मुंबई से लौटकर ::
विकास त्रिवेदी

प्लेटफॉर्म पर खड़ी ट्रेनों के शीशों को आंखों से छाना, कुछ नहीं मिला.

बम्बई जाने वाली कई ट्रेनों के डब्बों पर लगे किसी चार्ट पर कोई ‘पहचानियत’ नहीं दिखी. शुरू से आखिर तक भागते हुए हरेक ट्रेन खोजी, कुछ नहीं दिखा. कुछ नहीं, जो सब था. महीनों बाद पता चला, उस शाम बम्बई जाने का रास्ता हवाई पकड़ा गया था.

दिन, बरस बीते लेकिन वो शाम, पांच साल पहले से अब तक वहीं अटकी है. मैंने कभी समंदर नहीं देखा था, लगता था कि देखूंगा तो रो दूंगा. न देखने की जल्दी थी, न रोने का डर. बस एक डोर-सी अटकी थी. सुलझी चीजों ने सबसे ज्यादा उलझों को उलझाया है. हम प्यार में शरीक होने और ठुकराए जाने के दुख में इस कदर डूबे लालची लोग हैं कि प्यार हमें असल में चाहिए ही नहीं. सारी मंजिलें बस कोना छूकर लौटने की हैं. कोने पर जो खड़े रहे, वो डूबे नहीं.

‘पहली बार समंदर देखने के लिए तुमने गलत शहर चुना.’

बम्बई पहुंचने के पांच मिनट भीतर ही लगा कि फौरन लेह चला जाऊं. बम्बई से सिर्फ पांच मिनट में जी चट गया. लगा कि कोई पांच साल या जिंदगी भर इस शहर से कैसे नहीं उकताया और लौटकर दिल्ली या पहाड़ों की तरफ क्यों नहीं लौटा. ये सोचते हुए बम्बई जाने की टिकट में लगे मेरे पैसे याद आए. भारत में बौद्धिकता और एड्स लाइलाज बीमारी है. ये सोचकर मैंने विमर्श को मराठी में ‘वसा..वसा’ कहकर बैठा दिया और झोला उठाकर ‘हैशटैग #एकला चलो रे’ पर फोकस किया.

‘सपनों का शहर, ये शहर किसी के लिए नहीं रुकता, लोग भागते रहते हैं, ये शहर कभी नहीं सोता.’ ये इतनी घिसी लाइनें हैं कि शिवसेना या राज ठाकरे सेना को इन्हें उत्तर भारतीय कहकर बंद करवा देना चाहिए. अपने को लिखे हुए में घिसे-पिटे वाला मच-मच नहीं मांगता है. समझा न? वैसे भी दुनिया नहीं जानती कि रोज अपने अपने कमरों में कितने ही लोग सो नहीं रहे हैं, क्योंकि उनके दिल के करीब के शहर भूकंप के बाद मलबा बन चुके हैं.

सुबह सोने वालों के दुख उजालों में नहीं दिखते.

अक्खा बम्बई ईस्ट और वेस्ट में बंटा है. उत्तर के लिए कम जगह है. शहरों में अपनी जगह बनाने के लिए भाषा को कब्जे में लेना सबसे आसान रास्ता है. बांद्रा को वांद्रे बोलकर मराठी फील आता है. अक्खा दुनिया में सारा पइसा फील का हिइच है. मैं बंबइया बोलने लिखने की सस्ती नकल कर रहा हूं, ये भी अपुन को मालूम है.

बम्बई की लोकल. F यानी फास्ट और S यानी स्लो. दिल्ली मेट्रो की अनाउंसमेंट करने वाली औरत बम्बई की लोकल में चढ़ेंगी तो उतरकर वहीं से नंगे पैर लौटकर यमुना बैंक में जमा हो जाएंगी. बम्बई लोकल की अनाउंसमेंट सुनने के लिए जोर लगाना पड़ता है. हां, एक ऐड है जो रिपीट होता रहता है. ऐसा लगता है कि छत पर सिलवटिया लेकर हरदोई वाली बुआ बैठी हैं और कह रही हैं, ‘स्वाद सुगंध का राजा बादशाह बनाए बढ़िया खाना… बादशाह मसाला.’

बॉलीवुड की फिल्मों ने गैर-बंबइया को कुछ दिया हो या न दिया हो, थोड़ा-थोड़ा बम्बई जरूर दिया है. लोकल के हैंडल से लेकर हवलदारों की नुकीली टोपी तक. असल में देखो तो लगता है कि अभी गली से कोई ‘भाई’ निकलेगा और बोलेगा : चल हफ्ता दे. और हफ्ता न चुकाने वाले की बहन की इज्जत लूट लेगा.

