहानी और उसके किरदारों से लिखने के बाद उससे अपने स्व को मुक्त नहीं कर पाते थे। कहानियों के किरदार उनके माथे पर चढ़ जाते थे। शराब एक बहाना है, ज़्यादातर वह किरदारों के नशे में रहते थे। उनमें वह बेहिसी नहीं थी जो एक कथाकार में ख़ुद को लेखन की प्रक्रिया में होने वाले मानसिक संत्रास से ख़ुद को बचाने के लिए ज़रूरी होती है। जीवन के ख़ालीपन को अपनी नि:संगता में उन्होंने कहानियों के अधूरेपन से भर लिया था। वह क़रीब से क़रीब आदमी के सामने ख़ुद को बहुत कम खोल पाते थे। वह ज़माने भर की बातें किया करते, लेकिन हमें अपने अँधेरे से दूर रखते थे। कथा और कथाकार दोनों एक दूसरे पर ऐसे निर्भर हो गए थे कि वह चाहकर भी उन्हें विलगा नहीं पाए।

उनके जीवन की यही ट्रेजडी थी और शायद जब तक वह जीवित रहे इसे कॉमेडी समझकर झुठलाते रहे।

‘‘कोई भी प्रेम चाहे वह कितना ही महान क्यूँ न हो, अंततः हास्यास्पद होता है, लेकिन जब सब ख़त्म होने लगे तब वही छलावा जीने के लिए ज़रूरी हो जाता है।’’

प्रेम की एक गहरी चोट से वह उबर नहीं पाए। लगता है उनका प्रेम ‘अर्धपक्ष’ कहानी में ही क़ैद रह गया। वह कहानी लिखकर भी उससे मुक्त नहीं हो पाए। अपने आत्मवक्तव्य में उन्होंने पहले प्रेम को बहुत ही शिद्दत से याद किया है। लेकिन दूसरे प्रेम पर चुप्पी मार गए हैं। क्योंकि वही प्रेम—उनके जीवन की दुखती रग थी। ऑफ़िस के प्रेम और गॉसिप के जिस टॉर्चर से वह गुज़रे थे, उसका उनके ऊपर बहुत बुरा असर हुआ। वह उस ट्रॉमा से कभी उबर नहीं पाए। एक हद तक उन्होंने इसके बारे में अपनी उस कहानी में लिखा है। अनेकों बार आपसी बात-चीत में वह उन अनुभवों का छुपते-छुपाते मज़ाक़िया अंदाज़ में ज़िक्र करते थे। वह प्रेम अगर सफल हो जाता तो शायद वह कोई दूसरे शशिभूषण द्विवेदी होते। लेकिन हर आदमी की अपनी नियति होती है, इसमें किसी दूसरे की दखलंदाज़ी कुछ ज़्यादा नहीं होती। बाद में उन्होंने घर परिवार की मर्ज़ी से शादी की और अपनी पत्नी का उन्होंने जितना हो सके ख़याल रखने की कोशिश की। हालाँकि ‘कहीं कुछ नहीं’ संग्रह के आत्मवक्तव्य में प्रियंवद को उद्धृत करते हुए उन्होंने लिखा है : ‘‘तीसरे प्रेम के विकल्प को मैंने अभी बचा रखा है और इसे खोना नहीं चाहता। क्योंकि एक मनुष्य की तरह मैं अब भी प्रेम करना चाहता हूँ। मनुष्य की तरह प्रेम करने का अर्थ क्या यही नहीं है कि मैं मनुष्य की तरह जीना चाहता हूँ।’’

वह हमेशा पुरानी मुलाक़ात में किए वादे को नई मुलाक़ात में बड़े ही सलीक़े से तोड़ते हुए हमारे सामने प्रकट होते थे। शुरुआती दिनों में मुझे कुछ हैरत होती कि भला कोई ऐसे भी आवेगहीन ज़िंदगी बसर कर सकता है। मैं उन्हें कभी टोकता, कभी जानबूझकर नज़रंदाज़ कर देता था। अविनाश (मिश्र) उनकी रोज़-रोज़ की बढ़ती हुई लापरवाहियों से तंग होकर उन्हें बेतरह डाँट भी देता था। क्योंकि भाभी को कुछ नहीं सूझता था तो वह समझाने के लिए सबसे नज़दीक होने की वज़ह से उसे ही बुलाती थीं। मुझे भाभी के उलाहने सुनकर कभी-कभी लगता जैसे हम सब लिखने-पढ़ने वाले लोग उनके परिवार के सदस्य हों और वह शशि जी की ग़लतियों के लिए हमें कम्प्लेन कर रही हों। हम उन्हें जो कहना-समझाना होता कह कर चले आते। लेकिन बदहवास और अवसादित क्षणों में असली परीक्षा उनकी ही होती, वही हैं जिन्होंने उनको इतने दिन यहाँ रोके रखा, नहीं तो वह तो मानसरोवर के हंस की तरह हमेशा उड़ने के लिए बेचैन रहते थे।

