कविताएँ ::
निर्मला गर्ग

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निर्मला गर्ग

एक

जो बहुत बोलते हैं,
वे कुछ नहीं कहते
कुछ कहते हैं जो,
उनकी आवाज़ सुनाई नहीं देती।

दो

अर्थ शब्दों को ऐसे छोड़ रहे हैं
जैसे
भूकंप आने से पहले चूहे बिल छोड़ते हैं।

तीन

कक्षाओं में तीन तिहाई अर्थशास्त्र समझ में आता था,
अब समझ नहीं आता एक तिहाई भी।

चार

एकांत की अपनी ज़िदें होती हैं।

पाँच

मैं न भेड़ की तरह बेवक़ूफ़ बनना चाहती हूँ,
न लोमड़ी की तरह चालाक।

छह

असंभावनाओं के क्षितिज के पार असीमित संभावनाएँ हैं।

सात

मेरे शब्दकोश से कई शब्द पतिंगों की तरह उड़ गए।

आठ

दोस्ती के चेहरे पर असमंजस की लकीरें हैं,
यह अलग बात है कि अभी वे गहरी नहीं हैं।

नौ

कहीं पढ़ा था—एक-एक अनुभव लाख का,
इस तरह कविता में हमने अरबों का निवेश किया।

दस

सफल होने के नुस्ख़ों पर वे भरपूर अमल करते हैं,
हाँ में हाँ मिलाने की कला को शास्त्रीय संगीत समझते हैं।

ग्यारह

राजनीति के आकाश का चाँद काला पड़ गया है,
तारों को भी ढँक लिया बर्बरता ने।

बारह

तर्क के ओजस्वी चेहरे पर पुती है—आस्था की स्लेटी राख।

तेरह

अचार की तरह मष्तिष्क में भी फफूँद लगती है,
उसे भी दिखानी चाहिए विचार और संघर्ष की धूप।

चौदह

वह अपनी सफलता का बखान कर रहा है,
मैं देख रही हूँ उसके भीतर—सूने बरामदे।

पंद्रह

एक ग़रीब बच्ची किसके बारे में ज़्यादा सोचती है—
आइसक्रीम के बारे में या नए रिबन के बारे में?

सोलह

हेयता से देखते हैं गहराइयों को, सतह पर जीने वाले।

निर्मला गर्ग (जन्म : 1955) हिंदी की सुपरिचित कवयित्री हैं। उनके चार कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। वह नोएडा, उत्तर प्रदेश में रहती हैं। उनसे nirmalag.garg@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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