फिर सिद्धिविनायक मंदिर से आरती कर निकला हीरो मारपीट करेगा और सब ठीक हो जाएगा. फिल्मों में मंदिर की लाइन से हीरो कैसे बच निकलता है, ये सवाल उठा लेकिन लोकल की खाली सीट देखते ही बैठने जैसा बैठ गया. अपने को ज्यादा मच-मच नहीं मांगता है.

इंसान को सेक्यूलर कैसे होना चाहिए, मैं इसकी क्लास दे सकता हूं. इस क्लास में डेफिनेशन के अलावा सब पढ़ाया जाइंगा. हां तो आप सिद्धिविनायक मंदिर से निकलिए और बेस्ट की बस पकड़कर हाजी अली पहुंचिए. भीतर के धार्मिक बंदे का ऐसा एनकाउंटर होइंगा कि ‘शूटआउट एट लोखंडवाला’ भी शरमा जाइंगा. हाजी अली नाम से कट्टर मुसलमान लगता है. सभी धर्मों के लोग वहां जाते हैं, इस बात का लोड तू क्यों लेता है. ये बम्बई है, यहां छाती पर कार चढ़ाने वाला लोड नहीं लेता, तू बात क्या करता मेरे से.

दिन के उजाले में ये पहली दफा था, जब मैं समंदर देख रहा था. दूर सूरज डूब रहा था. समंदर इतनी दूर तक फैला था कि अंत नहीं दिख रहा था. लगा आंखें कमजोर हो गईं. बुद्धिजीवी भीतर से चीखा : रे बीड़ू तेरा आंख नहीं, बुद्धिच कमज़ोर होंगया है. एक गंवार के लिए आंशिक बौद्धिक होने से ज्यादा खतरनाक कुछ नहीं.

बचपन में किसी साइंस की किताब में पढ़ा था समंदर की लहरें तटों से टकराकर क्यों लौट जाती हैं. समंदर किनारे रहा तो दो नंबर के इस सवाल का जवाब याद नहीं आया. मैंने अपना जवाब वहीं मौका-ए-समंदर पर तैयार किया. ये शायद समंदर में समाने वाली नदियों को पहाड़ों का श्राप है. तुझे वो सब किनारे मिले जो तेरे कभी न हों, जिसे तू जी-भर छू भी न पाए. या शायद लहरें किनारों में पहाड़ खोजती हैं. ये नहीं जानती कि शहरों में पहाड़ों को खुले में नहीं, सीने पर रखा जाता है.

टेक्नॉलजी का फायदा ये है कि जूम करो तो सूरज भी करीब खिंचा चला आता है. जिन उंगलियों से कभी किसी अपने के आंसू नहीं पोंछ पाया था, उन्हीं से मैंने सूरज को देखकर जूमआउट कर समंदर में फेंक दिया और उठकर चला गया. न मैं रोया, न सूरज बुरा माना होगा.

डूबने के बाद
किसी के रोने, उदास होने की परवाह
कोई क्यों करें
कल सुबह सूरज उगेगा
आओ तब तक थकां पटवावा जाए

मैं नए लोगों से मिलने में बहुत डरता हूं. अभी हाल में एक दोस्त ने बताया, तुम्हें जो ये है कि इसे सोशल एनजाइटी कहते हैं. इंग्लिश में बीमारी सेक्सी लगती है. हिंदी में मानसिक तनाव भी दस्त जैसा साउंड करता है. किसी से मिलूंगा तो बात क्या करूंगा… ये सोचकर मैं महीनों, सालों बहुतों से नहीं मिला. इसमें मेरी महानता या बड़प्पन नहीं, खोखलापन है. इंग्लिश में बोले तो सोशल एनजाइटी. हाजी अली के गेट पर मैं एक प्यारे बालक से मिला. स्वेटर वाली सिलाइयों-सा हम दोनों बातें बुनते गए. उसी ने बताया कि ये बम्बई की सबसे खास सड़क है, वो देखिए मुकेश अंबानी का घर.

आइ गजब. हम दोनों ने अल्टामाउंट रोड पर फूल की दुकान वाले से पूछा, ‘‘मुकेश भाई के घर का गेट किधर से है, उधर जा सकते हैं क्या?’’