मैं जब तक दिल्ली रहा अविनाश के साथ उनके यहाँ कितनी बार गया हूँ। घर के बाहर भी मंडी हाउस, साहित्य अकादेमी, त्रिवेणी सभागार, प्रगति मैदान और जाने कहाँ-कहाँ आवारगी के उन रंगरूट दिनों में वह हमें मिले हैं। उनके और अविनाश के साथ तिलक ब्रिज से साहिबाबाद की डेली पैसेंजरी के क़िस्सों को सुनते कई यादगार यात्राएँ हैं। हर मुलाक़ात में हम उन्हें कुछ नया लिखने के लिए प्रोत्साहित किया करते, क्योंकि मुझे लगता कि उनके सारे मर्ज़ का इलाज उनका लिखना ही हो सकता था। लेकिन वह तो अलग ही क़िस्म के मनई थे। एक बालहठ था उनके भीतर ख़ुद से ऐसा निस्पृह आदमी मैंने बहुत कम देखा है। उन्हें किसी की बात का कुछ भी फ़र्क़ ही नहीं पड़ता था। कौन उन्हें सम्मान दे रहा है, कौन गाली! वह इन सब बातों से लापरवाह थे। उन्होंने कभी किसी की कोई बुराई की भी तो बिना किसी एजेंडे के सिर्फ़ मज़े के लिए। अपनी निर्दोषता में कभी-कभी वह दूसरों के एजेंडे में फँस जाते और अपना पर्याप्त नुक़सान करा बैठते थे। वह एक ऐसे शख़्स थे जो नए लिखने वालों से लेकर विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे बुज़ुर्ग तक से उसी सहजता से मिलते थे। इसीलिए उनसे मिलने वाला हर आदमी को उनकी इस सरलता से पर्याप्त जुड़ाव महसूस करता था।

‘‘हाँ महीने भर के ट्रांस से बाहर निकला मुश्किल से। अजीब डिप्रेशन का शिकार था, कुछ सूझ नहीं रहा था। बस शराब। नींद ग़ायब, सुबह उठते ही ठेके पे भागता। अब साली ऐसी दवाई खा रहा हूँ कि पी ही नहीं सकता। डायजोन! पत्नी अलग तंत्र-मंत्र कर रही है। इस सबने दुखी कर दिया है। जो पसंद नहीं है वही करो। कोई नहीं झेल लूँगा।”

— 10 मार्च 2017 (मुझे भेजे एक मैसेज में)

उनकी मानसिक स्थिति एक अंतराल पर जब तब बहुत बिगड़ जाती थी। ऐसी स्थिति में वह अपना संयम खो देते थे। यह दौर लंबा चलता कभी-कभी तो एक-डेढ़ महीने से ज़्यादा। यह घरवालों के लिए बहुत दारुण होता था। मैं यह कभी नहीं जान पाया कि वह कोई गहरा दुःख था इसलिए पीते थे या पीते थे इसलिए ही उनका दुख बढ़ता जाता था। लेकिन इतना तय था कि इन लम्हों मे वह जितनी प्रताड़ना झेलते अपने प्रियजनों को उससे कहीं अधिक परेशान करते थे। उनकी हालत से कभी-कभी भारी झल्हलाट होती थी। सबकी इतनी परवाह करने वाला, आदमी स्वयं के प्रति इतना लापरवाह कैसे हो सकता था। कई बार लगता था कि वह अपनी कहानियों के अधूरे किरदारों को अपने हिस्से का जीवन देकर पूरा कर रहे हैं। कहानी उनके जीवन में ऐसी घुस गई थी कि वह ख़ुद अपने किरदारों के क़ैदी लगते थे। अपनी ग़लतियों का एहसास उन्हें था कि उन्होंने कैसे लोगों को अपने व्यवहार से कष्ट दिया है। उनकी कहानी ‘कहीं कोई नहीं’ में कुमार साहब की तरह शायद वह ख़ुद भी ऐसा ही सोचते थे।

