कविताएँ ::
बालकीर्ति

गिरजा
एक
मेरे दुःख के पानी में डूबा तुम्हारा चेहरा
दूर से देखो तो मेरी आँखों में
जैसे एक डूबा हुआ गिरजा।
दो
उनकी रुनुक-रुनझुन में किस विछोह का संताप था
वह आवाज़ गिरजा से कब आई थी?
मेरे दुःख के बियाबान में बजती थीं
तुम्हारे अधूरे चुंबनों की घंटियाँ।
तीन
मेरे स्तन में जिस रात नहीं उतरा पीड़ा का दूध
उस रात एक निर्बोध शिशु-से
कुचाग्र को मुँह में लिए
सुख की धार-धार कल्पना में सोए तुम—
जैसे मरियम की गोद में यीशू।
चार
अधर-अधर पर
नाभि-नाभि पर
मिले होते हैं हम
जब इस तरह
कि परछाईं भर जगह भी नहीं बचती
तब प्रेम का पवित्र क्रॉस बनता है।
पाँच
उस रात
इस डर से
आँखें बंद नहीं करती थी
कि बुझ न जाए
एक जगमगाता गिरजा—
मेरी आँखों में
तुम्हारा चेहरा।
छह
कहते हैं
कि जिस दिन से
मेरे दुःख की हथेली जली
बुझी नहीं
तुम्हारे प्रेम की निष्कंप लौ
पिघले मोम के समंदर में डूब गया
परमपिता परमेश्वर
नहीं जलाई गई गिरजाघर में एक भी मोमबत्ती।
सात
एक दुपहर
हमने प्रेम किया था
मेरी देह की सलीब पर चढ़ा था
अनंत सुख का मसीहा
तुम्हारी देह पर मेरे चुंबनों की गहराई
कील की मानिंद गढ़ती रही
उसी दुपहर
हमारे इस जघन्य अपराध पर
मिला तुम्हें काँटों का ताज।
आठ
अब भी
मेरे भीतर
बचे हो तुम
जाना चाहो तो
रात चले जाना
मगर तब
क्या होगा
जब सुबह
आँख मलते देखेंगे लोग—
ख़ाली सलीब और सूना गिरजा!
बालकीर्ति की कुछ रचनाएँ यत्र-तत्र प्रकाशित हैं। वह दिल्ली में रहती हैं। उनसे [email protected] पर बात की जा सकती है।