वो बोले, ‘‘ऐ जा ना उधर मेरा भी घर है, जा जा बिंदास जा.’’

रिश्तेदारों वाला कॉन्फिडेंस लेकर हम मुड़ लिए. जेएनयू के सामने बौद्ध विहार जैसी ऊंचाई पर चढ़ती हुई सड़क पर हम जैसे ही चढ़े, एक कमांडो से भरी गाड़ी, महंगी गाड़ी और एंटीना वाली गाड़ी निकली. आंखों पर पूरा जोर डालते हुए काले शीशों के पार देखने की कोशिश की. समझ नहीं आया कि अंदर नर है या मादा. कार निकली तो गेट खुला होगा, मुकेश भाई के घर के भीतर झांका तो वहां भी हम जैसे लोग खड़े नजर आए. संगी दोस्त बोला, ‘‘ये तो अपनी तरह दिख रहे हैं. धत्त क्या फायदा इतना अमीर होने का.’’

हम दोनों ने मुकेश भाई के घर को ‘वन बीएचके विदाउट किचन एंड लैटरिंग’ वाली निगाह से देखा और खारिज कर आगे बढ़ गए. पर अच्छा ये लगा कि मुकेश भाई के घर के ठीक सामने लगभग झुग्गी झोपड़ीनुमा घर हैं. जहां चूल्हे पर सड़क में रोटियां सेंकी जा रही हैं. एक या पांच रुपये वाली कचरी मिल रही है. लोअर मिडिल क्लास को सुख अमीरों और गरीबों को एक सड़क पर देखने में भी मिल जाता है. खुद किसी को चुनौती न दे पाने के डर से पार पाने के भी तरीके निराले हैं.

इसी सड़क पर आगे ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ यानी शैलेश लोढ़ा मिले. जब तक स्माइल देकर हेलो बोलने का कॉन्फिडेंस ला पाता तब तक वह पीछे गुजर चुके थे. मिलने से याद आया, जिस दिन बम्बई आया था उसी शाम ‘गेटवे ऑफ इंडिया’ गया था. प्रसून जोशी मंच पर कविता पढ़ रहे थे. सामने की सारी कुर्सियां खाली, लगा कि अरे यार बताओ इतना बड़ा राइटर और ये हाल. बाद में पता चला ये 26/11 से जुड़े प्रोग्राम की प्रैक्टिस चल रही है. ज़मीन पर बैठा डायरेक्टर-सी शक्ल का आदमी बोला, ‘‘प्रसून दर्द लाओ दर्द.’’ च्चच राइटर्स की कहीं कोई इज्ज़त नहीं.

तभी हल्ला हुआ : ‘‘मिस्टर बच्चन इज कमिंग विदइन फाइव मिनट्स.’’ गार्ड आए और बोले, ‘‘नॉर्मल पीपुल आर नॉट अलाउड, यू मे लीव.’’ अमिताभ बच्चन अबनॉर्मल लोगों के लिए हैं. ये सोचकर आगे तो बढ़ा, लेकिन कुछ अटका रहा. इरफान खान, नवाज, संजय मिश्रा को छोड़ दूं तो किसी के साथ न तस्वीर खिंचाने का कोई मोह, न मिलने का कोई क्रेज. लेकिन बच्चन को देखने का मन हुआ, क्योंकि ये सब अनप्लान्ड था. बहरहाल, मैंने स्टार अमिताभ बच्चन को देख लिया और रेस्त्रां जाकर नींबू नमक चाट लिया.

ताज होटल बाहर से वाकई सुंदर है. बम्बई हमलों के दौरान गाड़ियों की तलाशी लेते और गेट पर खड़े लोगों को सबसे पहले गोली लगी होगी, ये सोचकर मन अजीब-सा हुआ. एक से परिवेश और गरीबी में जिए लोग, अलग-अलग चुने रास्ते और अपने जैसों से अपनी मौत. किसी हमले की बरसी पर ‘मजबूती की कहानियों’ को थोड़ा पीछे या बिल्कुल आगे आना चाहिए. बहुत रुला देने वाली कहानियां शीशा लिए कार के नीचे बम तलाश रही हैं, जिनकी जरूरतों के धमाकों की कोई बरसी नहीं होती.

जूहू का नाम जूही चावला की वजह से पड़ा होगा. बचपन में सोचा करता था. जब गया तो छत्रपति शिवाजी महाराज तोप के संग तलवार लटकाए दिखे.