“जब मैं चिरनिद्रा में सो जाऊँ
तो मेरी ग़लतियाँ लोगों के दिलों में न चुभें
लोग मुझे याद करें
और मेरे भाग्य पर न रोएँ
मुझे याद करें… मुझे याद करें…’’

एक बार जब उनकी हालत बहुत अनियंत्रित हो गई थी। उन्हें ऐसी बेचैनी थी कि वह महीनों ऑफ़िस नहीं जा पाए थे। दिन भर घर में पड़े रहते थे। वह भयानक अवसाद का समय था। हाथ-पैर बेतरह काँपते थे। रजनीगंधा और तुलसी भी ठीक से मिला नहीं पाते थे। नौकरी छूटने जैसी नौबत आ गई थी। अवसाद को अभी तक समाज ने गंभीरता से लेना नहीं शुरू किया है, जबकि यह मृत्यु-संगीत बन हमारे दायरे में हमेशा गूँजता रहता है। उस दौरान उनका व्यवहार बहुत ही आत्मघाती हो गया था। भाभी उन्हें घर में बाहर से बंद कर ही कभी थोड़ी देर के लिए बाहर जाती थीं। उनके बाहर भाग जाने का डर हमेशा बना रहता था। ऐसी हालत थी कि लग रहा था किसी मेंटल हॉस्पिटल में एडमिट कराना ही पड़ेगा। बात भी हो गई थी कि कुछ दिनों के लिए इन्हें वहीं रखा जाए। मैंने अपने एक डॉक्टर दोस्त को उनकी रिपोर्ट भेजी थी। उसने मुझे बहुत स्पष्ट शब्दों में इस तरह के परिणाम के लिए चेताया था। वह कई मनोचिकित्सकों से भी मिले, लेकिन कोई विशेष आराम नहीं हुआ। उन्हें कितनी बार प्रत्यक्ष और फ़ोन पर समझाया कि आप लिखने पर फोकस कीजिए, जीवन रूपांतरित हो जाएगा। लेकिन वह तो अपनी कहानी ‘काला गुलाब’ के किरदार शरद की तरह थे :

“शरद जमीन का नहीं, आसमान का वासी था। दूर… ऊँचे उड़ते हुए परिंदे उसे अच्छे लगते। जब छोटा था तब सोचता था कि मरकर आदमी ऐसे ही आसमान में उड़ जाता होगा।

‘मरकर आदमी परिंदा हो जाता है…’ पिता भी अक्सर यह कहा करते थे। माँ ने इस बारे में कुछ नहीं कहा। पूछने पर भी नहीं। माँ को डर था कि कहीं घर के और लोग भी परिंदे न बन जाएँ। पिता का धीरे-धीरे परिंदा बनते जाना वह ख़ूब देख रही थी।”

मैंने कई बार उन्हें बहुत ही बेतरतीब और बिखरी हालत में घर पहुँचाया है। इतने संवेदनशील आदमी की शायद यही नियति होती है। रोज़ आपको जीवन हाशिए पर ढकेलता जाता है। आप बिना कुछ प्रतिकार के मज़ाक़ में उड़ाए सब कुछ बर्दाश्त करते चले जाते हैं। एक मध्यवर्गीय पत्रकार का जीवन जो दफ़्तर के रीढ़हीनों से जूझते हुए बीतता है, उससे उन्होंने एक तरह का समझौता कर लिया था। उन्हें ज़िंदगी की इस चूहादौड़ का एहसास हो गया था। हिंदी साहित्य संसार के सफ़ेद-स्याह पक्ष को उन्होंने बहुत अच्छी तरह देख लिया था। अपनत्व और चाहनाओं से भरा दिल्ली का साहित्यिक परिवेश जिसकी लालसा में वह यहाँ आए, धीरे-धीरे व्यक्तिविहीन होने लगा था। ऐसा नहीं था कि दिल्ली में लोग नहीं थे, लेकिन उनमें हिंदी का चरित्र नहीं था, वह भीड़ थी जो किसी आयोजन या पुस्तक मेले से आ रही थी या जा रही थी। एक-एक कर बेहद क़रीबी चाहे रवींद्र कालिया, पंकज सिंह, नीलाभ, सुशील सिद्धार्थ, प्रेम भारद्वाज जैसे लोग जिनसे उनका सतत संवाद था; धीरे-धीरे चले जा रहे थे। दिल्ली रहते जुए कितनी बार साहित्यिकारों की अंतिम यात्रा में मैं उनके साथ कश्मीरी गेट और लोधी गार्डन गया हूँ। हम जब भी लौटते हर बार पहले से ज़्यादा मायूस हो जाते थे। दिल्ली पर से एक से एक बुज़ुर्गों का साया उठता जा रहा था। हर मौत दिल्ली का एक-एक कोना सूना करती जा रही थी।

वही है ज़िंदगी लेकिन जिगर ये हाल है अपना
कि जैसे ज़िंदगी से ज़िंदगी कम होती जाती है

— जिगर मुरादाबादी

इसलिए वह किसी से भी अब बहुत कुछ उम्मीद नहीं करते थे। साहित्य की दुनिया में वह बहुत कुछ त्याग कर कुछ सार्थक रचने के रूमानी ख़याल से आए थे। दिल्ली आने से पहले वह कई शहरों और कई नौकरियों में ख़ुद को आज़मा चुके थे। उनकी कहानियों के सहज शिल्प और भाषा इस बात की ताक़ीद करती है कि वह बहुत ही ऑर्गेनिक क़िस्सागो हैं। कहानी लिखने की शुरुआत से ही उन्हें संपादकों ने बहुत प्रेम दिया। लेकिन उन्हें साहित्य में मौजूद साहेब-बंदगी का जैसे-जैसे एहसास होता गया, वह पूरे परिदृश्य से उनमें एक वैराग्य उत्पन्न होता चला गया।

दफ़्तरी मूर्खताओं से कभी-कभी वह इतने चट जाते थे कि कई बार मुझसे कुछ अलग करने के लिए कहा करते थे। भविष्य को लेकर मेरी साहित्यिक योजनाओं में उनकी हिस्सेदारी हो सकती थी। लेकिन उनमें इतना धैर्य कहाँ? साहित्यिक पत्रकारिता में बेमन से रहना उनके लिए एक जेल से कम नहीं था। दूसरों की घटिया कविता-कहानी को ठीक करते हुए उनके ख़ुद के लिखने की इच्छा ही ख़त्म हो जाती थी। लेकिन और कोई विकल्प भी तो नहीं था। वह पहले भी नौकरी को लेकर बहुत सारे प्रयोग और शहर बदलकर देख चुके थे। कहीं भी चैन नहीं था। हर जगह इतनी ही घुटन थी। उन्हें लग गया था कि वह एक ऐसे चक्र में फँस गए हैं जिससे बाहर नहीं निकल सकते, इसलिए ऊपर-ऊपर से वह साहित्य में सक्रिय दीखते, लेकिन अंदर से इसे लेकर उनका उत्साह एकदम क्षीण होता जा रहा था।

ऐसी स्थिति में दोस्तों-साथियों के सहारे की बड़ी ज़रूरत होती है। लेकिन दिल्ली में उनका कोई हमउम्र ऐसा सहारा नहीं था। सारे दोस्त एक-एक कर बिछड़ गए थे या अपने-अपने जीवन में खप गए थे। साहित्य से इतर के जो दोस्त थे भी, उनसे उन्होंने ख़ुद ही एक दूरी बना ली थी। साहित्यिक दोस्तियों का हाल और भी बुरा था। लोग उनके हास्य-व्यंग्य को समझ नहीं पाते थे। क्योंकि हिंदी की दुनिया में विगत सालों में जिस एक चीज़ का सबसे ज्यादा क्षरण हुआ है, वह हास्य-व्यंग्य का ही हुआ है। हास्य नहीं होने के कारण ही इतनी लड़ाइयाँ घात-प्रतिघात दीखता है। हिंदी की दुनिया से हास्य और करुणा अब पलायन कर चुकी है। अब दृश्य में साहित्यिक चेतना से शून्य अधकचरे पत्रकारों के जिन्गोइज्म और कुंठा की भाषा है जो हिंदी साहित्य और साहित्यकारों को गालियाँ देने के अवसर की ताक में रहते हैं।

ताब किसको जो हाल-ए-मीर सुने
हाल ही और कुछ है मज्लिस का

— मीर-तक़ी-मीर

साहित्य एक सामाजिकता, एक सामूहिकता की माँग करता है। ख़ासकर वैसा साहित्यिक समाज जो आर्थिक दृष्टि से बहुत विपन्न है। अपनी-अपनी दुकान सजाने और जलेबी बेचने के इस बेस्टसेलर दौर में शशिभूषण द्विवेदी जैसा लेखक अपने आपको कहीं नहीं पाता था। एक ऐसी दुनिया जिसमें साहित्य से ज़्यादा साहित्येतर ब्रांडिंग की ज़रूरत है। जहाँ रोज़ नए लेखक अपना पैसा ख़र्च कर हिंदी की दुनिया में अपने बचकाने लेखन से पहचान बना रहे हैं। फिर उसी पहचान और जुगाड़ से फ़िल्म इंडस्ट्री में अपनी कहानियों को बेच रहे हैं। फिर वापस आकर इसी साहित्य की दुनिया में अपने सेलिब्रिटी स्टेटस की धौंस पैदा कर रहे हैं। यह एक ऐसा खेल था जिसे शशिभूषण द्विवेदी बहुत अच्छी तरह समझ रहे थे। उन्हें हिंदी के भविष्य का इल्म हो गया था।