मैंने भीतर से ‘जय महाराष्ट्रा’ बोला और समंदर किनारे चला गया.

ऊपर चांद था, नीचे समंदर और रात का बैकग्राउंड. पुढील स्थानक गहराई. मैं बस उतर गया. लहरों के करीब आते ही उछलकर मैंने लहरों को कई दफा धोखा दिया. खुद के साथ थोड़ा बहुत बुरे हुए के बदला लेने के अपने तरीके होते हैं. समंदर की हर लहर से उचककर मैंने भी शायद पहाड़ों का बदला ले लिया. नदियों का जो भी हिस्सा उन लहरों में शामिल होगा, समझ गया होगा.

बड़ों के ज्ञान और बच्चों के पेशाब में एक कॉमन बात ये है कि वो कभी भी निकल जाता है. मैं बच्चा ही ठीक था.

‘गेट वे ऑफ इंडिया’ से समंदर के रास्ते एक घंटे की दूरी पर एलीफेंटा की गुफाएं हैं. मूर्तियों की टांगों पर बने जानवरों को देखकर किसी कालविशेष के कला-सौंदर्य पर बात करने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं. न ही मैं इस महान कला को जानता हूं. अपनी दिलचस्पी समंदर और भोले में हैं. इसलिए मैं बोट में चढ़ लिया.

बम्बई समंदर से प्यारा दिखता है. बोट में ऊपर जाकर आगे बैठ गया और शहर को दूर होता देखने लगा. हम सबके कितने ही शहर और गांव कितनी दफा दूर हो जाते हैं. वो जिन्हें हम प्यार करते हैं या वो जिनका साथ हम चाहते हैं. फिर कोई दूसरे शहर से आता है या वहीं चला जाता है. हम किनारे पर खड़े रह जाते हैं. कुछ टाटा कर देते हैं और कुछ इंतजार करते हैं कि अरे वो आता ही होगा.

कौन आया, कौन गया
हम तो तब भी और अब भी
हैं वहीं खड़े…

जहां होकर लगने लगा कि आंखें कमजोर हो चली हैं. अंत दिख नहीं रहा है. जबकि इन आंखों का कमजोर लगना, खुद के खुद से धुंधला जाने जैसा था. शायद वही अंत था या शायद यही अंत है. समंदर की गहराई नीचे की तरफ नहीं, ऊपर की तरफ होती है… जहां क्या है और क्या नहीं, ये देखने की सहूलियत है.

एलीफेंटा की गुफाएं सुंदर हैं. बड़े-बड़े शिवलिंग, टूटी मूर्तियां. बड़े-बड़े खंबे. ऐसी कलाकृतियां, जिन्हें देखो तो ये ख्याल आता है कि लाइट कलर की शर्ट पहनकर आओ तो फोटू बढ़िया आएगी यहां. डार्क बैकग्राउंड पर लाइट कलर के कपड़े पहनकर फोटू खिंचानी चाहिए. कला वही है, जिसमें हम सूरत या सीरत से सुंदर दिखें.

भोले इज ए कूल गाय विद नंदी एंड थ्री अदर्स. इतनी दूर बीच समंदर में अकेले बैठे हैं. रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘एकला चलो रे’ भोले को इमेजिन करके ही लिखा होगा. अच्छी बात ये थी कि यहां ढोंगी पंडितों वाला ढोंग नहीं था. झूठी पूजा नहीं थी. एक शिवलिंग पर बस एक फूल रखा हुआ था. गुफाओँ से बाहर निकलो तो ऊपर की तरफ जंगल है. मैं चलता गया, चलता गया. एक छोर पर दूर तक समंदर दिखने लगा. मैं फिर भी चलता गया, चलता गया, तभी ख्याल आया. रुक स्याले, नया फोन लिया है. आगे कोई मिल गया और लप्पड़ लगाकर छीन लिया तो एलीफेंटा की टूटी मूर्ति-सा मुंह लेकर लौटोगे. ठहर और लौट.

डर के आगे हर बार जीत ही नहीं होती. कई बार बैकस्पेस भी होता है.

एलीफेंटा में पानी की बोतल ली तो वहां की दुकानदार ने 50 का नया नोट पकड़ाया. मैंने कहा, ‘‘अरे वाह, यहां ये नोट आ गया.’’ वह बोलीं, ‘‘200 का भी आ गया, चाहिए है तो बोलो.’’ मैं झंड-सा मुंह लिए ‘किन-ले’ गुटकने लगा.