इस हाहाकारी और यशलोलुप समय में कौन यह संज्ञान ले कि कोई लेखक क्यूँ नहीं लिख रहा है या नहीं लिख पा रहा है, वह आजकल क्या पढ़ रहा है और भविष्य में उसकी लेखन-योजनाएँ क्या हैं, क्या चीज़ उसे इन दिनों परेशान किए हुए है… हिंदी की दुनिया में एक दूसरे की चिंता करना अब कम हुआ है। यहाँ पैसे तो पहले ही नहीं थे; अब प्रेम, फ़िक्र और सम्मान भी नहीं रहा। ऐसे में शशिभूषण द्विवेदी जैसे संवेदनशील लोग बहुत घुटन महसूस करते थे।

हमारे आस-पास हमेशा कोई न कोई शशिभूषण द्विवेदी होता है जिसे हम नज़रअंदाज़ करते हैं, क्योंकि उसके पास ऐसी कोई सत्ता नहीं होती जिससे हमारा कोई स्वार्थ सध सके। एक लो-प्रोफ़ाइल आदमी जो सिर्फ़ लिखना और प्रेम करना जानता हो, जिसकी कोई ब्रांड या स्टार वैल्यू न हो; हिंदी को शायद ही अब ऐसे लेखक की कोई ज़रूरत है। इस निराशा को झेलते हुए भी उन्होंने कभी कोई कटुता ज़ाहिर नहीं की।

अब जब मैं उनके साथ बिताए वक़्त को याद करता हूँ तो लगता है कि उनकी चेतना कहानियों को रचते हुए कुछ अलग ही स्तर पर पहुँच गई थी। जहाँ हम जैसे लोगों की रसाई नहीं है। उन्होंने अपनी कहानियों में अपने चरित्रों के माध्यम से इतने अपमान और मृत्युबोध का सामना किया था कि शायद यह दुनियादारी बिखर गई थी, जिसे वह कोशिश करके समेटना भी चाहते थे तो समेट नहीं पाते थे।

जब मैं उनकी कहानियों से गुज़रता हूँ तो लगता है कि उन्होंने उन कहानियों को रचा और फिर उनका लिखा ही धीरे-धीरे बीते सालों में उन्हें रचता रहा। ध्यान से पढ़ने पर ऐसा लगता है कि उनके कथासूत्र जीवन में और जीवनसूत्र कथा में आकर ही अपना आयाम पाते हैं। उनके पहले संग्रह की कहानियाँ एक रोमांटिक कवि की त्रासद भरे जीवन का आख्यान लगती हैं। ‘काला गुलाब’ के शरद की डायरी कहीं-कहीं उनकी ख़ुद की डायरी लगने लगती है। ‘अर्धपक्ष’ का प्रेम तो एक हद तक उनकी ही प्रेम-कहानी प्रतीत होता है। इसका वह कई बार हँसते हुए मुझसे ज़िक्र कर चुके थे कि वह कितने घनघोर उदासी भरे दिन थे, लगा था कि जीवन ही ख़त्म हो गया था। उस कहानी का नायक आत्महत्या कर लेता है। उन्होंने स्वयं को प्रताड़ित कर जीने का दूसरा रास्ता चुना—ऐसा रास्ता जिसमें अपनी निस्सारता में जीवन जीने की इच्छा ही धीरे-धीरे लोप हो जाए।

मैं जब 2014 में उनसे मिला, तब तक वह अपना श्रेष्ठ लिख चुके थे। ऐसा लगता था कि वह उन दिनों अपने जीवन और लेखन का आगे क्या करना है, इसको लेकर थोड़ा ठहरकर विचार कर रहे थे। उन्हें ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार मिले हुए एक अरसा हो चुका था। बतौर कहानीकार के रूप में हिंदी की दुनिया में उनकी एक पहचान थी। ‘मोहल्ला’ पर लिखे कलयुगी वेदव्यास से उन्होंने पर्याप्त कुख्याति और दुश्मनी अर्जित कर ली थी। योगी आदित्यनाथ से सम्मानित होने पर अनिल यादव के साथ उदय प्रकाश को घेरने में उनकी भी भूमिका थी। ये कुख्यातियाँ और दुश्मनियाँ मृत्यु के बाद भी उनका पीछा नहीं छोड़ रही हैं। उनके टिप्पणियों के ताप से दग्ध लोग आज उनकी राख को कुरेद सुख महसूस कर रहे हैं।

मैं उन्हें उनके लेखन और विवादों से थोड़ा-बहुत पहले से जानता था। वह 2011 से मेरे फ़ेसबुक मित्र थे। उनसे मिलने से पहले मैं उन्हें बहुत कठकरेज समझता था, लेकिन उम्मीद से अलग मिलने पर बातचीत में वह बहुत शांत थे। पुराने मित्र लगभग उन्हें छोड़कर चले गए थे। दिल्ली में ले-देकर उनके पुराने मित्रों में दो लोग थे—प्रभात रंजन और कुमार अनुपम, लेकिन वे भी अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त थे। कुमार अनुपम से मैं जब भी मिला वह शशिभूषण द्विवेदी के लिए हमेशा चिंतित और परेशान मिले। साहिबाबाद की एक अँधियारी बिल्डिंग जिसका रख-रखाव बहुत ही ख़राब था के एक फ़्लैट में वह अपनी पत्नी के साथ रहते थे जिससे बमुश्किल सौ मीटर की दूरी पर शराब का ठेका हुआ करता था। बाद में बहन की मदद से उन्होंने नया घर लिया और उसमें शिफ़्ट हो गए।

उन दिनों वह नीलाभ, पंकज सिंह, कृष्ण कल्पित और राहुल पांडेय से घिरे थे। मेरी उनसे एक यादगार मुलाक़ात अगस्त 2015 में अमितेश कुमार के साथ राहुल पांडेय के घर की छत पर हुई थी। वहीं पर मैं कृष्ण कल्पित और नीलाभ से भी मिला था। उस रात बैठकी में देर हो जाने पर अमितेश ने अपनी स्कूटी से शशि जी और मुझे जुबली हॉल छोड़ा था।

इसके कुछ रोज़ बाद ही वह इस तरह की बैठकों से दूर होते गए। अविनाश से उनकी वाया हरे प्रकाश उपाध्याय पहले की जान-पहचान थी। दोनों लोग एक ही इलाक़े में रहते थे। वह ‘कादम्बिनी’ और अविनाश ‘पाखी’ में था। काम कम या ज़्यादा दोनों का लगभग एक ही जैसा था। इसलिए दोनों को संवाद और विवाद के लिए बहुत सारे मुद्दे मिलते रहते थे। वह अविनाश का ‘पाखी काल’ था—जितना अराजक उतना ही उत्पादक—आए दिन वह किसी न किसी विवाद में पड़ता रहता था। इस तरह की स्थितियों में जहाँ उसकी ग़लती होती शशि जी उसे बहुत समझाते थे। वह अविनाश और प्रेम भारद्वाज के बीच एक कड़ी की तरह थे। अविनाश उनकी बहुत कम बातों को मानता, लेकिन वह उसके स्वघोषित स्थानीय अभिभावक थे। कई बार तो बहस के गंभीर क्षणों में दोनों में लड़ाई जैसी स्थिति हो जाती थी। लेकिन ऐसी छोटी-मोटी लड़ाइयाँ इन सालों में दोनों के संबंध पर कुछ ख़ास असर नहीं डाल पाती थीं। अविनाश की वजह से ही वह मुझसे भी मिले और फिर अमितेश और उदय शंकर से भी जुड़ गए। अविनाश की शादी में हमारे और कई मित्र उनके भी मित्र बन गए। अमितेश की उनके हास्य और व्यंग्य से ख़ूब ट्यूनिंग बनती थी। उनके बीच आपस में अच्छी बॉन्डिंग थी। वह उसे हम सबसे ज़्यादा समझदार मानते थे और उससे बातचीत में बहुत सहज रहते थे। जो बात वह मुझसे नहीं करते थे, उसे अमितेश से आसानी कर लेते थे। अमितेश की इलाहाबाद विश्वविद्यालय में नियुक्ति के बाद वे दोनों इलाहाबादी क़िस्सों को साझा करते हुए और अधिक क़रीब हो गए। लेकिन इसके साथ ही अपने स्याह पोखर में भी धीरे-धीरे डूब रहे थे। हम जब-तब उनकी चिंता करते, उन्हें समझाने की कोशिश करते; लेकिन हम चाह कर भी कुछ कर नहीं पाते थे।