समंदर से लौटते हुए परिंदों ने काफी दूर तक पीछा किया. वे शायद 100 के करीब थे. छू लेने भर की दूरी पर उड़ते परिंदे, पीछे छूटती लहरें और दूर डूबता सूरज. बोट और मैं दोनों भरे हुए थे. मुझे एक पल को लगा कि रो दूंगा, नहीं रोया. टेक्नोलजी ने हम जैसों का भला भी किया है. मैंने मां को वीडियो कॉल किया, उन्होंने नहीं उठाया. बाद में ‘फाइव मिनट्स एगो’ का फोटो स्टेटस देखा : इन कीर्तन.

समंदर की लहरों पर डूबते सूरज के रंग को देखना महबूब से शॉल में लिपटकर गले लगने जैसा लगा. थोड़ा भी तैरना आता तो मैं उसी रंग में कूद जाता. सूरज या समंदर के हाथ रोकने बढ़ते तो मैं अपना नया फोन थमाकर कहता कि मैं मुंह उधर कर रहा हूं एक फोटू ले दो, फिर मैं तुम्हारी भी ले दूंगा.

सूरज, चांद की तरह मुझे भी सारे वक्त शक्ल दिखाना पसंद नहीं.

समंदर से लौटकर चर्चगेट स्टेशन लौटा तो महसूस हुआ. ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ फिल्म के गाने ‘जय हो’ की शूटिंग शायद यहीं हुई है. बैकग्राउंड स्कोर में फिल्म के म्यूजिक का फील लिए मैं लोकल में चढ़ा. बढ़ती भीड़ के चढ़ते-चढ़ते मेरा ‘जय हो’ का बैकग्राउंड स्कोर ‘ऐ बाजू हो न’ में बदल गया.

एक शाम अपनी दोस्त प्रेमी जोड़ी संग नरीमन प्वॉइंट पर धर्मवीर भारती के प्रेम-पत्रों, उपन्यासों पर आधारित नाटक ‘शब्द लीला’ देखने गया था. इला अरुण, केके रैना के इस नाटक को देखते हुए मेरे दोस्त भाई कहते हैं, यार ऐसा लिखो कि मरने के बाद लोग तुम्हारे लिखे पर नाटक बनाएं. तभी मेरी नजर आगे की सीट पर बैठे नामवर सिंह पर गई. एक्टिंग सबकी धांसू थी.

बम्बई घूमने का सबसे सही तरीका पैदल, बेस्ट और लोकल ही है. मैं छत्रपति शिवाजी महाराज म्यूजियम गया.

भाईसाहेब बहुत बड़ा म्यूजियम है. सिकंदर और मोहेंजोदड़ो के जो पुतले गूगल इमेजेस पर मिलते हैं, वो यहीं धरे हुए हैं.

चीजों को बारीकी से नहीं, माइन्यूटली देखने वाली एक अंग्रेजन लड़की पर मेरी नजर पड़ी. वह मुस्कुराई, मैं मुस्कराया. कुछ दूरी से मैंने हाइट भी मिलाई. लगा कि ये बम्बई वाले भाई दोस्त का डियोड्रेंट काम कर रहा है. लेकिन तभी आधा कच्छा पहने टाइटैनिक के जैक लुक लिए एक अंग्रेज आया और उसे ले गया. मोटी जांघों का फायदा ये होता है कि आप आधा कच्छा पहनकर बिना अश्लील लगे शहर घूम सकते हैं.

वहीं से कुछ दूर पैदल चला और बैंड स्टैंड की बस ली. समंदर देखने का मन था. कंडक्टर के पास टिकट लेने गया तो वो ‘वसा..वसा’ बोला. मैं समझा नहीं तो सीट की तरफ इशारा करके बोला, ‘‘वसा.’’ मैं बैठ गया. बोला, ‘‘बैंड स्टैंड आए तो बता दीजिएगा.’’ इशारा मिलते ही जहां उतरा, वहां ‘मन्नत’ लिखा हुआ था.

जुबां से ‘ओ तेरी’ निकल गया. मुझे नहीं मालूम था कि ये शाहरुख खान का घर यहां है. बंगले के पीछे शीशे की इमारत थी. मुकेश भाई का घर भी शीशे का है. मैं अगली बार बम्बई आऊंगा तो दूरबीन लाकर शीशों के भीतर झाकूंगा. नीले रंग की लुंगी में मुकेश अंबानी कैसा लगता होगा… ये सोचकर आत्मा ‘जियो’ हो उठती है.