मेरे सामने वह ज़्यादातर शांत रहते थे। उन दिनों उनकी मनोदशा ऐसी थी कि लगता वह अपने गंतव्य के नज़दीकी स्टेशन पर पहुँचकर ट्रेन से उतर चुके हैं। अब यहाँ से उन्हें आगे की यात्रा पैदल ही करनी है। उनके मन में किसी चीज़ को लेकर कोई हड़बड़ाहट नहीं दिखती थी, लगता था कि जहाँ जाना है; वहाँ से अभी कोई इशारा नहीं मिला है। इसलिए सूटकेस लिए वह प्लेटफॉर्म पर ही बैठे हैं। कभी उचककर देख लेते कि कोई आया तो नहीं, कोई इशारा तो नहीं कर रहा है और फिर दुनिया के राग-रंग में लग जाते थे। ईर्ष्या-द्वेष कुछ पाने की होड़ जैसी स्वाभाविक मानवीय हलचलों से वह बहुत दूर थे। कुछ मिल गया तो बच्चों की तरह ख़ुश हो जाते थे। एक खिलंदड़पना उनके स्वभाव में हमेशा से था। कभी किसी की निंदा की भी तो उसका कोई विशेष प्रयोजन नहीं होता था, बस बकैती के जोश में कर दिया, कह दिया और बात को वहीं दफ़्न कर उठ गए।

कभी वह जब मूड में होते तो उनके पास बतरस का एक पूरा संसार होता। इसे वह रजनीगंधा-तुलसी की सुगंध के साथ अपनी बातों के बीच चेपते रहते थे। वह इस यक़ीन से कोई बात कहते कि जैसे मुझे उस बात का कोई सिरा ज़रूर पता होगा। मैं बहुत बार गच्चा खा जाता। क्योंकि साहित्य के अंदरख़ाने की बातों में मुझे न उतना रस आता, न उतनी जानकारी ही थी कि मुझे कुछ दिलचस्पी हो। बाद में वह मुझसे ज़्यादातर अपनी विज्ञान की फ़ैंटेसी से जुड़ी जिज्ञासाओं को ही पूछते। 21 मार्च को फ़ोन पर उनसे हुई आख़िरी लंबी बातचीत में भी वह कोरोना के बाद की दुनिया को लेकर अपनी हाइपोथीसिस और सवालों को लेकर ही मुझसे बहस कर रहे थे। बाद में जाकर उन्होंने फ़ेसबुक पर उसे लिख भी दिया था।

फ़ेसबुक पर लिखने की वजह से उनके बहुत संबंध ख़राब हुए, लेकिन इधर कुछ महीनों से वह किसी को दुखी करने से बचते थे। कोरोना के बाद तो उनका अपना सेल्फ़ सेंसर कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया था। बहुत चढ़ाने पर भी वह मज़े के लिए भी किसी को कुछ बोलने से कतराते थे।

उनसे आख़िरी भेंट गई जनवरी में हुई थी—अविनाश के यहाँ। मैं उनसे बतियाते हुए अविनाश के यहाँ से उन्हें उनके घर छोड़ने जा रहा था। वह देश की हालत को लेकर बहुत ही बेचैन थे। ऐसा लग रहा था कि उन पर कोई दौरा आ जाएगा। वह तेज़ी से सड़क पर चलते हुए ज़ोर-ज़ोर से बोले जा रहे थे। अँग्रेज़ अलग थे कि गांधी के आंदोलन करने से मान गए। ये भाजपा वाले बहुत कमीने हैं, बिना भगत सिंह के रास्ते गए कुछ नहीं होगा। बम चलाना होगा। गोली मारनी होगी तब सुनेंगे, लेकिन ऐसा करने पर ये बहुत पीटेंगे। बहुत जोखिम है, लेकिन लेना होगा। इस धरना-आंदोलन से कुछ नहीं होने जा रहा है।

नागरिकता संशोधन बिल पारित हो जाने की वजह से उस समय दिल्ली का माहौल डर और दहशत से भरा हुआ था। पूरे देश में नागरिकता क़ानून का विरोध हो रहा था। मैंने आजू-बाज़ू नज़र डाली, कुछ लोग हम लोगों की तरफ़ घूरते हुए नज़र आए। यह देखकर मेरी हालत ख़राब हो रही थी। कहीं कोई देशद्रोही समझकर पीटने न लगे कि क्या बकवास कर रहे हो। मैं कभी उनकी ओर देखता तो कभी शशि जी को चुप कराता। मैं जितना उन्हें चुप कराता, वह उतनी ही ज़ोर से बोले जा रहे थे। बहरहाल, बिना किसी अयाचित घटना के मैंने किसी तरह उन्हें उनके घर की गली तक छोड़ा। यही उनसे मेरी आख़िरी मुलाक़ात थी। अभी कुछ दिन पहले राजकमल प्रकाशन के फ़ेसबुक लाइव में वह संजीदा दिख रहे थे। उन्होंने बहुत अच्छे से अपनी कहानी का पाठ किया था।

इस कोरोना-काल में लगातार मिल रही ख़बरों से वह बहुत ज़्यादा परेशान रहने लगे थे। लॉकडाउन ने उनकी उद्विग्नता और बेचैनी को और बढ़ा दिया था। वह लगातार कोरोना-विमर्श में उलझते जा रहे थे। कोरोना के बाद की दुनिया को लेकर वह बहुत चिंतित रहने लगे थे। मैंने उनसे कहा था कि आप बेफ़िक्र रहिए, आपको कुछ नहीं होगा। आप घर से बाहर मत निकलिएगा, वायरस उड़कर तो आपके पास नहीं आएगा। इस पर उन्होंने कहा था कि अगर मैं बच भी गया तो इस संकट में बहुत लोगों को खोकर जीना होगा और वह जीना बहुत दुखदायी होगा। शायद आने वाले संकट को वह भाँप गए थे। हर तरफ़ फैली निराशा से वह धीरे-धीरे हताश होने लगे थे। ऐसे में वही पुराना डर जिसे मैं दिल्ली से बिहार आकर पिछले एक-डेढ़ सालों में भूल गया था। इस लॉकडाउन के भयावह समय में हक़ीक़त बनकर प्रकट हुआ। पिछले कुछ महीनों से मैं उनके बारे में कुछ अनर्गल और अशुभ नहीं सुन रहा था। मुझे लगने लगा था कि उनका स्वास्थ्य ठीक और जीवन शायद संयत हो गया है। वह सूचना जिसके लिए मेरे डॉक्टर दोस्त ने वर्षों पहले मन ही मन तैयार कर दिया था, बुद्ध पूर्णिमा के दिन शाम को मिली। क्या दिन चुना उन्होंने जाने के लिए—उनकी कहानियों में बुद्ध का संदर्भ कई जगह आया है। एक जगह किसी संदर्भ में लिखा भी है—‘बुद्ध-मृत्यु’।

उन्हें चले जाना था—वे चले गए, बहाना कोई भी हो। वह अपने वृहत परिवार जिसका मैं भी एक सदस्य था को अपनी अनुपस्थिति और उपस्थिति के क़िस्सों के साथ छोड़ गए। यह दुनिया जैसी है और आगे जैसी बनने जा रही है, उसमें उनके जैसे हस्सास आदमी की भला क्या ज़रूरत थी। वह तो लगता था ग़लती से यहाँ आकर फँस गए थे, जैसे ही मौक़ा मिला निकल लिए : भाई लो तुम्हारा है, तुम ही सँभालो यह चकल्लस। अब जब भी दिल्ली जाऊँगा राजेंद्र नगर, साहिबाबाद का वह कोना मेरे लिए सुना रहेगा। हिंदी साहित्य के लिहाज़ से वह एक कहानी जो वह लिखना चाह रहे थे, अब कभी लिखी नहीं जाएगी।

शशिभूषण द्विवेदी (26 जुलाई 1975-7 मई 2020) हिंदी के अत्यंत महत्त्वपूर्ण और सम्मानित कहानीकार हैं। उनके दो कहानी-संग्रह ‘ब्रह्महत्या तथा अन्य कहानियाँ’ (2005) और ‘कहीं कुछ नहीं’ (2018) शीर्षक से प्रकाशित हैं। सुधांशु फ़िरदौस से परिचय के लिए यहाँ देखें : प्रतीक्षा को प्रार्थना में दुहराते हुए

1 Comment

  1. रविरंजन मई 14, 2020 at 2:08 पूर्वाह्न

    सुधांशु
    आपने बहुत मार्मिक व हृदयस्पर्शी संस्मरण लिखा। मैं एक धुन में पढ़ गया।
    आप बहुत अच्छा लिखते हैं। आपकी भाषा साहित्य के ताप से सृजित है।
    बहुत शुभकामनाएं।

    रविरंजन
    घाटशिला (झारखंड)

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