अपने शीशों (आईनों) में खुद के पूरे न दिख पाने का एहसास दुख है या सुख है. ये समझना मुश्किल है.

शाहरुख के घर के बाहर अथाह समंदर है. महबूबा के लिए हाथ फैलाने का शाहरुख का मशहूर स्टाइल समंदर से चुराया हुआ है. समंदर रोज शाहरुख के लिए हाथ फैलाए रहता है. शाहरुख ने फिल्मों में बस समंदर की नकल की है और गेट पर हाथ फैलाकर तस्वीर खिंचा रहे लोगों को यकीन है कि वे शाहरुख की नकल कर रहे हैं.

मैं भुट्टा लेकर समंदर किनारे चला गया. तसल्ली से देख ही रहा था कि तभी फिसल गया और नए मोबाइल के साथ पानी और चट्टान पर गिर गया. हाथ से खून निकल रहा था लेकिन मैंने पहले फोन को पोंछ लिया. गिरा हुआ भुट्टा कौए खाने लगे. ब्लडी इंटैलेक्चुअल्स.

किसी भी नशे और यात्रा में कुछ फ्रेक्शन ऑफ सेकेंड्स होते हैं, जिनमें आप सारा सुख भोग लेते हैं. ऐसा ही कुछ सुख मुझे बैंड स्टैंड के समंदर पर मिले. इस जगह रहने वाला बंदा रोमांस इतना अच्छा कैसे कर सकता है, इसे समझने के लिए मुझसे मिलें. मैं वहां से थोड़ा समंदर, थोड़ा सूरज और चट्टानों की खरोंच ले आया हूं. गले लगूंगा तो शायद गले मिलने वाले में भी थोड़ी मुहब्बत घुल जाए.

बम्बई की एक ट्रेन में था. किन्नर आकर मेरे बराबर बैठे लड़कों से जबरन पैसे लेता है. किन्नर के जाने के बाद सामने बैठी मराठी आंटी बोलती हैं, ‘‘ये तुम लोगों सेहिच लेंगा. मेरे से नहीं लेंगा. तुम लोग शकल से बिहारी दिखता है न इसलिए.’’ मुझे लगा कि ‘दिल्ली से हूं BC’ की टीशर्ट खरीद लेनी चाहिए थी.

गूगल जहां समंदर दिखाता, मैं उतर जाता. एक रात दादर से 1.20 AM वाली लोकल लेनी थी. भागते हुए प्लेटफॉर्म पहुंचा, तब तक ट्रेन जा चुकी थी.

बम्बई की आखिरी लोकल छूट चुकी थी. इतना मैं किसी के लिए कभी नहीं भागा. या शायद भागा हूं. दिल्ली के एक स्टेशन से कोई हमेशा के लिए बम्बई जा रहा था. जिसे मैं हर ट्रेन के डब्बे के बाहर लगे चार्ट और शीशों से अंदर झांककर खोज रहा था. सारी ट्रेनें आंखों के सामने से जा चुकी थीं. कोई नहीं मिला. सब ट्रेनें जा चुकी थीं, नए सरनेम वाले कई नाम चार्टलिस्ट में दर्ज किए हुए. न मैं उस रोज कोई नाम चेहरा खोज पाया था, न बम्बई रहते हुए और न ही दिल्ली मेट्रो में.

एक के लिए पुढील स्थानक बम्बई और दूसरे के लिए अगला स्टेशन दिल्ली ही रह गया था.

मैंने समंदर देखने के लिए बम्बई को नहीं चुना था.

***

[ विकास त्रिवेदी के लिए इस चालू परिचय से कि वह पेशे से पत्रकार हैं, बचने की कोशिश ही वहां ले जा सकती है, जहां नए बन रहे हिंदी गद्य को समझा जा सकता है. वह कम लिखते हैं, इस कम लिखने में ‘अन्वेषण का वैभव और यात्रा का अप्रत्याशित’ है. लिखावटों की भरमार वाले हमारे मुखर वक्त में उनका गद्य ‘इंतजार का गद्य’ है. यहां प्रस्तुत गद्य मुंबई और समुद्र के प्रथम दर्शन के बाद किसी आह की तरह उपजा है. विकास ने इसे अपने ब्लॉग patvaar.blogspot.in पर लिखा है. यहां यह वहीं से साभार है. उनसे desire.vikas7@gmail.com पर बात की जा सकती है.]

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